भाजपाई ठकुरई के ताज में ताज़ा नगीना हैं ठाकुर अमर सिंह

क्या अमर सिंह की समाजवाद से कटी डोर भगवा खेमे में आशियाना तलाश रही है?

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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इसी महीने 24 जुलाई को लखनऊ में इस बात की कानाफूंसी तेज़ थी कि अमर सिंह भाजपाई हो गए. दरअसल उस दिन अमर सिंह की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ एक दबी-छिपी मुलाकात हुई थी. राजनीति के केंद्र से परिधि पर फेंक दिए गए अमर सिंह तब से ही योगी से मुलाकात के फेर में थे जब से उनकी उत्तर प्रदेश में 325 विधायकों वाली भारी-भरकम सरकार बनी थी. खैर समाजवाद की हरियाली से सुर्ख केसरिया कुर्ता पहनने में अमर सिंह को सवा साल से ज्यादा लग गए. तकनीकी रूप से अभी भी अमर सिंह सपा कोटे से राज्यसभा सांसद हैं और भाजपा उन्होंने ज्वाइन नहीं किया है.

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जातियों के खांचे में गहरे तक धंसी उत्तर प्रदेश की राजनीति में फिलहाल ठाकुरों की गोटी बुलंद है. समय-समय पर उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, यादव और दलितों का सिक्का चलता-गिरता रहता है. योगी से अमर सिंह की मुलाकात के बाद केसरिया खेमे से उनके गहराते रिश्तों पर मोहर खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगाई. रविवार को लखनऊ में एक जनसभा में बोलते हुए मोदी ने आरोप लगाया, “पहले कुछ नेता लोग चोरी छिपे उद्योगपतियों से मिलते थे. उनकी तस्वीरें तक नहीं सामने आती थी. यहां अमर सिंह बैठे हुए हैं, उन्हें सब पता है.” इसके साथ ही अमर सिंह का भगवाकरण पूर्ण हो गया.

जाहिर है प्रधानमंत्री ने यूं ही इतनी भारी सभा में अमर सिंह को नहीं चुना था. वे अमर सिंह की मेनस्ट्रीमिंग कर रहे थे जिसकी बुनियाद 24 जुलाई को योगी से मुलाकात में पड़ी थी. मोदी के निशाने पर मुलायम सिंह यादव भी थे जिनकी एक समय अनिल अंबानी, सुब्रत सहारा से लेकर तमाम उद्योगपतियों से नजदीकी थी और अमिर सिंह उनके बीच पुल हुआ करते थे.

ठाकुरवाद उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार की सच्चाई और योगी आदित्यनाथ की मजबूरी है. जानकार जानते हैं कि लखनऊ आने से पहले योगी गोरखपुर में गोरखनाथ मठ के महंत होने के साथ ही अपने इलाके में राजपूत राजनीति के सिरमौर भी थे. उनकी खड़ी की गई हिंदू युवा वाहिनी को पूर्वांचल में ठाकुर युवा वाहिनी भी कहा जाता है. इसकी वजह संगठन में 80 फीसदी पदों पर राजपूतों का वर्चस्व होना है. योगी की यह राजपूत राजनीति गोरखपुर इलाके में ब्राह्मण राजनीति के बरक्श खड़ी हुई थी. लखनऊ आने से पहले योगी आदित्यनाथ ने दो ही काम पूरी शिद्दत से किया है- गोरखनाथ मठ की महंतई और ठाकुरवादी राजनीति.

लेकिन लखनऊ उनके लिए एलिस का चमत्कारलोक साबित हुआ. वहां पहुंचते ही उनकी समस्याएं बढ़ गई. उत्तर प्रदेश जैसे भारी-भरकम सूबे की सियासत पर पकड़ बनाए रखने के कुछ तय फार्मूले हैं जो बीते 20-25 सालों के दौरान वहां राज करने वाली सियासी पार्टियों ने ईजाद किया है. एक, प्रशासन में अपने भरोसेमंद अफसरों की लॉबी होना जरूरी है. इसमें भी अपनी जाति के अफसरों की संख्या ज्यादा होनी चाहिए.

