ये तस्वीर उम्मीद से ज्यादा चिंता पैदा करती है

बंगलुरू में 13 छोटे-बड़े दलों का जमघट एक बड़े संकट से निपटने के लिए है, लेकिन इसके अपने अंतरनिहित संकट भी कम नहीं हैं.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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2019 का चुनावी आगाज़ हो चुका है. बंगलुरू में एचडी कुमारस्वामी की ताजपोशी के लिए विधान सौदा के सामने जो मंच सजा वहां से मुनादी कर दी गई है कि (इक्का-दुक्का छोड़) सारा विपक्ष इस बार मोदी के खिलाफ खड़ा होगा. देश की राजनीति एक बार फिर से चक्कर पूरा कर उसी दोराहे पर आ खड़ी हुई है जहां अतीत में भी ये एकाधिक मौकों पर आकर ठिठक गई थी.

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किसी एक व्यक्ति या दल के परम शक्तिशाली हो जाने पर समूचे विपक्ष के एकजुट हो जाने की पहली दास्तान आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी के खिलाफ देखने को मिली जब दक्षिणपंथी, समाजवादी सारे एक होकर लड़े और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार भी बनाई. दूसरा मौका 1989 में आया जब 419 सांसदों वाली राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ दक्षिणपंथी, वामपंथी, समाजवादी एक ही झूले मे पींगे मार रहे थे. इस बार भी इन्होंने सरकार बनाई.

लेकिन इन दोनों वाकयों का दूसरा पहलू भी है, और वो ज्यादा महत्वपूर्ण है. आपातकाल के बाद बनने वाली गैर कांग्रेसी सरकार दो साल में दम तोड़ गई, 1989 में भ्रष्टाचार की पीठ पर सवार होकर सत्ता में पहुंचे वीपी सिंह 11 महीने में इस्तीफा देकर सत्ता से बाहर हो गए.

जो दृश्य बुधवार को बंगलुरू में विधान सौदा के बाहर मंच पर सजा था, वो शुरुआती जोश और उत्साह का सबब तो हो सकता है लेकिन राजनीति की व्यावहारिकता इसके अलावा भी बहुत कुछ और की मांग करती है. मसलन पिछली जिन दो सरकारों का ऊपर जिक्र आया वो अपने अंतरविरोधों, अपनी महत्वाकांक्षाओं, अपनी व्यक्तिगत ईर्ष्याओं का शिकार होकर औंधें मुंह गिरीं, और इस गिरावट में उन्होंने जनता की अपेक्षाओं का रत्ती भर भी ख्याल नहीं किया. लिहाजा इस तस्वीर में उपस्थित नेताओं के सामने चुनौती सिर्फ चुनावी हार-जीत की नहीं बल्कि इतिहास को भी गलत सिद्ध करने की है.

यह हमारी राजनीति का कुटिल सत्य है, नेता चुनाव से पहले जनता का नाम जपते हैं और चुनाव के बाद हर किस्म के हथकंडे अपनाते हैं जिसमें सबसे ऊपर उनका निजी हित, परिवार का हित, दल का हित, रुपए पैसे का हित आता है, अंत में जनता की बात की जाती है.

ऐसा मंच जिस पर सोनिया गांधी, राहुल गांधी, ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, शरद पवार, अरविंद केजरीवाल, चंद्रबाबू नायडू, उमर अब्दुल्ला, सीताराम येचुरी, पिन्नारायी विजयन सरीखे नेता मौजूद हों वह निश्चित रूप से वर्तमान में संकटग्रस्त लोकतंत्र की आदर्श तस्वीर हो सकती है.

जब गाय, गोबर के नाम पर लोगों की भावनाओं को हिंसक बनाया जा रहा है, जब नागरिकता के कानूनों में भेदभाव किया जा रहा है, जब संस्थानों की विश्वसनीयता निम्नतम धरातल पर है, जब भारत जिन वजहों से भारत था उसी मूल विचार पर हमले हो रहे हैं तब ऐसी तस्वीरें भरोसा तो देती हैं. लेकिन इस भरोसे को कायम रखने वाले बाकी अवयव, वो राजनीतिक व्यावहारिकता, खुद को एक क़दम पीछे रखने की जरूरत, अपनी व्यक्तिगल लालसाओं को तिलांजलि देने का भाव इनमें से किसी में है? इस एक सवाल में बहुत सारी समस्याओं का हल छिपा है.

