शुजात बुखारी: जांच से पहले नतीजे देने में आगे हिन्दी अखबार

सुरक्षा एजेंसियों अभी किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी हैं लेकिन हिंदी अख़बारों ने इसे आंतकियों का कृत्य करार दे दिया.

WrittenBy:अनिल चमड़िया
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कश्मीर के पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या की ख़बर समाचार पत्रों में कैसे छपी या टेलीविजन एवं रेडियो पर सुनाई गई इसपर कुछेक सचेत नागरिकों ने गौर किया है. शुजात की हत्या आकंतवादियों ने कर दी, इस तरह की खबरें भारतीय भाषाओं में करोबार करने वाले समाचार पत्रों, टेलीविजन चैनलों या रेडियो ने प्रसारित की. लेकिन शुजात बुखारी के अखबार राइजिंग कश्मीर ने यह नहीं लिखा कि उनके संपादक की हत्या आतंकवादियों ने कर दी. राइजिंग कश्मीर ने ख़बर छापी कि दो अज्ञात बंदूकधारियों ने शुजात बुखारी की हत्या की.

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तथ्य यही है कि जिन दो लोगों ने मोटरसाइकिल से आकर शुजात बुखारी की हत्या की उनके हाथों में बंदूक थी या वे हथियारबंद थे. राइजिंग कश्मीर ने ही नहीं बल्कि कश्मीर से जिन भी संवाददाताओं ने इस दर्दनाक घटना की खबरें दिल्ली में अपने अपने समाचार पत्रों को भेजी उन सबने अज्ञात बंदूकधारी शब्द का ही इस्तेमाल किय़ा. लेकिन हिन्दी के समाचार पत्रों ने शुजात बुखारी के हत्याओं को आतंकवादी कृत्य बताया. अज्ञात बंदूकधारी इसीलिए इस्तेमाल किया गया क्योंकि ये ख़बर देते वक्त कहना असंभव था कि शुजात की हत्या किसने की.

आतंकवादियों ने की यह तो हत्या के बाद जांच के दौरान आया एक तथ्य हो सकता है. लेकिन हिन्दी भाषा के समाचार पत्रों ने इस तरह से खबरें पेश की जैसे हत्या के तत्काल बाद उन्हें यह जांच रिपोर्ट हासिल हो गई कि यह हत्या आतंकवादियों ने ही की है.

हिन्दी के समाचार पत्रों में यह प्रवृति हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है कि वे किसी घटना की जांच की प्रक्रिया में यकीन नहीं करते हैं और अपनी ओर से किसी घटना के आरोपितों की घोषणा कर देते हैं और फिर उनके खिलाफ सजा के लिए एक भीड़ की राय कायम करने के अभियान में लग जाते हैं. जांच की प्रक्रिया जनतंत्र की व्यवस्था के विश्वसनीय बने रहने के लिए अनिवार्य हैं.

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हिन्दी के समाचार पत्रों में यह प्रवृति पहले से ही मौजूद हैं कि जब कहीं कोई बम विस्फोट की घटना घटती है तो उसे तत्काल आतंकवादी कार्रवाई के रुप में प्रस्तुत कर दिया जाता है और जांच एजेंसियों को यह सुविधा हासिल हो जाती है कि वह अपनी जांच को उसी दिशा में ले जा सकती है. उन घटनाओं का आरोप पुलिस जब लोगों पर लगाती है उन्हें मीडिया में बड़े आराम से आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है. जबकि बम विस्फोट की कई दर्जन घटनाओं में जिन्हें पकड़ा गया वे लोग न्यायालय से चली लंबी सुनवाई और साक्ष्यों की जांच पड़ताल के बाद निर्दोष साबित हुए.

अनगिनत लोगों की जिंदगी और उनके परिवारों को हम झूठे आरोपों के कारण तबाह होते देख चुके हैं. न केवल झूठे आरोपों में सामान्य नागरिकों को जेलों में डाला जाता रहा है बल्कि मुठभेड़ के नाम पर हत्या की घटनाएं भी सामने आती रहती है.