दो, पार्टी में अपने भरोसेमंद मातहत नेताओं और कार्यकर्ताओं का होना अनिवार्य है. और तीन, संगठन के शीर्ष लोगों का वरदहस्त होना चाहिए. बिना इन तीन कारकों के सूबे का संचालन असंभव है.

योगी इन तीनों ही मोर्चों पर कमजोर थे. वे पहली बार लखनऊ पहुंचे थे लिहाजा मुलायम, मायावती, राजनाथ या कल्याण सिंह की तरह प्रशासन में विश्वासपात्र अफसरों की खेप उनके पास नहीं थी.

पार्टी ने उनके चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ा था, ना ही कभी उन्होंने भाजपा संगठन में काम किया है, इसलिए उनके विश्वासपात्र नेताओं और कार्यकर्ताओं की भी बेहद कमी थी. ज्यादातर नेताओं की प्रतिबद्धता दिल्ली से जुड़ी हुई है न कि योगी से.

संगठन से भी उनके रिश्ते खट्टे-मीठे रहे हैं. युवा वाहिनी के दम पर अतीत में योगी समय-समय पर भाजपा के खिलाफ ही उम्मीदवार उतारने और चुनाव लड़ाने के कारण संगठन का भी उन पर पूरी तरह भरोसा नहीं है, या एक हद तक ही है.

इन तमाम कमजोरियों को ढांकने और सत्ता को चलाने के लिए योगी को अपना कोई फार्मूला खोजना ही था. इसका जवाब योगी ने अपनी जाति में खोजा. वही जाति जिसकी काफी हद तक समझ उन्हें गोरखपुर से मिली हुई थी. लखनऊ में पैर जमाने की कोशिश कर रहे नए-नवेले योगी ने कालिदास मार्ग स्थित मुख्यमंत्री आवास की शुद्धिकरण करने के साथ ही उसे निचली जातियों के प्रभाव से मुक्त करने की प्रक्रिया भी शुरू की.

चुन-चुन कर जिला मुख्यालय से लेकर कस्बाई थानों तक ठाकुर अधिकारियों और सिपाहियों को तैनात किया गया. ठेकेदारी में ठाकुरों को वरीयता दी गई. साल भर से जारी सरकारी मुठभेड़ प्रोग्राम में मारे गए कथित अपराधियों की निचली, पिछड़ी और दलित पहचान भी इसका एक सबूत है.

लंबे समय से सपा के करीबी रहे, और सपा की सरकारों में मंत्री रहे रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया ने भी इसी कड़ी में पलटी मारी और राज्यसभा के चुनाव में ठाकुर योगी के पक्ष में जा खड़े हुए. नतीजतन सपा-बसपा का संयुक्त उम्मीदवार चुनाव हार गया.

राजा भैया यूं तो किसी पार्टी से जुड़े नहीं हैं लेकिन उनकी राजनीति का एक सिरा भाजपा से, तो एक सिरा सपा से वाया अमर सिंह जुड़ता रहा है. भाजपा से सिरा जुड़ने का बायस भाजपा के ठाकुर नेता राजनाथ सिंह हुआ करते थे. बाद में जब मायावती ने राजा भैया के ऊपर कड़ाई की तो अमर सिंह उनके पक्ष में उतरे. अमर सिंह उतरे तो पीछे-पीछे सपा की ताकत भी उनके साथ हो ली.

खैर यहां राजा भैया महत्वपूर्ण नहीं है, अहम हैं अमर सिंह, योगी और राजपूत राजनीति. यह राजनीति समय-समय पर पार्टियों की सीमाओं को तोड़कर आपस में गलबहियां करती रही है. एक किस्सा बहुत मौजूं है. 2012 के आस पास तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह की पैदाइश का मामला उलझ गया था. उनके जन्म की दो-दो तारीखों पर सरकार से उनकी ठन गई थी. सेनाध्यक्ष, सिविलियन सरकार को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट तक चले गए थे. वे खुद भी राजपूत थे. तब दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठानों में यह किस्से गॉसिप की शक्ल में उड़ते रहते थे कि वीके सिंह की हिम्मत के पीछे सियासत में मौजूद राजपूत लॉबी का समर्थन है. उन्हें कथित तौर पर कांग्रेसी दिग्विजय सिंह से लेकर, भाजपाई राजनाथ सिंह और सपाई अमर सिंह तक का वरदहस्त था.

