#2019: ममता बनर्जी का मंच और टैंक पर सवार प्रधानसेवक

टैंक पर बैठ कर लोकतंत्र की कमान संभालने का स्वांग कौन करता है?

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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राहुल गांधी की ममता दी ने विपक्षी दलों के 22 नेताओं को एक मंच पर जुटा लिया और समवेत सुर में एक ही मंत्र जपने को मजबूर कर दिया. लेकिन यह मजबूर विपक्ष देश को मजबूर नहीं कर सकता है कि उस पर विश्वास किया जाए. इस मजबूर विपक्ष को सही मानी में मजबूत विपक्ष बनना पड़ेगा. इस आयोजन के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टैंक पर सवार होकर अपना फोटो जारी करने के साथ-साथ इसका माखौल उड़ाते हुए जो कुछ कहा उसका अर्थ भले कुछ भी न निकलता हो, लेकिन वह सत्तापक्ष की घबराहट की चुगली तो करता ही है.

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टैंक पर बैठ कर लोकतंत्र की कमान संभालने का स्वांग कौन करता है, इसे जानने के लिए इतिहास में ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है. प्रधानमंत्री इस बात को समझें या न समझें, हमें जरूर समझना चाहिए कि कुछ प्रतीक ऐसे होते हैं जो कुछ बातों से कभी, कहीं मेल नहीं खाते हैं. टैंक से लोकतंत्र के मेल का प्रतीक ऐसा ही है.

टैंक बहुत हुआ तो लोकतंत्र के कुचले जाने का  प्रतीक हो सकता है. यह कुछ ऐसा ही है जैसे सेंसेक्स के बढ़ते आंकड़े अर्थतंत्र के स्वास्थ्य के प्रतीक नहीं होते, किसी नये हर्षद मेहता की कारगुजारी की आशंका को मजबूत करते हैं. हमारे देश के संदर्भ में साफ छवि वाला प्रधानमंत्री कभी भी भ्रष्टाचारमुक्त सरकार का प्रतीक नहीं बनता है. अनुशासन की लंबी-लंबी हांकने वाला, किसी अनुशासित समाज की नहीं, हमें अपने आपातकाल की याद दिलाता है. तब लोकतंत्र की हत्या को यह कह कर जायज ठहराया जा रहा था कि देखिए, ट्रेनें समय पर चलने लगीं हैं और बाबू लोग दफ्तरों में समय से आने लगे हैं.

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जब फौज की अंधाधुंध वाहवाही की जा रही हो, धर्म-संस्कृति का नाम अधार्मिक तत्व जोर-जोर से ले रहे हों, जब थोथी जुबान को ठोस काम की शक्ल दी जा रही हो, जब सत्तापक्ष विपक्ष को देशद्रोही और भ्रष्ट घोषित कर रहा हो, जब सारी अच्छी उपाधियां खुद ही, खुद को दी जा रही हों, जब खुद को रात-दिन एक कर काम करने वाला और बाकी सबको कामचोर बताया जा रहा हो और सार्वजनिक मंच से पूछा जा रहा हो कि आपको कैसा सेवक चाहिए, तथा जब यह कहा जा रहा हो कि दूसरे सब सत्तालोलुप हैं जब कि मैं एक झोला उठा कर कभी भी चल देनेवाला निस्पृह आदमी हूं तब हमें सावधान हो जाना चाहिए कि दाल में कहीं कुछ गहरा काला है, और कुछ है जिस पर पर्दा डाला जा रहा है.

हमारे सामने अभी जो चल रहा है वह सत्ता का खुला खेल फर्रुखाबादी है. मतलब यह कि यह खेल बिना किसी कायदे-कानून, मान-मर्यादा और इतिहास-भूगोल के खेला जाता है. जो किया-कराया, कहा-बताया, सुना-सुनाया, गाया-बजाया सबकी सार्थकता की कसौटी एक ही है कि इससे सत्ता मिली क्या? वह मिली तो सब माफ, सब राम के नाम! इसलिए प्रधानमंत्री का यह रोना रोना कि ये सभी एक मुझ बेचारे को सत्ता से हटाने के लिए साथ आ रहे हैं, बहुत लुंजपुंज नजर आता है.

