न्यूनतम आय गारंटी योजना: जुमला या हक़ीक़त

न्यूनतम आय गारंटी योजना को पूंजीवादी और वामपंथी, दोनों ही धाराओं के अर्थशास्त्री एक अच्छी योजना मानते हैं.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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दिल्ली के शेख सराय इलाके में कपड़े इस्तरी कर गुजारा करने वाले रूकम पाल तीन साल से वृद्धावस्था पेंशन के लिये धक्के खा रहे हैं लेकिन उन्हें सामाजिक सुरक्षा के नाम पर घोषित सरकारी पेंशन योजना का फायदा नहीं मिल रहा. 63 साल के इस बुज़ुर्ग को दमे की तकलीफ है और उनके बच्चे उन्हें अपने साथ नहीं रखते. वह अपनी पत्नी के साथ डेढ़ से दो हज़ार रुपये की मासिक आमदनी पर गुजारा करते हैं.

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वैसे रुकम पाल जैसे लोगों के लिये 200 रुपये की पेंशन योजना से भी कितना फ़र्क पड़ता? लेकिन जब हमने उन्हें बताया कि अगर सरकार न्यूनतम आय गारंटी योजना का लाभ दे तो कैसा हो, यह सुनकर उन्हें लगा कि इससे उनका फायदा हो सकता है.

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(फोटो: इंद्राणी तालुकदार)

सोमवार को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वह न्यूनतम आय गारंटी योजना को लागू करेगी. असल में इस योजना का ज़िक्र 2016-17 के आर्थिक सर्वे में है और प्रधानमंत्री के तत्कालीन आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यन ने इसे एक “आकर्षक” स्कीम बताया था और भविष्यवाणी की थी कि यह योजना चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा बनेगी. तो क्या कांग्रेस ने बीजेपी के ऐलान से पहले इस योजना को हथिया लिया है और क्या यह योजना किसान कर्ज़माफी और बेहतर न्यूनतम समर्थन मूल्य के बाद वोटरों को लुभाने का हथियार बनेगी?

दक्षिण दिल्ली में ही रहने वाले 42 साल के शमशेर पिछले एक साल से बेरोज़गार हैं. वह नोएडा की एक कंपनी में काम करते थे जो बन्द हो गई है. फिलहाल वह अपने रिश्तेदारों की मदद पर ज़िन्दा हैं. उन्हें भी लगता है कि न्यूनतम आय गारंटी जैसी योजना एक सेफ्टी वॉल्व की तरह काम करेगी. रूकम और शमशेर जैसे लोगों की पीड़ा ही है जिसकी वजह से चुनाव से पहले कांग्रेस पार्टी और उसके समर्थक राहुल गांधी की घोषणा को ‘फस्ट मूवर एडवांटेज’ कह कर प्रचारित कर रहे हैं. हालांकि अभी राहुल गांधी ने सिर्फ गरीबों के लिये यह गारंटी देने की बात की है. यह पता नहीं है कि वह ग्रामीण जनता की बात कर रहे हैं या शहरी ग़रीबों की.

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योजना की व्यावहारिकता

इसके साथ और भी कई सवाल जुड़े हुए हैं मसलन गरीबों की संख्या तय करने का आधार क्या होगा क्योंकि ग़रीबी रेखा के कई पैमाने तय किये गये हैं. इसके अलावा यह भी कि न्यूनतम आय कितनी तय की जायेगी. जब तक संख्या और आय के बारे में जानकारी नहीं होगी यह पता लगाना संभव नहीं है कि इस योजना का आर्थिक बोझ कितना होगा.

यह सच है कि न्यूनतम आय गारंटी योजना को पूंजीवादी सोच रखने वाले या वामपंथी विचारों वाले दोनों ही धाराओं के अर्थशास्त्री एक अच्छी योजना मानते हैं. जहां पूंजीवाद की वकालत करने वालों को लगता है कि इससे “फिजूल” की सब्सिडी कम होंगी वहीं वामपंथी अर्थशास्त्री कहते हैं कि एक न्यूनतम आमदनी सुरक्षित होने से सामाजिक सुरक्षा की भावना बढ़ेगी और गरीबों के पास विकल्प खुले रहेंगे कि वह और क्या काम करें.

2016-17 के आर्थिक सर्वे में इस योजना का विचार आने के बाद से यह भी बताया जा रहा है कि कैसे दुनिया के कई देश इस प्रयोग को अपना रहे हैं. मिसाल के तौर पर फिनलैंड को “न्यूनतम आय गारंटी लागू करने वाला पहला देश” बताया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि फिनलैंड भारत के मुकाबले एक बहुत ही छोटा देश है. जहां भारत की आबादी 130 करोड़ है वहीं फिनलैंड की आबादी 60 लाख से भी कम है. भारत में प्रति व्यक्ति आय 1.25 लाख से कम है वहीं फिनलैंड में प्रति व्यक्ति आय 32 लाख रुपये से अधिक है. इसके बावजूद इस देश का “कामयाब न्यूनतम आय गारंटी प्रोजेक्ट” मात्र 2000 लोगों तक सीमित रहा है जिसकी तुलना भारत जैसे विशाल देश से करना बेमानी होगा.

