बाजारजनित साहित्य उत्सवों को चुनौती दे रहा पहला दलित लिट फेस्ट

दिल्ली यूनिवर्सिटी में आयोजित दो दिवसीय दलित साहित्य महोत्सव से निकली आवाज़ दलित साहित्य विलास का नहीं बल्कि शोषण व प्रतिरोध का साहित्य है

WrittenBy:सुशील मानव
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जनवरी के आखिरी सप्ताह में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के प्रतिरोध में राजस्थान सरकार के फंड और काव्या जैसे विवादित संस्था के साथ प्रगतिशील लेखक संघ राजस्थान के संयुक्त आयोजन में हुए ‘समानांतर साहित्य महोत्सव’ के मंच पर मकरंद परांजपे के कविता पाठ पढ़ने के विवाद और बिहार सरकार के ‘पटना साहित्य महोत्सव’ के मंच पर जलेस और सीपीआई से संबंध रखने वाले साहित्यकारों की विवादित भागीदारी के आरोपों प्रत्यारोपों से इतर गुलाबी ठंड के बीच 3 फरवरी को दिल्ली यूनिवर्सिटी के किरोड़ीमल कॉलेज कैंपस में दो दिवसीय दलित साहित्य महोत्सव संपन्न हुआ.

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इस दलित साहित्य महोत्सव को आंबेडकरवादी लेखक संघ, हिंदी विभाग किरोड़ीमल कॉलेज, रश्मि प्रकाशन, रिदम पत्रिका, नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट, अक्षर प्रकाशन, फोरम फॉर डेमोक्रेसी और मगध फाउंडेशन ने मिलकर आयोजित किया.

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बाजारवादी साहित्य उत्सवों ने किया दलितों और आदिवासियों के साहित्य पर हमला : बड़ित्या

विषय की प्रस्तावना में साहित्यकार सूरज बड़ित्या ने कहा, “पिछले चार साल से साजिश के तहत दलित समुदाय पर लगातार हमले किए गए हैं. इन हमलों के पीछे एक विचारधारा काम कर रही थी. साहित्य कभी मुनाफे का सौदा नहीं रहा है. बाज़ार ने साहित्य के महोत्सव आयोजित कर करके इसे एक प्रोडक्ट बनाने की कोशिश की है. मेरा अपना मानना है कि साहित्य व्यक्ति को मनुष्य बनाता है और उनमें संवेदना का विकास करता है. बाजार को चुनौती देने के लिए हम ये दलित साहित्य महोत्सव कर रहे हैं. बाजारवादी साहित्य महोत्सवों ने दलितों, आदिवासियों के साहित्य पर हमला किया है, ये उनकी साजिश थी. आज तमाम न्यूज चैनल और अख़बार अपने साहित्य महोत्सवों में हमारे लेखकों को बुलाकर उन पर हमला करते हैं. उनसे पूछते हैं कि तुम लोग दलित साहित्य के नाम पर समाज को बांट क्यों रहे हो. हम कहते हैं जब आपने समाज बांट रखा है तो साहित्य क्यों नहीं. दलित समुदाय का दायरा बढ़ाने के लिए ही हमने दलित साहित्य महोत्सव का आयोजन किया है. इसमें मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी, ट्रांसजेंडर समुदाय, स्त्री, घुमंतू समुदाय सबको एक साथ लेकर आये हैं. हम बाजार को हमारे साहित्य को उत्पाद नहीं बनाने देंगे. आने वाले वर्षों में हम दलित साहित्य महोत्सव को लेकर देश के कोने कोने में जाएंगे. इसके लिए हमने किसी संस्था या सत्ता संस्थान से एक पैसा नहीं लिया. हमने चंदा मांग मांगकर ये आयोजन किया है. हम इसके जरिए साहित्य की एक बेहतर दुनिया बना सकते हैं.”

