हंसल मेहता पार्ट-1: ‘रोहित वेमुला की मौत तिल-तिल कर मर रहे समाज का अक्स है’

फिल्मकार हंसल मेहता के साथ विस्तृत साक्षात्कार का पहला हिस्सा.

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‘शाहिद’ की सफलता और ‘सिमरन’ के विचलन के साथ हंसल मेहता इस दौर के उल्लेखनीय फ़िल्मकार कहे जाएंगे. उनके फिल्मी करियर की शुरुआत ‘जयते’ (1999) से हुई. उसके पहले वे कुछ टीवी शो कर चुके थे. ‘जयते’ के बाद ‘दिल पे मत ले यार’ (2000) से उन्होंने नई दस्तक दी, लेकिन समय से पहले आई यह फिल्म अनेक स्तरों पर नहीं सराही जा सकी. बीच में एक दौर आया कि हंसल की ‘छल’ (2002) और ‘ये क्या हो रहा है’ (2002) जैसी फ़िल्में भी आयीं. फिसलन के इस चरण में हंसल ने कुछ ऐसी फ़िल्में निर्देशित की जिन्हें वे याद भी नहीं करना चाहते. इसके बाद उन्होंने विराम लिया. आत्ममंथन और सोच के बाद उन्होंने ‘शाहिद’ (2013) के जरिए वापसी की और मौजूदगी का एहसास कराया. इस फिल्म के निर्देशन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. पिछले पांच सालों में कभी ठहराव तो कभी चढ़ाव के साथ हंसल एक्टिव हैं. उन्होंने नए और समकालीन निर्देशकों को प्रेरित और प्रभावित किया है. यह लंबी बातचीत मुंबई के अंधेरी स्थित हंसल मेहता के के कार्यालय में हुई.

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‘सिमरन’ के बाद इन दिनों क्या कर रहे हैं?

‘शाहिद’ के साथ मेरी नई पारी शुरू हुई है. मेरी कोशिश है कि हर फिल्म में एक नए किस्म का काम करूं. इन दिनों आत्ममंथन के दौर से गुजर रहा हूं. सोच रहा हूं कि ऐसा कुछ किया जाए, जिसे करने में फिर से मजा आए. ‘सिमरन’ के बाद मैंने महसूस किया कि मुझे वही काम करना चाहिए, जिसमें आनंद हो. वैसे ही काम की खोज कर रहा हूं.

‘सिमरन’ आप की आखिरी फिल्म थी?

मेरी आखिरी फिल्म ‘ओमेर्टा’ थी. वह रिलीज बाद में हुई, लेकिन बन पहले गई थी. हर छोटी फिल्म के साथ रिलीज की समस्याएं रहती हैं. कुछ वैसी ही समस्या ओमेर्टा’ के साथ भी थी. फिल्म के निर्माण में समस्या आ रही थी और रिलीज में भी हुई, लेकिन मैंने सिद्धांत बना रखा है कि कभी किसी निर्माता या कलाकार के बारे में कोई शिकायत नहीं करनी चाहिए. सबकी अपनी मजबूरियां होती हैं. मैं यह मानकर चलता हूं कि गलती मेरी थी कि मैं गलत आदमी से जुड़ा. वह तो भरोसा करके मुझ से जुड़ा था.

पिछले दो सालों में मेरी जिंदगी में ‘शाहिद’ के पहले के दिनों का संघर्ष दोहराया गया. फर्क इतना ही है कि ‘शाहिद’ के पहले मैं हार मान चुका था, इस बार उस संघर्ष को मैंने पहचान लिया है. मैं उससे गुजरा और निकल आया. इस संघर्ष ने मुझे तोड़ा नहीं है. मैं और मजबूत होकर निकला हूं. फिर से एक नई पारी शुरू कर रहा हूं

लेकिन आप लगातार व्यस्त रहे?

मैंने पहले ही कहा इस बार मैं टूटा नहीं था. बीच में मैंने ‘सिमरन’ व ‘ओमेर्टा’ फ़िल्में और बोस वेब सीरीज भी बनाई. मैंने रिस्क लिया और चैलेंज का सामना किया. कई बार यह रिस्क काम करता है और कई बार हम असफल हो जाते हैं.

आप का एक छोटा काम भी सामने आया. आपने रोहित वेमुला की आखिरी चिट्ठी को छोटी सी फिल्म के रूप में पेश किया?

