महिला: ‘संपादकीय’ और ‘ऑप-एड’ पन्नों की विलुप्तप्राय प्रजाति

देश के प्रमुख दैनिक अख़बारों के आप-एड और संपादकीय पन्ने महिलाओं की मौजूदगी की निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं.

WrittenBy:चेरी अग्रवाल
Date:
Article image

पूर्व में न्यूज़लॉन्ड्री के सर्वे में यह बात सामने आई थी कि अख़बारों में महिलाओं की बाइलाइन से छपने वाली ख़बरें बहुत कम देखने को मिलती है. कम से कम देश भर के शीर्ष अंग्रेजी और हिंदी अख़बारों की दशा यही है. राष्ट्रीय अख़बारों में लैंगिक विविधता का आंकलन करने के लिए इस बार हमने सात अख़बारों के संपादकीय व ऑप-एड पन्नों का जायजा लिया.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

12 नवंबर से आंकड़ों को इकट्ठा करने का काम शुरू हुआ. अगले 36 दिनों तक (लगभग 6 हफ़्ते) न्यूज़लॉन्ड्री ने 4 अंग्रेज़ी व 3 हिंदी दैनिकों के दिल्ली संस्करणों में छप रहे ऑप-एड और एडिटोरियल पन्नों पर नजर बनाए रखी. हमने ऑडिट ब्यूरो ऑफ़ सर्कुलेशन्स (एयूसी) के मुताबिक सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले तीन अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ़ इंडिया, द हिन्दू, और हिंदुस्तान टाइम्स को शामिल किया. साथ ही इंडियन एक्सप्रेस को भी इसका हिस्सा बना गया हालांकि वह प्रसार संख्या के लिहाज से इतना बड़ा नहीं है लेकिन अपने पाठकों के बीच इसका खासा असर है.

हिंदी दैनिकों में हमने दैनिक जागरण, हिंदुस्तान और अमर उजाला के दिल्ली संस्करणों पर गौर किया. दैनिक जागरण अपनी पहुंच के आंकड़े के आधार पर दूसरा शीर्ष अख़बार है, जबकि हिंदुस्तान व अमर उजाला क्रमशः तीसरे और चौथे स्थान पर आते हैं.

सर्वे के मुताबिक एक वर्ष बाद भी अख़बारों के ऑप-एड और संपादकीय पन्नों पर पुरुषों का वर्चस्व बना हुआ है (अंतिम उपलब्ध आंकड़े अगस्त 2017 से अक्टूबर 2017 तक के थे). इन 6 हफ़्तों के दौरान न्यूज़लॉन्ड्री ने कुल 579 लोगों द्वारा लिखे गये 555 लेखों का आकलन किया. इनमें से कुछ संपादकीय और ऑप-एड दो या दो से ज्यादा लोगों ने मिलकर लिखे थे. हिंदी-अंग्रेज़ी को मिलाकर देखें तो लिखने वाले कुल 579 लोगों में महिलाओं का अनुपात महज़ 20 प्रतिशत रहा. मोटे तौर पर कहें तो 5 पुरुषों पर एक महिला लेखक की उपस्थिति रही.

imageby :

5 ऑप-एड और संपादकीय लेखक पर एक महिला लेखक

हालांकि आंकड़े इस बात को पुख्ता करते हैं कि अख़बारों में बतौर लेखक स्त्रियों की मौजूदगी पुरुषों की तुलना में बहुत कम है, फिर भी अगर हम लैंगिक प्रतिनिधित्व की बात करें तो अंग्रेज़ी अख़बारों की स्थिति हिंदी अख़बारों की तुलना में थोड़ी बेहतर नज़र आती है. हिंदी दैनिकों के ऑप-एड्स में 17 प्रतिशत बाइलाइन महिलाओं के नाम रही वहीं अंग्रेज़ी दैनिकों में यह अनुपात 4 प्रतिशत बढ़ जाता है. आंकड़ों में अंग्रेज़ी दैनिकों की स्थिति हिंदी की तुलना में सही भले लग रही हो लेकिन अंग्रेज़ी दैनिकों के संपादकीय में 2017 के मुकाबले महिलाओं की बाइलाइन कम हुई है.