लिंग सत्ता, राज्य सत्ता पितृसत्ता को मिले चुनौती : मेधा पाटेकर

कार्यक्रम में मौजूद सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर ने कहा, “दलित साहित्य सम्मेलन पहली बार हो रहा है. अतः हर शोषित की आवाज़ उठाने में इस मंच का योगदान होना चाहिए. इस मंच से आवाज़ उठे कि आकाश गूंजे वो धरती की गहराई तक पहुंचे ये ज़रूरी है. आज मराठी ग्रंथ संग्रहालय को खत्म करने की साजिश की जा रही है. इस दुर्लभ साहित्य संपदा को खत्म करने की साजिश के खिलाफ हमें लड़ना होगा. साजिश के तहत प्रिंट मीडिया को खत्म करके हमें अनसोशल बनाया जा रहा है. और सोशल मीडिया के जरिए सारे विमर्शों पर चेहरे को तरजीह दी जा रही है. आज फेसबुक मीडिया हमें कहां ले जा रहा है इस पर भी सोचना बहुत ज़रूरी है. आज लिंग सत्ता, राज्य सत्ता पितृसत्ता को चुनौती देनेवाले ऐसे आयोजनों की सख़्त ज़रूरत है.”

समाज को एक रखने की जिम्मेवारी केवल दलितों और आदिवासियों की नहीं : रसाल सिंह

लेखक व प्रोफेसर रसाल सिंह ने कहा, “राष्ट्रीयताएं क्षरित हो जाएंगी, ऐसी चिंता दलित साहित्य को लेकर अक्सर ही व्यक्त की जाती है. मेरी समझ यह रही है कि जिस तरह किसी परिवार को एक रखने की जिम्मेदारी सिर्फ स्त्री और बच्चों की नहीं होती वैसे ही समाज को एक रखने की जिम्मेदारी सिर्फ दलितों, आदिवासियों की नहीं है. मेरा आग्रह है कि किसान भी दलित समाज का हिस्सा है तो इन महोत्सवों के जरिए किसान को भी दलित विमर्श में शामिल किया जाना चाहिए. दलित समाज को जब तक उसका हिस्सा नहीं मिलेगा, देश मजबूत नहीं होगा. यह महोत्सव अपनी पीड़ा का सेलिब्रेशन भर नहीं, बल्कि पीड़ा की शेयरिंग भी है. इस आयोजन से हमारी कोशिश है कि हमें सही परिप्रेक्ष्य में सोचा-समझा और अनुभव किया जाए तभी समाज में समन्वय होगा.”

विलास का साहित्य नहीं है दलित साहित्य : नैमिशराय

वरिष्ठ साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने कहा, “दलित साहित्य विलास का साहित्य नहीं है.ये मेहनतकशों की पीड़ा, भूख और दुःख की अभिव्यक्ति है. सत्ता और बाज़ार ने दलित प्रतिभाओं का रास्ता रोक दिया और फिर उन्हें बाजारों में बेचा गया. मौका न मिले तो ब्राह्मण भी पीछे रह जाता है. बाबूराव भागुन ने पहले ही कह दिया था कि दलित साहित्य सर्वहारा समाज का साहित्य है. स्त्रियां भी प्रकृतिक व सामाजिक तौर पर दलित ही हैं.”

इसके बाद मशहूर शायर और जनकवि बल्ली सिंह चीमा ने मंच से अपने कई मशहूर जनगीतों के चंद पंक्तियां सुनाई.

“ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के,

अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के,

कह रही है झोपड़ी औ पूछते हैं खेत भी,

कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के,

बिन लड़े कुछ भी यहां मिलता नहीं ये जानकर,

अब लड़ाई लड़ रहे हैं लोग मेरे गांव के,

कफ़न बांधे हैं सिरों पर हाथ में तलवार है,

ढूंढ़ने निकले हैं दुश्मन लोग मेरे गांव के,

हर रुकावट चीखती है ठोकरों की मार से,

बेड़ियां खनका रहे हैं लोग मेरे गांव के.”