वह जीशान की फिल्म है. एक्टर अच्छा हो तो आपका काम आसान हो जाता है. अगर ‘अलीगढ़’ में मनोज बाजपेयी नहीं होते तो सिरस आपके दिल में नहीं बसता. उसी तरह से उसमें जीशान अयूब था. वह मेरा एक विचार था. रोहित की मौत से मैं बहुत परेशान था. मेरे लिए वह एक युवक की सामान्य मौत नहीं थी. एक परेशान युवा की मौत थी.

आप देखें कि ऐसी मौतों का सिलसिला खत्म ही नहीं हो रहा है. अनेक युवक अपनी समस्याओं के साथ जूझ रहे हैं. मेरे मन में सवाल आता है कि क्यों, आखिर क्यों? उनका इतना जूझना क्यों जरूरी है? और फिर यह मौत को गले लगाने का फैसला? मैं सोचता हूं कि निराश तो मैं भी होता हूं. तनाव में रहता हूं. मुझे कैसे कोई रोशनी दिख जाती है. मैं कैसे आगे बढ़ जाता हूं. उन्हें क्यों सिर्फ अंधेरा दिखता है? वे क्यों मौत को गले लगा लेते हैं?

रोहित वेमुला का जो आखिरी वक्त था और उसने जैसी मार्मिक चिट्ठी लिखी थी. मैं चाहता था कि उस चिट्ठी को जी लूं. उसके भाव को लोगों तक पहुंचाऊं. वह इंडिया टुडे का एक असाइनमेंट था. मैंने उन्हें इसका प्रस्ताव दिया था. उनका धन्यवाद कि मेरा प्रस्ताव उन्हें पसंद आया. शॉर्ट फिल्मों के बारे में धारणा बन गई है कि उनमें कोई कहानी जरूर होनी चाहिए. फीचर फिल्मों के असर से ऐसा हुआ है. मेरे लिए रोहित वेमुला की चिट्ठी भावना और प्रभाव के हिसाब से किसी भी कहानी से अधिक बड़ी थी.

इंडिया टुडे ने एक कॉन्क्लेव में उसे दिखाया था. मुझे ख्याल आया कि क्यों ना रोहित के दर्द को सबके सामने रखा जाए. रोहित की चिट्ठी अंग्रेजी में थी. मैंने उसे हिंदी में पेश किया कि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक उसकी बात पहुंचे. सुनहरी जिंदगी की संभावना से लैस एक नवयुवक का ऐसे जाना सिर्फ उसके माता-पिता का नुकसान नहीं था. इंसानियत का नुकसान हुआ है. हम सभी का नुकसान है.

मैं चाहता था कि उस चिट्ठी को लोग महसूस करें. उस चिट्ठी का अनुवाद स्वानंद किरकिरे ने किया था. आपको यकीन ना हो इस काम के लिए मैं स्वानंद से मिला भी नहीं. मैंने सिर्फ मेल भेजा और अनुवाद का आग्रह किया. मुझे लगता है कि अनुवाद करने में स्वानंद ने उस चिट्ठी को जीने की कोशिश की. चिट्ठी पढ़ते हुए जीशान समाधिस्थ हो गया है. उसने पूरी चिट्ठी याद कर ली थी. उसके अपलक पाठ ने दर्शकों को झकझोर दिया. जीशान खुद राजनीतिक रूप से एक्टिव है. समझदार है. हमारी राजनीतिक समझदारी काफी मिलती है.

उस चिट्ठी में ऐसी क्या बात थी?

उस चिट्ठी ने ने मुझे इमोशनल तौर पर झकझोर दिया था. रोहित मेरे बेटे की उम्र का होगा. उसकी चिट्ठी में कई प्रकार के दबाव सुनाई पड़ते हैं. वह सिर्फ एक दलित और निराश युवक की चिट्ठी नहीं है. कहीं ना कहीं हमारा सिस्टम जिस तरह से तोड़ता है, उसका दर्द भी उस चिट्ठी में बयान हुआ है.

अपने समाज में हर कदम, हर मोड़, हर जगह हम डरे हुए हैं. रोहित की चिट्ठी में वह डर चीख रहा है. कई बार लगता है कि सब कुछ छोड़ कर कहीं भाग जाऊं. कभी भाग कर बाहर जाता हूं. अमेरिका जाता हूं तो पाता हूं कि वहां तो और भी बुरी हालत है. आप कहीं बैठे हुए हैं और कोई अनजान आप को गोली मार कर चला जाएगा.

