जब अदालतें भरोसा खोने लगें तो लोकतंत्र को कोई और विकल्प ढूंढ़ लेना चाहिए.
मैं इन दिनों खुद ही तय नहीं कर पा रहा हूं कि मेरी कलम स्याही से चलती है या आंसुओं से? कभी फैज साहब ने खून में अंगुलियां डुबो कर लिखने की बात लिखी थी लेकिन हम कहां फैज हैं! मुझे तो शक यह भी होता है कि हमारी कलम में स्याही भी भरी है कि नहीं? अगर स्याही होती तो कभी तो दिखता कि दिल या दिमाग पर कोई दाग छूटा है? नहीं, मैं लोगों की बात नहीं कर रहा हूं. उनका दिल-दिमाग तो साबूत है. पांच राज्यों में हुए चुनावों के परिणामों से इतना तो पता चलता ही है. मैं तो अपने आंसुओं की बात कर रहा हूं और अदालत की बात कर रहा हूं.
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Contributeअदालत क्या कर रही है और क्या कह रही है, यह समझना मेरे लिए बहुत मुश्किल होता जा रहा है. क्या अदालत यह समझ पा रही है कि हमारे लड़खड़ाते लोकतंत्र में वह आखिरी खंभा है जहां हमारी नजर ही नहीं, हमारी आस्था भी टिकी है? उसकी एक चूक, उसकी एक भूल, उसकी एक कमजोरी और उसका एक सतही रवैया हमारे लड़खड़ाते विश्वास को वैसी गहरी चोट दे जाता है जैसी चोट राफेल के मामले में लगी है.
सवाल किसी को अपराधी या किसी को निरपराधी करार देने का नहीं है. वह तो आपका अधिकार क्षेत्र है ही, सवाल है आपके रवैये का; सवाल है कि आप जो कर व कह रहे हैं क्या उससे न्यायालय की सदाशयता में, उसकी विश्वसनीयता में इजाफा होता है?
सवाल है कि राफेल के और ऐसे ही कई मामलों में अदालत ने जो निर्णय सुनाया और जिस भाषा में, जिन तर्कों के साथ सुनाया उससे ऐसा क्यों लगा कि हम देश की सबसे बड़ी अदालत का फैसला नहीं, सरकार का कोई हैंडआउट पढ़ रहे हैं? ऐसा नहीं है कि मेरे जैसे अनगिनत लोग अदालत से अपनी पसंद का फैसला सुनना चाहते हैं. नहीं, हम सुनना चाहते हैं सिर्फ वह जो तर्कसंगत, विधानसम्मत और सच व न्याय की अंतिम हद तक शोध के बाद कहा जा रहा है.
अदालत बंद लिफाफे में रख कर दिया किसी का सच सच में सच मान लेती है जबकि सच यह है कि लिफाफे में क्या लिखा है, यह उनमें से किसी को मालूम नहीं है जो प्रतिवादी बन कर अदालत में पहुंचे हैं? क्या अदालत और वादी के बीच प्रेमपत्रों के लेनदेन से न्याय तय किया जाएगा? जिसने लिखा उसे मालूम था कि वह झूठ लिख रहा है; जिसने पढ़ा वह कहता है कि वह उसे समझ नहीं पाया, तो बीच में मारा कौन गया? सच और न्याय ही न! हमें इससे आपत्ति है. हमें इस चलताऊ मानसिकता से आपत्ति है.
सोहराबुद्दीन के मामले में सारे आरोपियों को रिहा करते हुए अदालत ने कहा कि वह बेबस है, क्योंकि उसके सामने वैसे साक्ष्य लाए ही नहीं गये जो उसे मामले की तह तक पहुंचाते, और इसलिए अपराधियों को सजा देना संभव नहीं हुआ. इसके दो मतलब हुए. एक यह कि अदालत ने जो फैसला सुनाया वह अदालत की समझ से ही न्यायसम्मत नहीं है. तो ऐसा फैसला आपने सुनाया ही क्यों?
