हे ईश्वर, इन्हें माफ करना !

गांधी की बारंबार हत्या करने वालों का प्रतिकार समाज को करना होगा. यह प्रतिकार मनसा-वाचा-कर्मणा करना होगा.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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मुझे यह जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है कि अलीगढ़ में अखिल भारत हिंदू महासभा के जिन लोगों ने 30 जनवरी, 2019 को महात्मा गांधी को सामने खड़ा कर, फिर से गोली मारने का कुत्सित खेल खेला, वे कौन थे; उनकी गिरफ्तारी हुई या नहीं, और नहीं हुई तो क्यों नहीं हुई. कोई मुझसे पूछे तो मैं बार-बार यह कहने को तैयार हूं कि न तो उनकी गिरफ्तारी होनी चाहिए और न उनके पीछे पुलिस छोड़ी जानी चाहिए.

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उन्होंने जो किया उसके पीछे की उनकी वैचारिक दृढ़ता और अपने किए के परिणाम के सामने खड़े रहने का उनका साहस तो हमें पता ही है कि ऐसा करने के बाद वे सब भाग खड़े हुए और उनके खिलौना बंदूकबाज पदाधिकारी अब तक छिपे-भागे फिर रहे हैं.

ये सब उसी परंपरा के ‘वीर हिंदू’ हैं जिस परंपरा के वे लोग थे जो 30 जनवरी, 1948 को बिरला भवन में असली नाथूराम गोडसे के साथ मौजूद थे. सभी बला के कायर थे. उनकी योजना 80 साल के बूढ़े, निहत्थे आदमी की हत्या कर, वहां से निकल भागने की थी. वे भगत सिंह नहीं थे कि जिन्होंने बम फेंकने के बाद वहां से भाग निकलने की चंद्रशेखर आजाद की योजना मानने से ही इंकार नहीं कर दिया था बल्कि बम फेंकने के बाद भाग निकलने के पूरे अवसर होने पर भी न भागे और न छिपे.

वे वहीं खड़े रहे, नारे लगाते रहे और फिर डर से बिलबिलाते सुरक्षाकर्मियों को बताते रहे कि हमारे पास दूसरा कोई हथियार नहीं है कि जिसका तुम्हें खतरा हो, आओ और हमें गिरफ्तार कर लो! ऐसे ही नरपुवंगों के लिए अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने साहस की परिभाषा गढ़ी थी: घोर विपदा के समय भी व्यक्तित्व का सहज सौंदर्य अक्षुण्ण रहे, यही साहस है! और गांधी इसलिए इन बहादुरों के समक्ष नतमस्तक हुए थे और कहा था कि इन नौजवानों ने मृत्युभय को जीत लिया है जिसकी साधना मैं भी ताउम्र करता आ रहा हूं.

इसलिए मैं नहीं जानना चाहता हूं कि वे कौन लोग थे! कायरों की अलग-अलग पहचान नहीं होती है, कायरों की जाति होती है. लेकिन मैं जानना चाहता हूं कि महात्मा गांधी कि हत्या करने वाले 1948 के उन कायरों और 2019 के इन कायरों के नामलेवा आज कहां छिपे बैठे हैं? वे आगे आ कर इनका पीठ क्यों नहीं ठोंकते कि इन्होंने वह किया है जो आप भी करना चाहते तो थे, और करना चाहते तो हैं लेकिन हिम्मत नहीं होती?

1947 से लेकर 2014 से पहले तक जो लोग दिल्ली और राज्यों की कुर्सियों पर बैठे थे उनमें से कोई भी ‘गांधी का आदमी’ नहीं था. जवाहरलाल नेहरू पर तो यह इल्जाम है कि आजाद भारत को गांधी की तरफ पीठ करने का रास्ता उन्होंने ही बताया और तब देश की तथाकथित बौद्धिक बिरादरी में गांधी के विचारों के प्रति उपहास का भाव पैदा किया. लेकिन उनमें इतना साहस था कि गांधी के रहते हुए भी और उनकी अनुपस्थिति में भी उन्होंने कहा कि वे गांधी-विचार में विश्वास नहीं रखते हैं और देश के विकास का उनका अपना नक्शा है.

