पुण्य का प्रताप

पुण्य प्रसून वाजपेयी को लगता है कि पत्रकारिता में सर्विलांस और सेंसरशिप मिथ्या है.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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डिजिटल मीडिया की क्रांति में खबरों की उम्र कम हो गई है. स्मार्टफोन धारकों के लिए सुबह का अख़बार 70-80 प्रतिशत बासी हो चुका होता है. लिहाजा आज से 50 दिन पहले घटी कोई घटना तो लगभग इतिहास का ही हिस्सा हो जाती है. लेकिन सौभाग्य या दुर्भाग्य से यह पोस्ट ट्रुथ युग भी है. इसी डिजिटल तकनीक ने वह हथियार भी मुहैया करवाया है जिसके सहारे आपका अतीत बारंबार आपके सामने मुंह बा कर खड़ा हो जाता है.

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करीब 50 दिन पहले वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी की एबीपी न्यूज़ से अप्रिय स्थितियों में विदाई हुई थी. 6 अगस्त को उन्होंने अपनी विदाई की स्थितियों पर रोशनी डालते हुए करीब 3000 शब्दों का एक लेख लिखा था, जो कि न्यूज़लॉन्ड्री पर भी छपा था. 50 दिन बाद पुण्य प्रसून ने कमेटी अगेन्स्ट असॉल्ट ऑन जर्नलिस्ट के एक कार्यक्रम में भाषण दिया. प्रसून के उस लेख और 23 सितंबर के भाषण में जो बातें कही गई वो दो विपरीत ध्रुवों की बातें हैं. यहां हम उन दोनों स्थितियों की संक्षेप में तुलना करेंगे, ताकि आगे की बात कहने में आसानी हो.

पुण्य ने अपने संबोधन की शुरुआत इस तरह से की- “ऐसी स्थिति बिल्कुल नहीं है कि किसी को काम करने से रोका जा रहा है. हमें तो नहीं रोका गया. राडिया टेप के समय मनमोहन सिंह ने रोका था पर हमने दिखाया.”

प्रसून इसके अगले ही वाक्य में खुद को बुरी तरह से काटते हैं और एक ऐसा विरोधाभास रचते हैं जो बताता है कि उनके दिमाग में कई तरह के आलोड़न एक साथ चल रहे हैं.

उन्होंने कहा, “सहारा पेपर मेरे और पत्रकार जोज़ी जोसेफ के पास एक साथ आए. हमने स्टिंग ऑपरेशन किया. उसमें लेफ्ट का आदमी भी पैसा ले रहा था. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी पैसा ले रही थीं और भाजपा के लोग भी पैसा ले रहे थे. पर वह स्टिंग नहीं चला.”

(पुण्य प्रसून का संबोधन 1 घंटे 31 मिनट के बाद सुना जा सकता है.)

इस बात को लॉजिकली पूरा करने की बजाय वो इसे असंबद्ध छोड़ एक नई बात पर कूद गए. जाहिर है इससे कुछ सवाल तो खड़े हुए ही. आखिर वो स्टिंग, जिसे करने का वो दावा कर रहे थे, उनके चैनल ने क्यों नहीं चलाया? क्या इसके पीछे किसी तरह का राजनीतिक दबाव या लेन देन काम कर रहा था? जाहिर है इन सवालों के जवाब अप्रिय स्थित पैदा कर सकते हैं. लेकिन अगर कोई स्टिंग ऑपरेशन नहीं चला तो यह सेंसरशिप का ही एक रूप है. प्रसून की सेंसरशिप की परिभाषा क्या है ये वही जानें.

इसके थोड़ी ही देर बाद उन्होंने इससे भी ज्यादा बड़ी विरोधाभासी बात कही जो कि उनके अपने ही कहे-लिखे के बिल्कुल विपरीत है.

उन्होंने कहा- “कोई भ्रम न पालिए. हमारे ऊपर न ज़ी न्यूज़ में प्रेशर था, न आजतक में कोई प्रेशर था, न एबीपी न्यूज़ में, न सहारा में न ही एनडीटीवी में.”

इस पर एक सीधा सा सवाल है, तो आखिर उन्हें चैनल दर चैनल भटकना क्यों पड़ रहा है? यहां प्रसून के उस लेख के एक हिस्से का जिक्र वाजिब होगा जिसे उन्होंने एबीपी से विदाई के बाद लिखा थाः

“…चैनल के बदलते स्वरूप या खबरों को परोसने के अंदाज़ ने प्रोपराइटर व एडिटर-इन-चीफ को उत्साहित तो किया पर बता भी रहे थे कि क्या सब कुछ चलता रहे और प्रधानमंत्री मोदी का नाम ना हो? …एक लंबी चर्चा के बाद सामने निर्देश यही आया कि प्रधानमंत्री मोदी का नाम अब चैनल की स्क्रीन पर लेना ही नहीं है… तो ‘मास्टरस्ट्रोक’ में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर भी नहीं जानी चाहिए उसका फ़रमान भी 100 घंटे बीतने से पहले आ जाएगा ये सोचा तो नहीं गया पर सामने आ ही गया.”

