सार्थक और निरर्थक: दोमुंही तलवार पर चली दावोस की बतकही

भारत अपने तमाम आंकड़े, मीडिया मैनेजमेंट और सियासी शोशेबाजी के बावजूद वैश्विक रस्साकशी में दूसरे दर्जे का खिलाड़ी ही बना रहेगा, जबकि उसमें अगली कतार में खड़े होने का दम-खम है.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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ब्रिटिश लेबर पार्टी के वरिष्ठ नेता जॉन मैक्डॉनेल ने स्विट्जरलैंड के दावोस में जुटे दुनिया भर के अभिजात्यों को संबोधित करते हुए कहा कि उन लोगों को यह अंदाजा नहीं है कि आम लोग उन्हें कितनी हिकारत से देखते हैं. उन्होंने स्विस स्की रिसॉर्ट के ऐशो-आराम और दुनिया के अरबों लोगों के जीवन की तुलना करते हुए कहा कि यह स्थिति एक गड़बड़ तंत्र का नतीजा है और इसे बदला जा सकता है.

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मैक्डॉनेल की बातों को ब्रिटिश मीडिया के अलावा कहीं और जगह नहीं मिली. यह तथ्य अपने-आप में यह साबित करने के लिए काफी है कि दावोस के इस जुटान में या फिर ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों की आशंका से पैदा हुई चिंता और उस चिंता के माहौल का फायदा उठाते हुए चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग के पिछले साल के भाषण के माहौल में हुई पिछले साल की बैठक में वैश्वीकरण को लेकर कोई गंभीर चर्चा नहीं हुई है.

दावोस की बैठक से पहले ऑक्सफैम द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनियाभर में बीते साल जो संपत्ति का अर्जन हुआ है, उसका 82 फीसदी हिस्सा सर्वाधिक धनी एक फीसदी लोगों के खाते में गया है. भारत के लिए यह आंकड़ा 73 फीसदी है. बहरहाल, इस आंकड़े पर काफी चर्चा हो चुकी है तथा आर्थिक विषमता और वेतनों में खाई का अनुभव हम आसानी से अपने रोजमर्रा के जीवन से पा सकते हैं. इसी बीच एक सर्वेक्षण अमेरिका से आया है, जिस पर गौर करना जरूरी है.

अमेरिका की वैश्विक संचार मार्केटिंग संस्था एडेलमैन ने दावोस में अपनी सालाना रिपोर्ट जारी की है जिसे ट्रस्ट बैरोमीटर कहा जाता है. इसमें लोगों के विभिन्न संस्थाओं के प्रति भरोसे का आकलन किया जाता है. इस बार 28 से अधिक देशों के 33 हजार लोगों का सर्वेक्षण किया है. इसमें सरकारों के साथ मीडिया के प्रति लोगों का भरोसा बहुत कम हुआ है तथा सत्तर फीसदी लोग झूठी और ग़लत ख़बरों को लेकर चिंतित पाये गये. मीडिया आज के दिन किसी भी अन्य क्षेत्र के मुकाबले सबसे कम भरोसेमंद क्षेत्र है. हम इन आंकड़ों और सैंपल साइज को लेकर बहस कर सकते हैं, पर इससे माहौल का एक अंदाजा तो मिलता ही है.

मीडिया के प्रति अविश्वास को मैक्डॉनेल की बात से जोड़ कर देखें, तो बात यही कही जा सकती है कि दुनिया के असली हालात को या तो छुपाया जा रहा है, या फिर तोड़-मरोड़कर पेश किया जा रहा है.

सरकार, उद्योग और मीडिया को लेकर अगर यही शक-सुबहा बना रहा, तो स्थिति विस्फोटक हो सकती है. इस लिहाज से मैक्डॉनेल की बात पर वैश्विक नेताओं और धनकुबेरों को गंभीरता से ध्यान देना होगा. इसी संदर्भ में हमें इस बात को रेखांकित करना चाहिए कि दावोस में सूचना/डेटा को लेकर भी बहुत बातें हुईं. प्रधानमंत्री मोदी ने अपने उद्घाटन भाषण में तो यहां तक कह दिया कि ‘आज डेटा सबसे बड़ी संपदा है, डेटा के ग्लोबल फ्लो से सबसे बड़े अवसर बन रहे हैं और सबसे बड़ी चुनौतियां भी.’