लेकिन ऐसा कहने वाले वे अकेले नहीं थे. क्या सरदार पटेल, क्या राजेंद्र प्रसाद और क्या मौलाना आजाद और क्या दूसरे कई, सबको गांधी का बोझ भारी लगता था और सबने उनसे मुक्ति पा कर राहत ही पाई थी. लेकिन एक फर्क था- बहुत बड़ा फर्क! वे सब कबूल करते थे कि गांधी का रास्ता इतना कठिन है कि हम उसके सही-गलत का विश्लेषण करने में वक्त लगाने की न तैयारी रखते हैं, न योग्यता.

लेकिन वे सभी गांधी नामक इंसान का गहरा सम्मान करते थे- पूजा का भाव रखते थे. हालांकि गांधी की नजर से देखें तो ऐसे सम्मान का कोई मतलब नहीं होता है. लेकिन गांधी की नजर यदि उनके पास होती तो यह खाई पैदा ही कैसे होती? जब तक जवाहरलाल की समझ में आया कि देश को लेते हुए वे इस खाई में गहरे गर्त हो चुके हैं तब तक तो बहुत देर हो चुकी थी.

यहां किस्सा एकदम ही दूसरा है. ये वो लोग हैं जो गांधी को समझने की कूवत ही नहीं रखते हैं लेकिन असभ्य इतने हैं कि उनका सम्मान करने का शील भी नहीं रखते हैं. 2014 के बाद से ऐसी असभ्यों की बन आई है क्योंकि वे जानते हैं कि जिनके हाथ में सत्ता है वे भी अपनी ही बिरादरी के हैं. संघ परिवार के गोविंदाचार्य ने कभी इस परिवार के ‘मुखौटे’ की पहचान की थी लेकिन उनसे चूक यह हुई कि उन्होंने व्यक्ति को पहचाना जबकि पहचान तो पूरी बिरादरी की करनी थी.

गोविंदाचार्य की वह चूक ठीक करने में संघ परिवार के लोग 2014 से पूरी ईमानदारी से लगे हैं. यह अलीगढ़ में जो हुआ उसकी पूर्व भूमिका कहां, किसने नहीं बनाई है? उत्तर प्रदेश की, कि हरियाणा की, कि पूरी पार्टी की कमान जिनके हाथ में है उनका या देश की कमान जिनके हाथ में है उनका मुखौटा हटा कर देखें तो वे ही लोग मिलेंगे जो हमें ऊना में मिले थे, बुलंदशहर या मालेगांव में मिले थे. कभी मंदिर का तो कभी गाय का मुखौटा लगा कर यही लोग हैं जो हमें यहां-वहां-सर्वत्र मिलते हैं. असहिष्णुता और संकीर्णता का, सांप्रदायिकता और झूठ का हर पैरोकार गांधी का हत्यारा है.

उद्दात्त मन का समाज बनाना एक लंबी, पित्तमार सामाजिक-राजनीतिक प्रक्रिया है जिसमें आपको तलवार की धार पर चलना पड़ता है, बाजवक्त गोली झेलनी पड़ती है फिर चाहे वह ईसा हों कि केनेडी कि मार्टिन लूथर किंग कि गांधी! समाज को हिंसक, खूंखार और संकीर्ण मतवादी बनाना बहुत आसान है. यह बच्चों के फिसलपट्टी के खेल की तरह होता है. एक बार नीचे की तरफ धक्का लगा दो बस! फिर तो वह अपने वेग से ही नीचे से नीचे उतरता चला जाता है. यही देश में हो रहा है. इसे कौन, कैसे गिरफ्तार करेगा ? नहीं, ऐसे तत्वों की गिरफ्तारी जिन्हें करनी हो, करें लेकिन समाज को तो इनका प्रतिकार करना होगा. जहां-जहां भारत में भारत के कद का इंसान रहता है वहां-वहां यह प्रतिकार मनसा-वाचा-कर्मणा करना होगा- हमें भी और आपको भी!

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