कोट-अनकोट में कही गई बातें पुण्य प्रसून वाजपेयी के लेख से ही संक्षेप में ली गई हैं. लेकिन अब उनका कहना है कि उनके ऊपर कोई प्रेशर नहीं था? यह हम अपने पाठकों पर छोड़ देते हैं कि प्रसून के किस बयान पर भरोसा करना चाहते हैं और किसे खारिज.

भयंकर मानसिक आलोड़न

जिस सत्र में प्रसून अपनी बात रख रहे थे उसका विषय था “सेंसरशिप और सर्विलांस”. जाहिर है ज्यादातर वक्ताओं ने अपनी बात उसी दायरे में कही. प्रसून से भी यही अपेक्षा थी. उन्होंने अपने बात की शुरुआत भी इसी विषय से की लेकिन बीच में वे पूरी तरह से ऑफ-ट्रैक हो गए और फिर उन्होंने एक विषय से दूसरे विषय पर जो कूदफांद की उसकी एक झलक ये रही-

“आप कहते हैं कंस्टीट्यूशन है, मैं कहता हूं नहीं है. आप कहते हैं लोकतंत्र है. मैं कहता हूं नहीं है. इमरजेंसी का जिक्र आता है तो किस तरह से जेपी ने युवाओं को जेल भरने का आह्वान किया. मोरारजी के दौर में भी तो नोटबंदी हुई थी. तब भी बहुत सारी बातें कही गई थी. आज भी वही हो रहा है. दुनिया की सबसे बड़ी ऑडिट कंपनी है जो भारत सरकार का भी ऑडिट करती है और सत्ताधारी पार्टी का भी. हाल ही में उससे कहा गया कि 350 करोड़ रुपए की एंट्री दिखानी है. खनन माफिया का जिक्र आया. सोनभद्र से लेकर राजस्थान तक पूरे देश को एक बिजनेस मॉडल में बदल दिया गया है. कांग्रेस ने मैनिफेस्टो कमेटी बनाई है. जिसमें कमलापति त्रिपाठी के पड़पोते भी शामिल है…”

एक सुर में इतने सारे विषयों को लपेटते हुए पुण्य फिर से सर्विलांस और सेंसरशिप पर आते हैं. वो कहते हैं, “ये सर्विलांस और सेंसरशिप महत्वहीन है. ये तो इंदिरा के दौर में भी होता था. एबीपी न्यूज़ के दरवाजे पर बहुत से नेताओं की तस्वीर लगी है. उसमें सत्ताधारी नेता की भी तस्वीर है. तो उसकी तस्वीर अच्छी दिखनी चाहिए इसके लिए भी फोन करते हैं वे.”

यह वाक्य पूरा होते-होते उन्होंने खुद को रोक लिया. उन्हें शायद अहसास हो गया कि उनका अंतिम वाक्य उनके पहले वाक्य के विपरीत जा रहा है. ऐसा व्यक्ति जो अपनी अच्छी तस्वीर के लिए फोन कर सकता है वह अपने खिलाफ होने वाली खराब ख़बर के लिए क्या कर सकता है? खुद प्रसून ने अपने पुराने लेख में सर्विलांस पर क्या लिखा है ज़रा उसे भी देखें-

“…ये नशा न उतरे इसके लिए बाकायदा मोदी सरकार के सूचना मंत्रालय ने 200 लोगों की एक मॉनिटरिंग टीम को लगा दिया गया. बाकायदा पूरा काम सूचना मंत्रालय के एडिशनल डायरेक्टर जनरल के मातहत होने लगा. जो सीधी रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री को देते. और जो 200 लोग देश के तमाम राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की मॉनिटरिंग करते हैं वह तीन स्तर पर होता. 150 लोगों की टीम सिर्फ़ मॉनिटरिंग करती है, 25 मॉनिटरिंग की गई रिपोर्ट को सरकार के अनुकूल एक शक्ल देती है और बाकि 25 फाइनल मॉनिटरिंग के कंटेंट की समीक्षा करते हैं. उनकी इस रिपोर्ट पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तीन डिप्टी सचिव स्तर के अधिकारी रिपोर्ट तैयार करते और फाइनल रिपोर्ट सूचना एवं प्रसारण मंत्री के पास भेजी जाती. जिनके ज़रिये पीएमओ यानी प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारी सक्रिय होते और न्यूज़ चैनलो के संपादकों को दिशा निर्देश देते रहते कि क्या करना है, कैसे करना है.”