अभी ढाका में शाहीदुल को गिरफ्तार किया गया. अपने देश में जहां-तहां से ऐसी खबरें आती रहती हैं….

मैं अपना अनुभव बताता हूं. ‘शाहिद’ के पहले कुछ दिनों के लिए मैं गांव में चला गया था. मैंने सोचा था कि वहां के युवकों के साथ मिलकर कुछ काम करूंगा. उन्हें तकनीकी जानकारी दूंगा और उन्हें फिल्म बनाने के लिए प्रेरित करूंगा. मैंने एक छोटी सी जगह पुणे के पास किराए पर ले ली थी. वहां लोग आग लगाने आ गए. उनका कहना था कि मेरा माली और रसोईया उनके गांव का नहीं है. जब मैंने कहा कि वे इसी गांव के हैं तो उनका तर्क था कि नहीं वह नदी के उस पार के गांव का है.

मतलब ‘सौदागर’ की कहानी चल रही थी कि नदी के उस पार दूसरा गांव है. हम समाज में इतना बंट गए हैं. मुझे तो एहसास भी नहीं था कि नदी के आर-पार दो गांव हैं. वे लोग मेरा ठिकाना जलाने आ गए थे. मेरे ऊपर मुंबई तक से दबाव डाला गया. मेरे माली के साथ तो और भी समस्या थी, क्योंकि वह उत्तर प्रदेश का था. उन्हें इस पर भी दिक्कत थी. नतीजा यह हुआ कि मुझे वह जगह खाली करनी पड़ी. वहां से आने के बाद मुंबई में जिस बिल्डिंग में मैंने रहने की जगह ली. वहां भी अलग तरह की समस्याएं आती रहीं. कहने का मतलब कि यह समाज आपको अपने ढंग से नहीं जीने देता.

ऐसा लगता है कि आपके व्यक्तित्व में ही कुछ खुरदुरापन और नुकीलापन है. आप लोगों को रफ लगते हैं. आप दुनिया को चुभते हैं…

कोशिश यह रहती है कि मैं लोगों को नहीं चुभूं. अगर कहीं कुछ गलत हो रहा है तो मुझे गुस्सा आता है. मुझे ऐतराज होता है. मैं खुद को रोक नहीं पाता. मुझे तो अपने फैमिली डॉक्टर के पास भी जाने में इस बात से दिक्कत होती है कि वह दूसरों से पहले मुझे बुला लेता है. मुझे लगता है कि वहां कतार में लगे सभी व्यक्ति बीमार हैं तो फिर मुझे उसने पहले क्यों बुलाया? यही मेरा मिजाज है. क्या कर सकता हूं? मैं इसी शहर में पैदा हुआ, लेकिन अब मुझे लगता है कि यह शहर बदल गया है.

मैं जैसा हूं, वैसा यह शहर हुआ करता था. अब तो यह शहर सौदा करता है. हम यहां किसी न किसी सौदे की वजह से मिलते हैं. हमारी भाषा में सौदेबाजी आ गई है. जैसे दिल्ली की भाषा में राजनीति रहती है. मुंबई में हर कोई लाभ और हानि की बातें करता है. किसको दिया, किससे लिया, क्या लेना है, क्या देना है?

फिल्म इंडस्ट्री में फिल्मों की कमाई की ही बातें की जाती हैं. कोई यह नहीं देखता है कि फिल्म कितनी अच्छी बनी? कैसे बनी? मुंबई में हम हिंदी ही बोलते हैं लेकिन ना तो उसमें कोई मिठास है और न कोई मुहावरा है. हिंदी प्रदेशों से कोई नया कलाकार या लेखक आता है तो उससे बातें करने का मन करता है लेकिन कुछ सालों में उसकी भाषा बदल जाती है. वह सौदेबाजी पर उतर आता है. उसकी भाषा में हिंदीपन नहीं रह जाता.

