सत्ता की फिक्र में सारे काम ताक पर 

दिल्ली की सांस फूल रही है और दिल्ली की सत्ता मूर्तियों में अपने नवजीवन का ऑक्सिजन ढूंढ़ रही है.

Article image
  • Share this article on whatsapp

सत्ता होगी तो ही काम करेंगे. सत्ता जा रही होगी तो फिर सत्ता बचाने के लिये काम करेंगे. और सत्ता जब नहीं होगी तो जो सत्ता में है वह समझे यानी जिम्मेदारी ले. मानिये या ना मानिये देश कुछ इसी मिजाज से चलता है. और इसका ताजा उदाहरण है पर्यावरण या कहे प्रदूषण को लेकर मोदी सरकार की समझ. संयोग ऐसा हुआ कि जिस दिन गुजरात में सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा का अनावरण प्रधनमंत्री को “स्टेच्यू आफ यूनिटी” के नाम से करना था, उसी दिन जेनेवा में ग्लोबल एयर पल्यूशन बैठक थी. और अगला संयोग यह था कि इसी दौर में दिल्ली गैस चैंबर में बदल रही थी, और अभी भी है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

उससे भी बड़ा संयोग ये था कि मोदी सरकार और सत्ताधारी बीजेपी ने देश भर में इसी दिन “यूनिटी रन” रखा यानी एकता दौड़. तो हुआ क्या? एक तरफ जब पूरी दुनिया हवा में बढ़ते प्रदूषण से परेशान है तो दुनिया के कमोबेश हर देश के प्रतिनिधि जेनेवा पहुंचे. वहां विश्व स्वास्थ्य संगठन के हेडक्वार्टर में बैठक में शिरकत की. अपनी अपने विचार रखे. दूसरी तरफ भारत का कोई भी प्रतिनिधि इस सम्मेलन में शामिल होने जेनेवा में डब्ल्युएचओ के हेडक्वार्टर पहुंच नहीं पाया. क्योंकि सभी अपने देश में ‘यूनिटी रन’ को सफल बनाने में लगे थे. चूकि डब्ल्यूएचओ पहली बार वायु प्रदूषण को लेकर इस तरह का सम्मेलन कर रहा था. और दुनिया भर की रिपोर्ट में जब ये आया कि दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरो में से 14 शहर भारत के हैं, तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तीन केंद्रीय मंत्री, पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन, स्वास्थय मंत्री जेपी नड्डा और पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान को निमंत्रण भेजा.

खासकर भारत की मुश्किलों को लेकर भारत के प्रतिनिधि क्या कहते हैं इस पर डब्ल्यूएचओ ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम देशों की नजर थी. क्योंकि विकासशील देश भारत बिजनेस के लिये एक बाजार के तौर पर उभर रहा है और आईएमएफ तथा विश्व बैंक भी चाहते हैं कि भारत पर्यावरण को लेकर संयुक्त राष्ट्र और पेरिस समझतौते में जो चिंता जता रहा है वह पहली बार वायु प्रदूषण को लेकर होने वाले सम्मेलन में भी उभरे.

लेकिन सरदार के लिये सत्ता की एकता दौड़ यानी ‘यूनिटी रन’ ही इतनी महत्वपूर्ण हो गई कि कोई भी सम्मेलन में शामिल होने गया ही नहीं. यानी भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिये ग्लोबल एयर पल्युशन के सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने कोई नहीं पहुंचा. देश के पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन दिल्ली में “रन फार यूनिटी” में व्यस्त हो गये. तो स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा गुवाहाटी में यूनिटी रन कराने लगे. पेट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान भुवनेश्वर में यूनिटी रन को झंडा दिखाने पहुंचे. प्रदूषण को लेकर भारत का हाल कितना बुरा है ये इससे भी समझा जा सकता है कि 2016 में पांच बरस से कम के एक लाख बच्चों की मौत प्रदूषण की वजह से हो गई. और आंकड़े बताते हैं कि हर मिनट 5 लोगों की मौत देश में सिर्फ प्रदूषण से हो जाती है. यानी साल भर में 25 लाख से ज्यादा लोग देश में प्रदूषण से मर जाते हैं.

इससे निजात कैसे मिले इस पर जब दुनियाभर के विशेषज्ञ और स्कॉलर वायु प्रदूषण पर चर्चा कर रहे थे. खास कर पहली बार वायु प्रदूषण के मद्देनज़र प्रकृति के मल्टी-डायमेंशनल दोहन की वजह से होने वाले प्रदूषण पर चर्चा हो रही थी. उसके बाद दुनिया भर के देशों के प्रतिनिधि इसलिये जुटे की जो भी रिजल्ट निकले उसमें वह अपने अपने देश लौटने के बाद उन कदमों को उठाएं जिसे जेनेवा में पास किया गया.

पर भारत की तरफ से आखिरी दिन दो नौकरशाहों की मौजूदगी रही जो कहते क्या या सुनते क्या ये भी हर कोई जानता है. क्योंकि देश तो चुनावी मोड में चला गया है तो सत्ता को फिक्र सत्ता बरकरार रखने की ज्यादा है. तो सारे काम चुनावी जीत के मद्देनदर ही हो रहे है. और सच भी यही है कि पीएमओ से लेकर नीति आयोग तक में बैठे नौकरशाह सिर्फ रुटीन कार्य कर रहे हैं. कई मंत्रालयों में तो सारे काम ठप पड़ गए हैं. या कहें कि सारे सत्ता की चुनावी जीत बरकरार रखने में सिमट चुके है. खास बात तो ये भी है कि पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं बल्कि वायु प्रदूषण से निपटने के लिये भी भारत ने जितने कार्यक्रम बनाए हैं और दुनिया के तमाम देशों को जो सुझाव अपने प्रोग्राम के नाम के जरिए भारत देता है वह शानदार है. लेकिन भारत में ही कोई प्रोग्राम पूरा नहीं होता.