न्यूज़लांड्री की 2017 की रिपोर्ट के ही मुताबिक अंग्रेज़ी दैनिकों के एडिटोरियल पेज पर महिला लेखकों का अनुपात 34.5%  था (तब द टेलीग्राफ भी सर्वे में शामिल था). अब हालात ऐसे हैं कि अगर उन लेखों को भी ले लें जिनमें कम से कम एक महिला का सहयोगी लेखन रहा हो तो भी अंग्रेज़ी दैनिकों के ऑप-एड व एडिटोरियल पेजों से जुड़े आंकड़े का यह ग्राफ 2017 की तुलना में 12.44 प्रतिशत लुढ़कते हुए 22% रह जाता है.

कौन कितने पानी में

महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में इन सात अख़बारों में द हिन्दू के आंकड़े सबसे बेहतर रहे और दैनिक जागरण का हाल सबसे बुरा रहा. संपादकीय पेजों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व के आंकड़े में 0.57 प्रतिशत (लगभग एक प्रतिशत) की गिरावट के बावजूद द हिन्दू की स्थिति सबसे ठीक रही . इसके एडिटोरियल व ऑप-एड पेजों पर महिला लेखकों का अनुपात 27.5% रहा. इस मामले में द हिंदू 2014 में सबसे बेहतर अखबार था.

द हिन्दू के ठीक बाद 27.27% के साथ अमर उजाला का नम्बर आता है. महिलाओं को प्रतिनिधित्व देने के मामले में इसके आंकड़े द हिन्दू की तुलना में महज़ 0.23 प्रतिशत कम रहे.

द हिंदुस्तान टाइम्स तीसरे स्थान पर रहा (24 प्रतिशत). दैनिक हिंदुस्तान (21 प्रतिशत), टाइम्स ऑफ़ इंडिया (20 प्रतिशत), इंडियन एक्सप्रेस (16 प्रतिशत) और दैनिक जागरण (4 प्रतिशत) का नंबर इसके बाद आता है.

जागरण के आंकड़े विशेष रूप से निराशाजनक हैं क्योंकि ऑप-एड पेजों पर आए लेखों में मात्र 4% प्रतिशत महिलाओं के नाम होने का मतलब है कि हर 25 में सिर्फ एक लेख कोई महिला लिख रही हैं.

imageby :
महिलाओं का योगदान
imageby :
दैनिक जागरण में 25 ऑप-एड/संपादकीय लेखकों में से केवल 1 महिला

पिछले साल अक्टूबर में, देश भर के न्यूज़रूम से महिलाएं यौन-उत्पीड़न, मारपीट, अपने साथ हुए ख़राब बर्ताव को लेकर मुखर हुई हैं. #मीटू आन्दोलन के भारतीय संस्करण को धीरे-धीरे गति मिली और यह सोशल मीडिया पर जारी रहा. फिर भी जहां तक सवाल महिलाओं के प्रतिनिधित्व का है, यह कहना होगा कि मुख्यधारा के मीडिया को अभी लम्बी दूरी तय करनी है.

एजेंडा तय कौन कर रहा है: विशेषज्ञ, नेता या फिर पत्रकार?

पूरे 6 हफ़्तों तक, हमने 500 से ज्यादा लेखों की समीक्षा यह समझने के लिए की कि लोगों का लोगों का कौन सा समूह– अर्थात अकादमिक, विचारक, नेता, या पत्रकार- इन भारी-भरकम प्रसार संख्या वाले दैनिकों के ऑप-एड व संपादकीय पन्नों पर विचारों के निर्माण में सबसे आगे है. प्रकाशित हुए कुल 555 लेखों में 366 लेख क्षेत्र-विशेष के विशेषज्ञों ने लिखे थे. इन 366 में से केवल 67 लेख या तो महिला विशेषज्ञों द्वारा लिखे गये थे या कम से इनमें किसी स्त्री लेखक का सहयोग था. प्रकाशित हुए कुल एडिटोरियल व ऑप-एड्स में 12 प्रतिशत ही ऐसे रहे जो किसी महिला विशेषज्ञ द्वारा लिखे गये थे. यानि हर पचीस लेख में से सिर्फ तीन लेखों के साथ ही महिलाओं का नाम जुड़ा था.