ऐसी घटनाओं की जांच के बाद यह भी तथ्य सामने आया है कि जांच एजेंसियों में जो अलोकतांत्रिक और निरंकुश विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग होते हैं वे अपने पॉवर का दुरुपयोग करते हैं.

दूसरे देशों में घटी कई घटनाओं के बारे में भी हम बहुत सहजता से टिप्पणी कर देते हैं कि उन घटनाओं में किस देश की किस एजेंसी का हाथ हो सकता है. केजीबी और सीआईए के बारे में आमतौर पर राजनीतिक पार्टियों के नेता यह आरोप लगाते रहे हैं कि कैसे ये एजेंसियां घटनाओं में शामिल होती है.

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कश्मीर की स्थितियां जटिल हैं. पुलिस और अर्धसैनिक बल अपने स्तर पर उन परिस्थितियों से जूझ रहे हैं. आतंकवादी संगठन भी अपनी विचारधारा के विस्तार की हर संभव गुंजाइश तलाशते रहते हैं. कश्मीर में जो भी घटनाएं हो रही है उनकी खबरों के लिए हिन्दी के समाचार पत्रों के पास जो स्रोत हैं वे बेहद सीमित हैं. पहली बात तो यह कि कश्मीर घाटी में उनके संवाददाता नहीं हैं. उन्हें न्यूज़ एजेंसियों की ख़बरों पर निर्भर होना होता है या फिर सरकारी सूत्रों के हवाले से खबरें देनी पड़ती है.

लेकिन कश्मीर घाटी के संदर्भ में हिन्दी के समाचार पत्रों के पास खबरों के स्रोतों का अभाव एक बहाना लगता है क्योंकि हिन्दी के कई ऐसे अखबार है जो कि अंग्रेजी घरानों के हिस्से हैं. मसलन द टाइम्स ऑफ इंडिया या द हिन्दुस्तान टाइम्स की खबरों को देखें. यहां हिन्दी में कुछ छपता है तो अंग्रेजी में कुछ छपता है. शुजात बुखारी की हत्या की खबर के साथ भी यही बात जुड़ी हुई है. नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान की कतरनों को देखें. अखबार कश्मीर के लिए जब आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो वह हिन्दी के पाठकों के बीच एक खास साम्प्रदायिक अर्थ के साथ पहुंचता है.

हिन्दी के पाठकों की मानसिकता यह नहीं है कि वे किसी घटना के बारे में तथ्यों से अवगत नहीं होना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि उन्हें घटनाओं की सही सही जानकारी मिलें. लेकिन हिन्दी के पाठकों को जो खबरें दी जाती हैं वह उन्हें घटनाओं के सच से अवगत कराने के लिए नहीं बल्कि उनका एक खास तरह का दिमाग बनाने के इरादे से पेश की जाती हैं.

शुजात बुखारी की हत्या के मामले में अभी तक पुलिस भी यह निश्चित तौर पर नहीं कह पाई है कि हत्या में कौन शामिल है. पुलिस ने चार तस्वीरें जारी की है और उन पर हत्या में शामिल होने का संदेह जाहिर किया है. पुलिस ने अब तक जिन लोगों पर संदेह जाहिर किया है उन्हें आतंकवादी संगठनों का सदस्य बताया गया है लेकिन उन आतंकवादी संगठनों के प्रवक्ताओं ने शुजात बुखारी की हत्या में शामिल होने से इनकार किया है.

कश्मीर की किसी घटना को लेकर हिन्दी के समाचार पत्रों में जिस तरह से खबरें आती है उनसे हिन्दी के पाठकों को तथ्यों से अवगत कराने के बजाय पाठकों की एक खास तरह की मानसिकता बनाने पर जोर ज्यादा होता है. लगता है कि हिन्दी के समाचार पत्र शब्दों के हथियार से कश्मीर में खुद भी युद्ध लड़ रहे हैं. कश्मीर के प्रति एक अलगाववादी नजरिया दूसरे किसी अलगाववादी नजरिये का जवाब नहीं हो सकता है.

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