इसके बाद उन्होंने “तय करो किस ओर हो तुम तय करो किस ओर हो/आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो” कविता का पाठ किया तो सभास्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में दलित साहित्य : बलराज सिंह

आंबेडकरवादी लेखक संघ के अध्यक्ष डॉ बलराज सिंह ने अपने संबोधन में कहा, “पहले दलित साहित्य को लोगों ने नहीं स्वीकारा क्योंकि ये उनके बनाए पैरामीटर पर फिट नहीं होता था लेकिन आज दलित साहित्य तमाम यूनिवर्सिटी के सिलेबस में पढ़ाया जा रहा है.”

दलित साहित्य से घबरा गया है सुप्रीम कोर्ट भी : गायकवाड़

मराठी के ख्य़ातनाम साहित्यकार लक्ष्मण गायकवाड़ ने कहा, “आज सुप्रीम कोर्ट भी दलित साहित्य से घबड़ा गया है. दलित सिर्फ हिंदू समुदाय में नहीं ये मुस्लिम और ईसाई धर्म में भी हैं. आज भी कई दलित आदिवासियों को आजादी नहीं मिली है. उन्हें जन्मजात अपराधी कहा जाता है जिसका पुराना इतिहास है. अंग्रेजों के खिलाफ़ इनका संघर्ष आजादी के इतिहास तक में दर्ज नहीं है. कंजर, छरत समेत 158 आदिवासी जनजातियों को अंग्रेजों ने 1871 में खतरनाक अपराधियों के लिस्ट में डाला था. उसके बाद 80 साल ये लोग कैद में रहे. अंबेडकर ने नेहरू से कहा था कि देश में ढाई करोड़ लोगों पर चोर उचक्का का स्टिग्मा लगा हुआ है. देश की आजादी के 5 साल 16 दिन बाद इन्हें आजाद करते हुए नेहरू ने कहा था कि हम मुक्त हैं पर आप विशेष मुक्त हो.”

उन्होंने आगे कहा, “ हमारा दलित साहित्य कहता है कि जो इंसान को इंसान नहीं मानता वो धर्म नहीं है. सवर्ण कहते हैं कि गाय उनकी माता है तो बैल उनका बाप क्यों नहीं है? हिंदू धर्मग्रंथ सुअर को विष्णु और गधे को ब्रह्मा का अवतार मानते हैं. लेकिन गधे और सुअर को हम पालते हैं. मेरी मांग है कि गाय के साथ सुअर और गधे की भी पूजा होनी चाहिए. नहीं तो हम हिंदू धर्म से निकलकर नया धर्म बनाएंगे. मैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग करता हूं कि सभी मंदिरों का राष्ट्रीयकरण हो. हमें शंकराचार्य बनाइए फिर, हम बताएंगे कि हिंदू धर्म कैसे चलेगा. आप राम की ओर एक बोर्ड लगाकर राम के द्वारा शंबूक की हत्या का माफीनामा लिखकर लगाइये और बगल में शंबूक का पुतला लगवाइए.”

वहीं स्वागत वक्तव्य देते हुए साहित्यकार व किरोड़ीमल कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. नामदेव ने कहा कि हाशिए का साहित्य समाज को दलित कला, साहित्य संस्कृति से जोड़कर उनसे संवाद करना चाहती है.

इस मौके पर दलित साहित्य, संस्कृति और दलित आंदोलन की पत्रिका ‘रिदम’ का लोकार्पण किया गया. पत्रिका का ये प्रवेशांक था जिसका संपादन डॉ. नामदेव ने किया है. इस मौके पर विभिन्न प्रकाशन संस्थानों के द्वारा किताबों की बिक्री के लिए स्टॉल लगाए गए हैं. इनमें गौतम बुक्स प्रकाशन, अनुज्ञा प्रकाशन, स्वराज प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, अनामिका प्रकाशन, फारवर्ड प्रेस आदि शामिल हैं. इन स्टॉलों पर बड़ी संख्या में पुस्तक प्रेमी दलित और बहुजनों पर केंद्रित पुस्तकों की खरीद करते देखे गए.

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