हमारी पड़ताल से यह बात सामने आती है कि वैचारिकी निर्माण करने वालों में दूसरा सबसे बड़ा समूह पत्रकारों का है. सम्पादक, ब्यूरो चीफ, और विदेशी मूल के पत्रकारों को लें तो कुल प्रकाशित संपादकीय और ऑप-एड में पत्रकारों की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत यानी कुल 142 लेख पत्रकारों द्वारा लिखे गए. इनमें से 27 प्रतिशत लेख महिला पत्रकारों ने लिखे.

‘संपादकीय’ व ऑप-एड लेखों में 8% भागीदारी के साथ राजनेताओं का समूह तीसरा सबसे बड़ा समूह (तीनों वर्गों में इनकी सबसे कम हिस्सेदारी रही) रहा. इनमें भी केवल 6 लेख बतौर नेता किसी स्त्री द्वारा लिखे गये- यानि नेताओं द्वारा लिखे कुल लेखों का 14 प्रतिशत, और इन सात अख़बारों में लिखे गये कुल संपादकीय व ऑप-एड लेखों का महज़ एक प्रतिशत.

अख़बार-दर-अख़बार आंकड़े:

इन 6 हफ़्तों के दौरान न्यूज़लॉन्ड्री की खोजबीन में यह बात सामने आई कि नेताओं के नाम से सबसे ज्यादा संपादकीय दैनिक जागरण में प्रकाशित हुए. इस मामले में इसके बाद क्रमशः हिंदुस्तान टाइम्स, अमर उजाला, इंडियन एक्सप्रेस, द हिन्दू, टाइम्स ऑफ़ इंडिया और हिंदुस्तान का नम्बर रहा.

imageby :
नेताओं द्वारा लिखे गए संपादकीय और ऑप-एड 

इंडियन एक्सप्रेस में जाने-माने विशेषज्ञों के ऑप-एड्स व संपादकीय सबसे ज्यादा प्रकाशित हुए, व पत्रकारों द्वारा लिखे गये लेखों को सबसे कम बार जगह दी गई, इस मामले में दूसरा नम्बर टाइम्स ऑफ़ इंडिया का रहा, इसके बाद क्रमशः द हिन्दू, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, द हिंदुस्तान टाइम्स और अमर उजाला रहे.

 क्या कहते हैं पत्रकार :

न्यूज़लॉन्ड्री ने इन आंकड़ों के विषय में तमाम वरिष्ठ संपादकों, ऑप-एड लेखकों, स्तम्भकारों और पत्रकारों की राय ली.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की वरिष्ठ सह-संपादक आरती टिक्कू सिंह का कहना है, “जहां तक पढ़ने-पढ़ाने की बात है, मेरा यही कहना है कि भारत युवाओं का देश है. नौकरीपेशा महिलाओं की संख्या अभी भी बहुत कम है, और ख़बरों के क्षेत्र में तो यह और भी कम है. ऑप-एड के लिए विशेषज्ञता, सजग विश्लेषण क्षमता, रचनात्मक लेखन-कौशल और खुद पर भरोसे का होना जरूरी है. न केवल अपना नजरिया लोगों के बीच रखना ज़रूरी है बल्कि अपनी आलोचना का सामना करने के लिए भी यह जरूरी है. ऐसा नहीं है कि महिलाओं के अपने नजरिये नहीं होते लेकिन मेरा ख़याल है कि उनमें से अधिकांश को अपने ही तर्क- वितर्क और आलोचनाओं से पार पाने में मुश्किल होती है. लेकिन अगर ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को विशेष रूप से प्रोफेशनल ट्रेनिंग दी जाए तो जनसामान्य की एक आम समझ विकसित करने में महिलाओं की भूमिका थोड़ी और मानीखेज हो जाएगी.”

वरिष्ठ पत्रकार व लेखक गीता अरवामुदन कुछ हद तक इस बात से सहमत हैं. उनका कहना है, “अगर विशेषज्ञता को थोड़ी देर के लिए एक तरफ रखते हुए कहें तो आमतौर पर अपने विचार रखने में महिलाओं में थोड़ी झिझक देखने को मिलती है. यह बात पुरानी पीढ़ी के लोगों पर ज्यादा सटीक बैठती है जिनके कहने-सुनने का फर्क पड़ता है. लेकिन उन्हें ख़ारिज़ कर दिए जाने का डर होता है. उन्हें कुछ अधिक असमंजस होता है.”