खरबपति अमेरिकी निवेशक जॉर्ज सोरोस ने तो फेसबुक और गूगल जैसी सोशल मीडिया संस्थाओं को बाधक और नुकसानदेह तक करार दे दिया. ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने भी सोशल मीडिया की कुछ खामियों का उल्लेख किया. हम सब यह जानते हैं कि आधार संख्या से जुड़े डेटा की सुरक्षा और लोगों की निजता के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई चल रही है. डेटा चोरी और अवैध रूप से इस्तेमाल के मामले भी सामने आये. ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी का ऐसा बयान चिंताजनक है.

शायद हमारी सरकार ने भी इसका अहसास किया है, तभी तो विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर प्रधानमंत्री के दावोस भाषण के उस हिस्से का कोई जिक्र नहीं है जिसमें वे डेटा को बड़ी संपदा बता रहे थे. तो, क्या प्रधानमंत्री बहुत व्यापक डेटाबेस को दिखाकर निवेशकों को लाल कालीन पर बुलाना चाह रहे हैं! यह अफसोस की बात है कि भारतीय मीडिया ने उनके भाषण पर गंभीरता से विमर्श नहीं किया, जैसा कि ब्रिटिश, अमेरिकी या चीनी मीडिया ने अपने प्रतिनिधियों को लेकर किया.

आख़िर दावोस से हमें इतनी उम्मीद भी क्यों होनी चाहिए! विश्व आर्थिक मंच का यह सालाना जमावड़ा राजनेताओं, कारोबारियों और उद्योगपतियों का एक जलसा ही है. चूंकि इसे एक निरपेक्ष मंच की तरह देखा जाता है, तो कभी-कभार सहयोग और सहमति के मौके बन जाते हैं, या फिर कुछ प्रतिभागी बेबाकी से अपनी बात कह जाते हैं. लेकिन चाहे वहां पर्यावरण पर चर्चा हो जाये या महिलाओं की बराबरी पर बतकही हो जाये या फिर आर्थिक और क्षेत्रीय बराबरी की जरूरत पर जोर दे दिया जाये, दावोस का अंतिम सच बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेशनों तथा मालदार थैलीशाहों के हितों की रक्षा ही है.

पिछले साल दावोस में ट्रंप के आसन्न संरक्षणवाद का भय व्याप्त था, तब चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग ग्लोबल गांव के देवता बन कर उभरे थे. इस बार क्या हुआ? भले ही चीनी मीडिया यह दावा करे कि इस साल के जलसे की थीम राष्ट्रपति जिनपिंग के पिछले साल के भाषण से प्रेरित थी, पर यह भी सच है कि चीनी प्रतिनिधियों को बार-बार निवेशकों को यह भरोसा दिलाने की जरूरत पड़ी कि चीन अपने कर्ज को नियंत्रित करने की कोशिश करेगा. चीनी प्रतिनिधि तो यहां तक कह गये कि 2008 की आर्थिक मंदी जैसी स्थिति आयेगी तो चीन बड़ी संस्थाओं को सहारा देगा. लेकिन इस दफे मजे की बात यह रही है कि ट्रंप प्रशासन द्वारा कॉरपोरेट करों में भारी कटौती से कारोबारी और धनकुबेर बहुत खुश नज़र आये और ट्रंप को लेकर पहले की आशंकाएं बहुत हद तक दूर हो चुकी हैं.

तो, यह देखा जाना चाहिए कि एक तरफ ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता धनी लोगों और कॉरपोरेशनों पर टैक्स बढ़ाने और उसमें पारदर्शिता की बात कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ वैश्वीकरण के मूल्यों की रोजाना धज्जियां उड़ानेवाले डोनाल्ड ट्रंप करों में राहत देकर वैश्विक अभिजात्यों को अपने पाले में लाने में सफल होते दिख रहे हैं.

इन दो तरह की सोच के बीच में आगामी सालों की राजनीतिक बहसें और लड़ाइयां घटित होंगी. अफसोस की बात है कि भारत अपनी तमाम आंकड़ेबाजी, मीडिया मैनेजमेंट और सियासी शोशेबाजी के बावजूद वैश्विक रस्साकशी में दोयम दर्जे का खिलाड़ी ही बना रहेगा, जबकि उसमें अगली कतार में खड़े होने का दम-खम है.

और आखिरी बात यह कि हमें यह तो पूछना ही चाहिए कि दावोस में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को व्यापक स्तर पर संपादित कर विदेश मंत्रालय की वेबसाइट पर क्यों डालने की जरूरत पड़ी! ऐसा वे क्या बोल गये, जो नहीं बोलना था?

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