एक फिल्म की भाषा पर मैं काम कर रहा था. उसके संवाद लिखते समय मैंने इस बात को शिद्दत से महसूस किया. कहा जाता है कि आज आम जुबान और बातचीत की भाषा होनी चाहिए, लेकिन उसकी वजह से भाषा का संस्कार और उसका सौंदर्य खिड़की से बाहर फेंक दिया गया है. मैं डायलॉगबाजी की बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन सुनते समय भाव और अर्थ तो मिले. कुछ लोगों की फिल्मों में ही भाषा की ताजगी मिलती है. इस लिहाज से मुझे अनुराग कश्यप आज भी श्रेष्ठ लगता है. इस शहर में रहते-रहते मेरी भाषा बिगड़ गई है. मैं अब नहीं लिख पाता. सब यही कहते है कि शहर बहुत कुछ देता है, लेकिन मुझे तो लगता है कि यह शहर सिर्फ लेता है.

आप फिल्म निर्माण के जिस हिस्से से जुड़े हैं उसका आधार और स्वभाव ही सौदा है. यह बिजनेस है और इसे कामयाबी से मतलब है. इस माहौल में हंसल मेहता खुद को कैसे बचाए और बनाए हुए हैं?

मुझे जितने मौके मिले हैं या जैसे मौके मिलते हैं उसमें कहीं ना कहीं लोगों और दर्शकों को कुछ मिला होगा, तभी वे मुझ में भरोसा करते हैं और मैं उनके भरोसे पर खरा उतरने की कोशिश करता हूं. लाभ और दूसरों की अपेक्षाओं के अनुसार काम करो तो पता नहीं कैसा काम हो. ‘सिमरन’ में मुझे मेरे अंदर बेईमानी आती हुई दिखी. मेरी अच्छी और प्योर फिल्म थोड़ी खराब हो गई. अगर वह मेरी तरह की फिल्म होती तो एक ईमानदार फिल्म सामने आती. उस फिल्म में मैं दर्शकों को खुश करने में असफल रहा.

आप की सभी फिल्मों का नायक समाज का वंचित या हाशिए पर पड़ा व्यक्ति होता. वह समाज का प्रतिनिधि चरित्र नहीं होता है. ऐसा नहीं लगता कि उसके जैसे बहुत सारे लोग होंगे. ‘जयते’ से लेकर ‘सिमरन’ तक में यह बात देखी जा सकती है.

आपने सही बात पकड़ी. मुझे खुद भी ऐसा लगता है कि मैं हाशिए पर हूं और मुझे नजरअंदाज किया जा रहा है. मैं आम नहीं हूं. मैं अलग हूं. मैंने देखा कि मेरा अलग होना लोगों की समझ में नहीं आ रहा है. मेरी उम्र के बच्चे जब खेलते थे तो मैं पढ़ता था. मैं अपनी उम्र से बड़ी किताबें पढ़ता था. हमेशा से थोड़ा अलग रहा हूं.

अभी सारे लोग काम से छूटते ही जिम की ओर भागते हैं और मैं किचन में जाकर खाना बनाता हूं. मुझे लगता है कि मुझ जैसे लोगों की समाज पहचान करना नहीं चाहता, इसलिए मेरी कोशिश रहती है अपने जैसे अलग किस्म के लोगों को पर्दे पर ले आऊं. उनसे दर्शकों को मिलवा दूं. उन सभी में मुझे अपनी कहानी नजर आती है. ‘शाहिद’ का न्यायबोध, तमाम दिक्कतों के बावजूद शाहिद ने इतना कुछ किया, लेकिन कौन जानता था? वह अख़बार की ख़बर मात्र बनकर रह गया था.

फिल्म बनने की वजह से आज लोग शाहिद आज़मी को जानते हैं. माइग्रेंट की कहानी मुझे पहले से अच्छी लगती रही है. ‘सिटीलाइट्स’ के पहले ‘दिल पर मत ले यार’ में भी मैंने ऐसे किरदारों को चुना था. अभी ‘स्वागत है’ पर काम कर रहा हूं. उसमें भी यही है. मुझे बार-बार माइग्रेंट की कहानी खींचती है. हम इस शहर के मालिक कब से बन गए? यह देश पहले से बंटा हुआ है और अब हम बस्ती और शहरों को भी बांट रहे हैं. सभी को एक पहचान देकर उसे अलग कर देते हैं. इन छोटे-छोटे बंटवारों में हमने इंसान को खो दिया है. मानवता खो दी है.