अरवामुदन आगे कहती हैं “संभवतः स्त्री के लिए परिस्थिति ऐसी है, कि उसका कहा अनकहा रह जाए, जैसे अभिव्यक्ति को हाशिए पर खड़ा कर दिया गया हो; आदमी, आदमी की खोज-खबर तो लेता है, परन्तु औरतों के लिए यह स्थिति नहीं है. हालांकि इसमें कोई लैंगिक भेदभाव जैसा कुछ नहीं है. आप-एड अधिकतर पुरुषों द्वारा ही नियंत्रित हो रहे हैं. लिहाजा लेखों के लिए महिलाओं की खोज भी उतनी नहीं की जाती होगी, क्योंकि ऐसी निर्णयात्मक स्थिति में महिलाएं तुलनात्मक रूप से बहुत कम हैं.”

लंबे समय तक स्वतंत्र पत्रकार रहीं अरवामुदन ने इंडियन एक्सप्रेस के साथ अपने कैरियर की शुरुआत की और नियमित रूप से ऑप-एड लिखती रही हैं. साथ ही इन्होने कई मौकों पर द हिंदू में भी अपना कॉलम लिखा है.

द प्रिंट डिजिटल की डायरेक्टर दीक्षा मधोक कहती हैं, “कुछ ऐसे कार्य-क्षेत्र हैं जहां शीर्ष पर अभी भी पुरुषों का ही वर्चस्व बरकरार है. इन क्षेत्रों में महिलाएं अगुआ की भूमिका में न के बराबर हैं. अर्थ-प्रबंधन, तकनीकि उद्योगों, वेंचर कैपिटल इकोसिस्टम आदि से जुड़ते हुए (बतौर संपादक) मेरे विकल्प सीमित ही रहे.” अर्थव्यवस्था व तकनीकी केन्द्रित पोर्टल ‘क्वार्ट्ज़ इंडिया’ में बतौर संपादक अपने कार्यकाल के दौरान उनकी टीम में महिलाएं तकनीकी रिपोर्टर रहीं लेकिन स्त्री- बतौर विषय-विशेषज्ञ की कमी ही रही. उनका कहना है, “महिलाएं इन तकनीकी प्रदर्शनियों में बतौर रिपोर्टर चली तो जाती, पर अमूमन हर बार वक्ताओं के पैनल में पुरुषों का ही वर्चस्व होता.”

मधोक आगे कहती हैं कि कुछ क्षेत्रों में लैंगिक असंतुलन ‘ओपिनियन-मेकर’ के बीच लैंगिक असंतुलन की बड़ी वजह है.

आरती टिक्कू सिंह के अनुसार काम की जगहों पर असमान आमदनी भी एक बड़ी चुनौती है. “मेरा यह मानना है कि भारत में ख़बरों के पेशे में महिलाएं, आमतौर पर पुरुषों के मुकाबले कम वेतन पाती हैं. इस बात को सही साबित करने के लिए मेरे पास कोई सबूत या आंकड़ा तो नहीं है, पर मुझे लगता है कि मोटे तौर पर यह बात सही है.”

इंडियन एक्सप्रेस की सह-संपादक कूमी कपूर न्यूज़रूम में स्त्रियों के बहुत सीमित दायरे तक पहुंच को चुनौती के रूप में देखती हैं. उनके अनुसार, “यहां एक अदृश्य दीवार है. बहुत सी काबिल महिलाएं इस दीवार के कारण पीछे रह जाती हैं. इस अदृश्य दीवार के पीछे एक ही वजह है, शीर्ष पर मौजूद पुरुषों का एक क्लब. दूसरा कारण यह भी है कि अक्सर मालिक महिलाओं की तुलना में पुरुषों के साथ काम करने में सहजता महसूस करते हैं.” वो आगे कहती हैं, “कुछ महिलाओं की प्रतिभा और सामर्थ्य देखकर आश्चर्य होता है, कि वे ऊंचे ओहदों पर नहीं हैं.”

अरवामुदन और कपूर, दोनों सत्तर के दशक के उन दिनों को याद करती हैं, जब महिलाओं को फूलों की प्रदर्शनियों और ब्यूटी कॉन्टेस्टों को कवर करने भेजा जाता था या फीचर लिखने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती थी.