दूसरा यह कि न्यायपालिका यदि न्याय तक नहीं पहुंच पाती है तो वह अपने उस कर्तव्य से च्युत होती है जो संविधान ने उसे सौंपा है और जिसके लिए समाज उसका बोझा ढोता है. इन दोनों को समझने के बाद तो यही पूछना शेष रह जाता है कि मी लार्ड, फिर आप अपनी दुकान बढ़ाते क्यों नहीं? हमने न्याय-व्यवस्था बनाई ही इसलिए और उसका कमरतोड़ बोझ उठाए हम फिर रहे हैं तो इसलिए कि हमें एक ऐसे संस्थान की जरूरत लगती है जो सच तक पहुंचने में कुछ भी उठा नहीं रखता हो. यहां तो आप अपने कमरे से बाहर बिखरे सच को देखने-समझने, उस तक चलने और उसे उलटने-पलटने तक को तैयार नहीं होते हैं. आप तो चाहते हैं कि सच खुद चल कर आप तक आए, आपको झकझोर कर जगाए और कहे कि देखो, जागो मैं यहां सामने बैठा हूं!
अगर ऐसा ही होना है तो फिर हमें आप जैसा सफेद हाथी पालना ही क्यों चाहिए? जज लोया का मामला जिस तरह निबटाया गया, क्या उससे न्याय तक पहुंचने का संतोष अदालत को मिला? समाज को मिला? राफेल के मामले में जिस तरह प्रतिवादी पक्ष के किसी तर्क को फैसले में शामिल ही नहीं किया गया, उससे देश को उसकी सारी शंकाओं का जवाब मिल गया? सोहराबुद्दीन कत्ल के सारे आरोपियों को जिस बेबसी से रिहा कर दिया गया, 210 गवाहों में से 92 गवाहों के मुकर जाने का अदालत ने कोई संज्ञान ही नहीं लिया, क्या उससे लगता है कि अदालत ने सच तक पहुंचने की कोशिश की?
सच तक पहुंचना अदालत का धर्म है. इस या उस किसी भी कारण से यदि वह सच तक नहीं पहुंच पाती है तो वह धर्मच्युत होती है. फिर उसके किसी भी फैसले का मतलब क्या रह जाता है? क्या इससे कहीं बेहतर स्थिति यह नहीं होती कि जिन मामलों में वह सत्य तक नहीं पहुंच पा रही हो, उनका फैसला स्थगित कर दे और नये रास्तों से सत्य तक पहुंचने की कोशिश करे? गवाहों के मुकरने के पीछे कौन है, इसका पता ही लगाया जाना चाहिए बल्कि गवाही का पेशा करने वालों को कड़ी सजा भी देनी चाहिए.
राफेल के मामले में अदालत ने फौज के अधिकारियों को पूछताछ के लिए बुलाने की सावधानी बरती तो बंद लिफाफे में जिन एजेंसियों के नाम के आधार पर सौदे को पाक-साफ बताने की बात कही गई थी, उन्हें भी बुला कर क्यों नहीं पूछ लिया? पूछ लिया होता तो बंद लिफाफा खुल जाता और फैसला करने में अदालत को एक नया आधार मिल जाता. तो क्या अदालत चूक गई? नहीं, यह चूक नहीं है, अपने दायित्व के प्रति उदासीनता का प्रमाण है.
भारतीय संविधान और भारतीय समाज दोनों अपनी व्यवस्थाओं को संपूर्णता में देखते हैं. दोनों मानते हैं कि संसद को कानून बनाने में संपूर्णता बरतनी चाहिए मतलब आप किसी भी कानूनी प्रावधान का सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक पहलू देखे बिना राजनीतिक लाभ-हानि के आधार पर फैसला नहीं ले सकते. वह कार्यपालिका को भी ऐसी परिपूर्ण भूमिका में देखना चाहती है. न्यायपालिका को भी वह इससे कम में स्वीकार करने को तैयार नहीं है. अदालत यह जितनी जल्दी समझ ले उतना ही उसका भी भला है और देश का भी.
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)
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