अमर सिंह सपा से दो बार बाहर हो चुके हैं. इस बीच किसी तरह 2016 के अंत में उन्होंने एक बार फिर से सपा के सहारे अपनी राज्यसभा की सीट बचा ली है. लेकिन जल्द ही सपा या कहें कि अखिलेश यादव से उनकी खटपट सतह पर आ गई और फिर से उन्हें सपा से रुखसत होना पड़ा. लंबे समय से वे सियासत के बियाबान में हैं. एक मौके की तलाश में ताकि अपनी प्रासंगिकता बनाए रख सकें.

सियासत में अमर सिंह होने के क्या मायने हैं. इसे एक छोटे से किस्से से समझा जा सकता है. 2010 में अमर सिंह ने वरिष्ठ अधिवक्ता शांति भूषण और प्रशांत भूषण से जुड़ा एक ऑडियो सीडी जारी किया था. उस वक्त उन्हें सीडी की दुनिया का बेताज बादशाह माना जाता था. बिपाशा बसु से लेकर कैश फॉर वोट तक उनसे जुड़ी तमाम सीडियां एक दौर में सुर्खियों का हिस्सा थे. इसी सिलसिले में उनका साक्षात्कार कर रहे इस लेख के लेखक के एक सवाल पर अमर सिंह तब इतना क्रुद्ध हुए कि उन्होंने कैमरा बंद करवा दिया, हमें और कैमरामैन को दरवाजे से बाहर निकलवा दिया. जोर-जोर से चिल्लाते हुए कहते रहे, अमर सिंह से ऐसा सवाल करने की हिम्मत कैसे हुई. हालांकि उसी दिन बाद में हमारे बीच शांति स्थापित हो गई.

ये वो दौर था जब यूपीए-2 की सरकार थी. हालांकि उस वक्त तक अमर सिंह की सपा से पहली रुखसती हो चुकी थी लेकिन दिल्ली में उनका सिक्का बुलंद था. कुछ उनके उद्योगपतियों के नेटवर्क के चलते, कुछ मुलायम सिंह के वरदहस्त के चलते.

जाहिर है ईगो और अभिमान को हरवक्त सिर पर लादकर चलने वाले अमर सिंह 2018 में बेहद कमजोर हो चुके हैं. इतना कमजोर कि उसी ठाकुर अमर सिंह को ठाकुरों की बावली में डुबकी लगाने के लिए सारा अभिमान और ईगो डेढ़ साल तक किनारे रखकर इंतजार करना पड़ा.

मोदी और योगी के लिए यह मसला सिर से लेकर पांव तक घी में नहाने जैसा है. 2019 के मुहाने पर खड़े देश में अमर सिंह का पहला इस्तेमाल तो भाजपा उत्तर प्रदेश में सपा को शर्मिंदा करने के लिए ही करेगी. मोदी ने अपनी सभा में जिस तरीके से अमर सिंह का नाम लिया उसमें राजनीतिक पर्यवेक्षक छिपी हुई धमकी भी देख रहे हैं.

एक समय में अमर सिंह सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के सबसे अजीज और करीबी रहे हैं. जाहिर है वे उनके राजदार भी होंगे. राजनीति में जितना दिखाने को होता है उससे ज्यादा चीजें छिपाने के लिए होती है. इसीलिए “विश्वासपात्र” शब्द की सियासत में बहुत मांग रहती है, हालांकि यह दुर्लभ कमोडिटी है. क्या यह शब्द अमर सिंह के लिए कहा जा सकता है. इसका अधिकार सिर्फ मुलायम सिंह यादव को है.

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