मसलन, देश के सौ शहरों के लिये नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम को निर्धारित वक्त में पूरा करना था. लेकिन ये पूरा तो दूर कई शहरों में शुरू ही नहीं हो पाया. यानी जैसे सत्ता को लगता है वह अनंतकाल तक रहे. वैसे ही हर पालिसी भी अनंतकाल तक चलती रहे, सोच यही है. और असर इसी का है कि प्रदूषण के बोल बड़े बड़े है लेकिन उस लागू कोई करता नहीं. हालात ये भी है कि देश में प्रर्यावरण मंत्रालय का कुल बजट ही 2,675 करोड़ 42 लाख रुपए है. यानी जिस देश में प्रदूषण की वजह से हर मिनट 5 यानी हर बरस 25 लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं उस देश में पर्यावरण को ठीक रखने के लिये बजट सिर्फ 2,675.42 हजार करोड़ है.

यानी 2014 के लोकसभा चुनाव में खर्च हो गये 3,870 करोड़. औसतन हर बरस बैंक से उधारी लेकर ना चुकाने वाले रईस 10 लाख करोड़ डकार रहे है. राजस्थान-मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ के चुनाव प्रचार में ही तीन लाख करोड़ से ज्यादा प्रचार प्रसार में फूंकने की तैयारी हो चुकी है. लेकिन देश के पर्यावरण के लिये सरकार का बजट है 2,675.42 करोड़. और उस पर भी मुश्किल ये है कि पर्यावरण मंत्रालय का बजट सिर्फ पर्यावरण संभालने भर के लिए नहीं है, बल्कि दफ्तरों को संभालने में 439.56 करोड़ खर्च होते हैं. राज्यों को देने में 962.01 करोड़ खर्च होते हैं. तमाम प्रोजेक्ट के लिये 915.21 करोड़ का बजट है. नियामक संस्थाओं के लिये 358.64 करोड का बजट है.

इस पूरे बजट में से अगर सिर्फ पर्यावरण संभालने के बजट पर आप गौर करेंगे तो जानकार हैरत होगी कि सिर्फ 489.53 करोड़ ही सीधे प्रदूषण मुक्ति से जुड़ा है. जिससे दिल्ली समेत समूचा उत्तर भारत हर बरस परेशान हो जाता है. प्रदूषण को लेकर जब कोई सेन्ट्रल पल्यूशन कन्ट्रोल बोर्ड से सवाल करता है तो सीपीसी का कुल बजट ही 74 करोड़ 30 लाख का है. तो पर्यावरण को लेकर जब देश के पर्यावरण मंत्रालय के कुल बजट का हाल ये है कि देश में प्रति व्यक्ति 21 रुपये सरकार खर्च करती है. और इसके बाद इस सच को समझिए कि एक तरफ देश में पर्यावरण मंत्रालय का बजट 2,675.42 करोड है. दूसरी तरफ पर्यावरण से बचने का उपाय करने वाली इंडस्ट्री का मुनाफा 3,000 करोड़ से ज्यादा का है. तो पर्यावरण को लेकर इन हालातों के बीच ये सवाल कितना मायने रखता है कि देश के पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन पिछले बरस जब दिल्ली गैस चैंबर बनी तब जर्मनी में थे और इस बार जब गैस चैबर से मुक्ति के उपाय के लिये विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जेनेवा आने को कहा तो इंडिगा गेट पर “रन फार यूनिटी” के लिये झंडा दिखाकर दौड़ रहे थे.

ऐसे में आखरी सवाल जीने के अधिकार का है, क्योकि संविधान की धारा 21 में साफ साफ लिखा है जीने का अधिकार. और संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वस्थ वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को पहली बार उस समय मान्यता दी गई थी, जब रूरल लिटिगेशन एंड एंटाइटलमेंट केंद्र बनाम राज्य, एआईआर 1988, एससी 2187 (देहरादून खदान केस के रूप में प्रसिद्ध) केस सामने आया था. यह भारत में अपनी तरह का पहला मामला था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत पर्यावरण व पर्यावरण संतुलन संबंधी मुद्दों को ध्यान में रखते हुए इस मामले में गैरकानूनी खनन रोकने के निर्देश दिए थे.

इसी तरह एमसी मेहता बनाम भारतीय संघ, एआईआर 1987 एससी 1086 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन जीने के अधिकार को भारतीय संविधान के अनु्छेद 21 के अंतर्गत जीवन जीने के मौलिक अधिकार के अंग के रूप में माना था. तो फिर दिल्ली के वातावरण में जब जहर धुल रहा है. देश में हर मिनट 5 लोगो की मौत प्रदूषण से हो रही है. तो क्या सत्ता सरकार इस चिंता से वाकई दूर है. या फिर सत्ता गंवाने की चिंता ने कहीं ज्यादा जहर फैला दिया है.

(पुण्य प्रसून वाजपेयी की फेसबुक वॉल से साभार)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like