माइग्रेंट और माइग्रेशन तो हिंदी फिल्मों का प्रिय विषय रहा है. आज़ादी के बाद की फिल्मों से लेकर अभी तक… आपके दौर के माइग्रेंट हीरो टाइप नहीं हैं, क्यों?

मैं माइग्रेशन को दूसरे तरीके से देखता हूं. मैं इस शहर का बाशिंदा हूं, लेकिन दूसरे शहरों में माइग्रेंट रहा हूं. मैंने यह दिखाने की कोशिश की थी कि कैसे यह शहर बाहर से आए व्यक्ति को निगल जाता है? सिरस भी माइग्रेंट है. मैं उन चरित्रों से, उनकी कहानियों से प्रभावित होता हूं. अभी के दौर मे ऐसे हाशिए के किरदार फिल्मों में ज्यादा आ रहे हैं. अब मैं अपनी तरह की फिल्मों से थोड़ा अलग होना चाहता हूं. मैं ह्यूमर और कॉमेडी में कुछ करना चाहता हूं.

पिछले छह महीनों में ऐसा लगा कि मैं डिप्रेशन से गुजर रहा हूं. उससे निकलने के लिए कुछ अलग सा करना चाहता हूं. मेरा नायक हंसता-खेलता दिखे. जिसे देख कर दर्शक भी हंसें. ‘सिमरन’ में मैंने यही कोशिश की थी लेकिन वह किरदार अधिक जटिल हो गया. उसमें हंसी ला पाना मेरे लिए चुनौती बन गई थी और मैं असफल रहा.

ऐसा तो नहीं कि इस सफलता के साथ असुरक्षा और असुरक्षा के साथ आए समझौते की वजह से आप प्रभावित हुए या भटके? उस प्रभाव में फिल्म को सुरक्षित करने की कोशिश में ज्यादा गलतियां होती जाती हैं.

‘सिमरन’ में ऐसा हो गया था. मुझ से गलतियां हुई और मैं गिर गया. मैंने एक चांस लिया था. उसमें कंगना की भी सहमति थी. निस्संदेह थोड़ा करप्ट भी हुआ था. मैंने मूल कहानी को बदल दिया, जिसकी वजह से उसका दर्शकों से कनेक्ट टूट गया. फिल्म का बजट ज्यादा था, उसे जस्टिफाई करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ा. उन गलतियों से मैंने सीखा और कुछ बातें समझ में आईं.

इस बीच आपको राजकुमार राव जैसा उम्दा कलाकार मिल गया. उनके साथ आपकी जोड़ी ने कुछ बेहतरीन फिल्में दीं. उनके बारे में क्या कहेंगे? क्या खासियत है उनकी?

राजकुमार बहुत बेहतरीन कलाकार है. किसी भी निर्देशक को राजकुमार जैसा कलाकार मिल जाए तो वह एक उपहार है. अच्छा एक्टर होने के साथ वह सेट पर आपका हिस्सा बन जाता है. वह राजकुमार नहीं रह जाता है. उसे इस बात की कतई चिंता नहीं रहती कि वह कैसा दिख रहा है? कैमरा कहां लगा हुआ है? वह समर्पण की भावना से काम करता है. मैंने जिन लोगों के साथ काम किया है, उनमें ऐसा ही समर्पण मनोज में देखा है. कुछ कलाकारों का समर्पण निजी स्तर पर होता है. वे खुद का ख्याल रखते हैं. राजकुमार और मनोज फिल्म के लिए समर्पित होते हैं. किसी सीन में वह ना भी हो तो उसे दुख नहीं होता है. कोई असुरक्षा नहीं होती. वह नेक और सरल इंसान है. यह सरलता उसके काम में दिखती है.

राज की वजह से किसी निर्देशक को फिल्म बनाने में तकलीफ नहीं हो सकती. मेरे साथ उसका एक रिश्ता बन गया है. मेरे पास कोई भी स्क्रिप्ट आती है तो सबसे पहले मैं उसमें राज को देखता हूं. अभी एक स्क्रिप्ट आई थी, जिसमें सोलह साल का प्रमुख किरदार था. मैंने राज से पूछा कि सोलह साल का रोल? राज परेशान हो गया और उसने हंसते हुए कहा, ‘सर थोड़ा ज्यादा हो जाएगा’.

(क्रमश: हंसल मेहता से अजय ब्रह्मात्मज की बातचीत का दूसरा र आकिरी हिस्सा अगले हफ्ते.)

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