अतीत में दोनों सरकारें जिस मुकाम पर पहुंची वही गति आगे भी देखने को मिले तो भारत की जनता को आश्चर्य नहीं होगा, वह इसकी अभ्यस्त हो चुकी है, एक और धोखा खाकर वह चुपचाप आगे बढ़ जाएगी. इस चिंता की कुछ वाजिब वजहें हैं जिन्हें आगे कुछ आंकड़ों, नेताओं, दलों के आपसी संबंधों की बुनियाद पर समझने में आपको आसानी होगी.

अपने कार्यकाल की चौथी सालगिरह मनाने जा रहे नरेंद्र मोदी ने जो इतने कम समय में जो चुनौती पेश की है, देश के संविधान और लोकतंत्र के सामने जो खतरे पैदा किए हैं, उसके बरक्स बंगलुरु के मंच पर खड़े नेताओं से कुछ असाधारण प्रदर्शन की अपेक्षा है, व्यक्तिगत त्याग इसमें सबसे ऊपर है.

यह दिलचस्प संयोग है. एचडी देवगौड़ा 1996 में जिस कांग्रेस पार्टी के समर्थन से प्रधानमंत्री बने उसने सात महीने में उनके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसका दी. यह संयुक्त मोर्चा की सरकार थी. यह पूरा दौर गठबंधन की राजनीति का था. देवगौड़ा ने इसके बाद हमेशा कांग्रेस के प्रति अपनी कड़वाहट का प्रदर्शन किया, लेकिन आज उसी कांग्रेस के समर्थन से बेटे कुमारस्वामी की ताजपोशी के वक्त वे पितामह के तौर पर मंच पर मौजूद रहे. आने वाले हर अतिथि का व्यक्तिगत रूप से स्वागत अभिनंदन भी किया. हालांकि इस बार कांग्रेस पार्टी सत्ता में शामिल है. यह तीसरे मोर्चे का आगाज न होकर भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक बड़े ध्रुव का उभार है.

हालांकि आंकड़ों की जोड़तोड़ इस तरह के किसी संभावित गठबंधन के पक्ष में जाती है. तस्वीर के मुताबिक ही अगर पूरा विपक्ष एक साथ खड़ा हो जाय तो भाजपा का मिशन 2019 खतरे में पड़ सकता है. फिलहाल कुल 11 राज्य हैं जहां गैर भाजपा सरकारें हैं. यहां 13 मुख्य विपक्षी पार्टियां हैं जो मोदी को हराने के लिए इकट्ठा हो सकती हैं. इन राज्यों से लोकसभा की कुल 349 सीटें आती हैं. ये आंकड़े भाजपा को डराने वाले तो हैं. सवाल वही खड़ा होता है कि क्या इस तरह का कोई देशव्यापी गठबंधन आकार लेगा? अगर लेगा तो उसके टिकाऊ होने की गारंटी क्या होगी?

शुरुआत कर्नाटक से ही करते हैं. शपथ ग्रहण के बाद अंत में कुमारस्वामी और डीके शिवकुमार ने जनता का हाथ हिलाकर, हाथ पकड़ कर अभिवादन किया. दोनों वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं. दोनों अलग-अलग पार्टियों में हैं, दोनों का अतीत बेहद टकराव और कड़वाहट भरा रहा है. शिवकुमार कांग्रेसी विधायकों की एकता के सूत्रधार रहे हैं. खुद मुख्यमंत्री पद की इच्छा रखते हैं. फिलहाल उन्हें उपमुख्यमंत्री भी नहीं बनाया गया है. ऐसे में उनकी इच्छाएं कब तक उनकी नाराजगी को दबाए रखेंगी, देखने वाली बात होगी.