क्या लोकतंत्र में विपक्ष का काम यह नहीं है कि वह सत्तापक्ष को कुर्सी से हटाये? अगर ऐसा नहीं है तो वह विपक्ष है ही क्यों? 2014 के चुनाव में आज का विपक्ष सत्ता में था और आज के सत्ताधारी विपक्ष में. तब भारतीय जनता पार्टी के भीतर की सत्ता और देश की सत्ता हथियाने की कुचाल में नरेंद्र मोदी ने कौन-सा दांव नहीं चला था? उन्होंने भी उन सारे राजनीतिक दलों और शोहदों को गोलबंद किया था जो किसी भी कारण कांग्रेस से नाखुश थे. उतना बड़ा गठबंधन पहले कब बना था, याद करें हम! तब वह सब लोकतांत्रिक था तो आज अलोकतांत्रिक या अनैतिक कैसे हो सकता है? नरेंद्र मोदी अवसरवादी हों तो वह भारतीय संस्कृति है, राहुल या ममता या मायावती अवसर का फायदा उठाएं तो यह बेशर्म अवसरवादिता कही जाए, तो बात बहुत बेढब हो जाती है.

एक के सामने सब का तर्क भी बहुत बोदा है. कहा है किसी ने कि अधर्म का प्रतीक कितना बलवान है और उससे अपशकुन कितना आसन्न है, इससे प्रतिकार की ताकत का आकार और उसकी आक्रामकता तै होती है. अपनी परंपरा में देखें तो कंस के लिए कृष्ण को, रावण के लिए राम को आना पड़ता है न! अभी के इतिहास के पन्ने पलटें तो पाएंगे कि श्रीमती इंदिरा गांधी की सत्तालोलुपता को पीछे करने के लिए जयप्रकाश नारायण को सामने आना पड़ा था और तब कहीं जा कर हम लोकतंत्र को पटरी पर ला सके थे. इतिहास यह भी बताता है कि हिटलर के लिए दुनिया भर की मित्र-ताकतों को एकजुट होना पड़ा था. इसलिए प्रधानमंत्री का यह रोना अर्थहीन हो जाता कि ये सभी मेरा मुकाबला करने के लिए एकजुट हो रहे हैं.

प्रधानमंत्री का यह कहना भी बहुत बुरा संदेश देता है कि मेरा विरोध भारत का विरोध है यानि यह कि विपक्ष मुझसे नहीं, जनता से लड़ना चाहता है. प्रधानमंत्री को याद न हो शायद क्योंकि तब नरेंद्र मोदी का राजनीतिक शैशवकाल था. 1974 में एक नारा कांग्रेस के देवकांत बरुआ ने उठाया था कि इंदिरा भारत हैं, भारत इंदिरा है! यह चाटुकारिता का चरम था! तब उसी भारत ने इस नारे सहित इंदिरा और देवकांत बरुआ को इतिहास के उस कूड़ाघर में उठा फेंका था जहां से आज तक उनकी सहज वापसी नहीं हो सकी है. लेकिन यहां सवाल आत्मचाटुकारिता है. प्रधानमंत्री समेत सारे राजनीतिज्ञ यह न भूलें कि अहमन्यता आत्मचाटुकारिता ही होती है. यह देश स्वंयभू है, अमर है, कोई व्यक्ति नहीं! खुद को देश का पर्याय बताना कमजोर और दिशाहीन राजनीति का प्रमाण है.

देश के संदर्भ में देखें तो 2019 की त्रासदी यह है कि इसके पास व्यक्तियों का विकल्प तो है, नीतियों का नहीं है. विपक्ष के संदर्भ में देखें तो उसके लिए सहूलियत यह है कि पिछले पांच सालों में ‘थोथा चना बाजे घना’ इतना और इस तरह हुआ है कि सबको दिखाई देने लगा है.  बस, उसे शब्द और संगठन देने की जरूरत है जो कत्तई आसान नहीं है लेकिन असंभव भी नहीं है.

सत्तापक्ष के संदर्भ में देखें तो उसकी स्थिरता और उसकी एकता देश को रास आ रही है. यह सत्ता के कारण है कि राजनीतिक संस्कृति के कारण इसकी कसौटी भी अभी ही होनी है. इसलिए ममता दी के मंच से जो हुआ है उसकी गूंज देशव्यापी हो सकती है. प्रधानमंत्री कितनी प्रौढ़ता से और भारतीय जनता पार्टी कितने अनुशासन से 2019 का पाला छूते हैं, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है.

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