इतने स्पष्ट शब्दों में प्रसून ने माना था कि सरकार इस मॉनिटरिंग के बाद चैनलों के संपादकों को दिशा-निर्देश देती है. प्रसून के विरोधाभासों का पुलिंदा इतना बड़ा था कि उससे इस लेख का भार बहुत बढ़ जाएगा. वेब मीडिया पर लोगों का अटेंशन स्पैम इतना कम है कि उतना बड़ा बोझ पाठकों पर डालना उचित नहीं. एक जगह वे कहते हैं, “पत्रकार बार-बार सवाल उठाते हैं कि इस सरकार से सवाल नहीं पूछ सकते. मैं कहता हूं कि हमें सरकार से सवाल क्यों पूछना. हमारा काम है जनता के बीच स्थिति को रख देना. हम सरकार से क्यों पूछे. हम नेता हैं क्या?”

यानी पत्रकार को सरकार से सवाल नहीं करना चाहिए. अब इसके बरक्श 50 दिन पहले प्रसून ने अपने विदाई लेख में क्या लिखा था वह भी देखिए-

“न्यूज़ चैनल पर होने वाली राजनीतिक चर्चाओं में बीजेपी के प्रवक्ता नहीं आते हैं. एबीपी पर ये शुरुआत जून के आख़री हफ्ते से ही शुरू हो गई. यानी बीजेपी प्रवक्ताओं ने चर्चा में आना बंद कर दिया. दो दिन बाद से बीजेपी नेताओं ने चैनल को बाईट देना बंद कर दिया और जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी के मन का बात का सच मास्टरस्ट्रोक में दिखाया गया उसके बाद से बीजेपी के साथ-साथ आरएसएस से जुड़े उनके विचारकों को भी एबीपी न्यूज़ चैनल पर आने से रोक दिया गया.”

यदि पत्रकारों को सरकार से सवाल नहीं पूछना चाहिए तो फिर उस सरकार के नुमाइंदे आपके कार्यक्रम में आएं न आएं, इसका दुखड़ा प्रसून क्यों रो रहे थे?

यह ऐसा दौर है जिसमें पत्रकारों की विश्वसनीयता अपने निम्नतम धरातल को छू रही है. टाइम्स नाउ, रिपब्लिक टीवी, ज़ी न्यूज़ जैसे चैनलों ने सरकार के भोंपू के रूप में अपनी भूमिका तय कर ली है. हम ऐसे असाधारण समय से गुजर रहे हैं जहां पत्रकारिता ने अपनी भूमिका सरकार की बजाय विपक्ष से सवाल करने की, विपक्ष को कटघरे में खड़ा करने की तय कर रखी है. दलाल, प्रेस्टीट्यूट, न्यूज़ ट्रेडर आदि मीडिया के नए नाम हैं. प्रसून की इस उलटबांसी से उन ताकतों को पर्याप्त बल मिला होगा.

अहमन्यता अक्सर बेहद सधे-सुलझे लोगों को भी बेपटरी कर देती है. खुद को ऊंची पायदान पर रखकर देखने की प्रवृत्ति और दूसरों को कमतर समझने की प्रवृत्ति भी दो अवसरों पर प्रसून के व्यवहार में दिखी. प्रसून के साथ मंच साझा कर रहे एक अन्य पत्रकार ने उनसे पूछा कि आपके हाथ में चोट कैसे लगी है? इस पर वो विपरीत दिशा में, बिना जवाब दिए शून्य में निहारते रहे.

सभी वक्ताओं के लिए 10 मिनट का समय मुकर्रर था. प्रसून 20 मिनट तक बोल चुके थे. कार्यक्रम के संचालक ने उन्हें अपनी बात संक्षेप में निपटाने की पर्ची पकड़ाई. पर्ची देखते ही उन्होंने अपनी बात बीच में ये कहकर खत्म कर दी कि- “मुझसे संक्षेप में बोलने के लिए कहा जा रहा है. मैं अपनी बात समाप्त कर रहा हूं.” यह फिर से बताता है कि प्रसून के दिमाग में एक साथ कई चीजों का आलोड़न चल रहा है.

इस आलोड़न के सवाल पर सभा में मौजूद एक दर्शक ने हल्की-फुल्की टिप्पणी की. यहां उस टिप्पणी को इस डिस्क्लेसर के साथ दिया जा रहा है कि हमारा मकसद न तो पितृसत्ता का समर्थन करना है न ही स्त्री को कमतर समझना है. दर्शक ने कहा, “प्रसूता स्त्री प्रसव के दौरान जब अथाह पीड़ा से गुजरती है तो वह हमेशा यही सोचती और कहती है कि एक बार किसी तरह इस पीड़ा से मुक्त हो जाय, आगे से फिर इस राह पर नहीं जाएगी. क्योंकि वह दर्द असहनीय होता है. लेकिन प्रसव की प्रक्रिया पूरी हो जाने के पश्चात वह फिर से उसी मार्ग पर अग्रसर होती है. यह प्रकृति है, इसका लक्ष्य ही सृजन है. पुण्य प्रसून भी अब अपनी प्रसव पीड़ा से मुक्त हो चुके हैं. अब वो फिर से सृजन की राह पर हैं. यही प्रकृति का नियम है.”

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