आंकड़े और आशंकाएं

कर्नाटक में तमाम कोशिशों के बावजूद सत्ता से दूर रह गई भाजपा फिलहाल भारत की 64 फीसदी आबादी पर राज कर रही है. इसका एक अर्थ यह भी है कि बाकी 13 दल (इसमें छोटे-मोटे स्थानीय दल भी हैं) अभी देश की 36% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं.

बंगलुरू में विधान सौदा के सामने कल देश ने जो नजारा देखा वह 2019 के चुनावों में अपने 36 फीसदी राज के दायरे को बढ़ाने की कवायद है. जाहिर है कर्नाटक में भाजपा की सरकार गिराने और कांग्रेस-जेडीएस की सरकार बनाने से विपक्ष के उस हौसले को बल मिला है.

इस मौके पर सबसे बड़ी चिंता यही है कि 2019 के चुनाव तक यह एकता बनी रहेगी. इसको लेकर संदेह है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री तीसरे मोर्चे के हिमायती हैं. उधर उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के नेताओं ने पहले से ही संकेत देना शुरू कर दिया है कि वो कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं करेंगे. ज्यादा से ज्यादा परिवार की दो सीटें, अमेठी और रायबरेली को छोड़ सकते हैं.

बंगलुरू के मंच पर सोनिया-राहुल के साथ अरविंद केजरीवाल भी थे. पंजाब और दिल्ली में दोनों पर्टियां एक दूसरे की कट्टर विरोधी हैं. अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित को हराकर कांग्रेस को दिल्ली की सत्ता से बाहर किया था. यही हाल पंजाब में हैं जहां कांग्रेस के मुकाबले आप मुख्य विपक्षी पार्टी है. ऐसे में 13 दलों के देशव्यापी गठबंधन में इनके रिश्ते कैसे निभेंगे.

नीतीश कुमार आज भी बिहार में अहम नेता हैं. 2014 में भाजपा ने उनके बिना सहयोग के 40 में से 31 सीट जीत ली थी. अब नीतीश कुमार का साथ मिलने के बाद भाजपा और एनडीए को और मजबूती मिली है. ऐसे में आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन का भविष्य क्या होगा.

महाराष्ट्र भी कमोबेश इसी तरह की उहापोह में है. 2014 में एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन के बावजूद एनडीए को 48 में से 42 सीट मिलीं. अब हालांकि शिवसेना भाजपा से अलग होकर लड़ने का ऐलान कर चुकी है. लेकिन ये भी एक सच है कि विधानसभा चुनाव में शिवसेना अलग लड़ी फिर भी भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी.

जम्मू कश्मीर में भी कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस साथ रहकर भी भाजपा को चुनौती नहीं दे पाए. झारखंड में भी भाजपा के सामने झामुमो और और बाबूलाल मरांडी की पार्टी सामने होगी. पश्चिम बंगाल में भाजपा को अभी लंबी दूरी तय करनी है. यहां ममता बनर्जी का एकछत्र राज है. पर भाजपा यहां तेजी से बढ़ रही है. मोदी मुकुल रॉय को अपने साथ लाए हैं. अभी बंगाल की 42 में से 2 सीट ही भाजपा के पास हैं. उड़ीसा में सत्ताधारी बीजू जनता दल के लिए भाजपा बड़ी चुनौती बन चुकी है.

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में लोकसभा की 42 सीटें हैं. यहां टीडीपी और टीआरएस के अलग होने के साथ ही भाजपा की उम्मीदें और खराब हो गई हैं. यहां भाजपा की उम्मीद वाईसआर कांग्रेस पर टिकी है. अगर तेलंगाना में कांग्रेस और टीआरएस अलग-अलग लड़ते हैं तो भाजपा को थोड़ा बहुत फायदा मिल सकता है. केरल और तमिलनाडु में भाजपा की उम्मीदें पहले से ही पतली हैं.

चुनौती गठबंधन बनाने की नहीं है. यह पहली चुनौती है जिसे एक हद तक पार कर लिया गया है. असली चुनौती गठबंधन को चलाने की है. अतीत गवाह है कि नेता ऐसे अवसरों पर अपने निजी हित, महत्वाकांक्षाओं और लालसाओं से ऊपर उठ पाने में विफल रहे हैं.

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