असल चुनौती है कि इतनी बड़ी योजना के लिये पैसा कैसे इकट्ठा होगा. अंदाज़ा है कि अगर न्यूनतम आय गारंटी के लिये जीडीपी का 3.5 प्रतिशत भी खर्च किया जाय तो यह भारत के स्वास्थ्य बजट का तीन गुना और ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के 10 गुना खर्च के बराबर होगा.

दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी (एनआईपीएफपी) ने कुछ साल पहले ज़रूरी और गैर ज़रूरी सब्सिडी के आंकड़ों का अध्ययन किया और एक रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट को बनाने वाले अर्थशास्त्रियों सुदीप्तो मंडल और एस सिकदर ने सस्ते अनाज़ (पीडीएस), शिक्षा और पानी जैसी सुविधाओं की सब्सिडी को ज़रूरी (मेरिट सब्सिडी) और फर्टिलाइज़र, पेट्रोलियम पदार्थों और एलपीजी में छूट को गैर ज़रूरी सब्सिडी (नॉन मेरिट सब्सिडी) माना. 1987-88 से लेकर 2011-12 तक के आंकड़ों का अध्ययन बताता है कि ज़रूरी सब्सिडी में खर्च बढ़ा है और गैर ज़रूरी सब्सिडी में कटौती की गई है.

अर्थशास्त्री प्रणब बर्धन ने इन आंकड़ों के आधार पर गणना करके बताया है कि गैर ज़रूरी सब्सिडी में कटौती कर जीडीपी का 10 प्रतिशत तक न्यूनतम आय योजना पर खर्च किया जा सकता है. बर्धन इसके लिये सालाना 10 हज़ार रूपये प्रति व्यक्ति न्यूनतम आमदनी देनी की सिफारिश करते हैं. यह रकम 1000 रुपये महीने से भी कम है लेकिन दिल्ली की झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले गरीबों के बीच सामाजिक सुरक्षा के लिये काम कर रहे अशोक कुमार कहते हैं कि बेरोज़गारी और हताशा का आलम यह है कि अगर इतना पैसा भी मिल जाये तो कई लोगों के लिये यह उम्मीद की किरण होगी.

“भागते भूत का लंगोट भी बहुत है. अगर बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की चुनावी खींचतान में गरीबों को कुछ राहत मिलती है तो इससे क्या नुकसान है,” अशोक कहते हैं.

अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ ने राहुल गांधी के बयान के संदर्भ में बात करने से इनकार कर दिया लेकिन यह कहा कि न्यूनतम आय गारंटी जैसी योजनाओं का वक्त भारत जैसे देश में अभी नहीं आया है. अपने एक लेख में द्रेज़ इस योजना की वकालत को “प्रीम्योच्योर आर्टिकुलेशन” कहते हैं. इसके लिये वह सरकार के आर्थिक सर्वे को ही उद्धृत करते हैं, जिसमें लिखा है- “अगर लागू करने के लिये नहीं तो (न्यूनतम आय योजना पर) विचार करने का वक्त आ गया है.” ज्यां इस मामले में सावधानी बरतने की सलाह देते हुये सवाल उठाते हैं कि न्यूनतम आय गारंटी लागू करते समय सरकार किन योजनाओं में और कितनी कटौती करेगी.

एनआईपीएफपी के आर्थिक जानकार सुयश राय कहते हैं कि गैर ज़रूरी सब्सिडी में कटौती करने के अलावा कुछ ऐसी सब्सिडी भी बन्द करनी होंगी जो कि गरीबों को नहीं बल्कि समृद्ध लोगों को दी जाती हैं. राय इसके लिये एलपीजी के तहत मिलने वाली छूट की मिसाल देते हैं. यहां यह सवाल उठता है कि क्या गरीबों को खुश करने के लिये सरकार मध्यवर्ग की नाराज़गी मोल लेगी? सुयश राय व्यवहारिक रूप से 1000 से 1500 रुपये प्रति माह की न्यूनतम आय को सही मानते हैं. उनका अंदाज़ा है कि सरकार को करीब 10 करोड़ वयस्कों को यह फायदा देना पड़ेगा.

इस हिसाब से सरकार को इसके लिये हर साल 1.2 लाख करोड़ से 1.8 करोड़ न्यूनतम रकम चाहिये. एक और चुनौती केंद्र सरकार और राज्यों के साथ खर्च के तालमेल को लेकर हो सकती है. अगर यह तालमेल बैठे और मौजूदा ज़रूरी सब्सिडी और सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के साथ सरकारें यह खर्च उठा सकें तो यह ऐलान व्यवहारिक है वरना इसे भी चुनावी जुमला ही कहा जायेगा.

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