अरवामुदन और मधोक का यह मानना है कि हालात बदलें इसके लिए न्यूज़रूम में उभरती हुई प्रतिभाओं व सशक्त स्त्री स्वरों को महत्वपूर्ण जगह देने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा. उनके अनुसार, “न्यूज़रूम में महिलाओं के नज़रिए को सामने लाने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन इस संबंध में अभी बहुत कुछ होना बाकी है. पत्रकार नए नामों या महिलाओं का नजरिया सामने लाने के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं.”

मधोक कहती हैं, “बदलाव का एक तरीका यह हो सकता है कि महिलाओं को यह बात समझ आ जाए कि उन पन्नों पर मौज़ूदगी के क्या मायने हैं. साथ ही, अगर महिलाएं पत्रकारिता की व्यावहारिक समझ व काबिलियत विकसित कर लें. अगर महिलाएं सोशल मीडिया की मदद से अपना नजरिया सामने लाएं, तो इससे नई प्रतिभाओं को सामने लाने में पत्रकारों को भी आसानी रहेगी.”

आरती सिंह समान काम के एवज़ में समान मेहनताना मिलने को बदलाव की दिशा में एक बड़ा कदम बताते हुए कहती हैं, “मेरे ख़याल से सैलरी पैकेज तय करने में पारदर्शिता बरती जानी चाहिए, और यह काबिलियत के हिसाब से तय किया जाना चाहिए. साथ ही मीडिया घरानों को अपने अंदरूनी सिस्टम को और बेहतर करना होगा ताकि काबिलियत की परख की जा सके और उस हिसाब से मौके दिए जा सकें.”

ऑप-एड और सियासत

‘ऑप-एड’ पेज से क्या मतलब है? कपूर इसे “संपादकीय पन्ने का ही विस्तार” कहती हैं, जहां शब्द ही अख़बार का मिजाज़ बयां करते हैं.” अरवामुदन के मुताबिक ‘ओपिनियन पेज’ कहने से मतलब है- “जहां समसामयिक मुद्दों का गहन विश्लेषण करते हुए अपना नजरिया दिया जाय और जहां अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ अपने विचार रखते हों.” आरती टिक्कू सिंह के अनुसार, यह पेज “अख़बार और समाज की सामूहिक न्याय की भावना का प्रतिबिंब है और वह स्पेस मुहैया करता है, जहां उन मुद्दों पर ध्यान दिया जाय जो हमें सामूहिक रूप से प्रभावित करते हैं.”

क्या इस बात से कोई फर्क पड़ना चाहिए कि आजकल नेता ऑप-एड पन्नों पर अधिक राय ज़ाहिर कर रहे हैं? इस सवाल के जवाब में आरती कहती हैं, “मुझे नहीं लगता कि अगर अपनी राय संजीदगी से ज़ाहिर की जाय तो अभिव्यक्ति पर बंदिश लगनी चाहिए, फिर चाहे वो नेता ही क्यों न हो. अख़बार में लिखे गये औसत लेख और बेतुकी बातों को छापना कॉलम के लिए निर्धारित जगह की बर्बादी है.” वो आगे कहती हैं, “लेखों को छापे जाने के मानदंड सबके लिए समान होने चाहिए.”

कूमी कपूर भी नेताओं के ‘ऑप-एड्स’ को गलत नहीं ठहरातीं. उनका कहना है, “ऑप-एड’ पेज अलग अलग मसलों पर अपनी राय रखने की जगह है. मुझे ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता कि नेताओं को क्यों नहीं लिखना चाहिए. अगर वे लिखने को प्रतिबद्ध हैं तो उन्हें लिखने का पूरा हक़ है. लेकिन अगर नेता लिखने के मामले में फिसड्डी हैं किन्तु नाम और दबदबे की वजह से उन्हें मौका दिया जाता है तो वह कतई सही नहीं है. अक्सर आपको ऐसा कुछ लिखा मिल जाएगा जिसमें नया कुछ नहीं होता, जैसे कि उनके भाषणों को उन्हीं के किसी सहायक द्वारा लिख दिया जाता है. ऐसे लोग जिनके पास कहने को कुछ ख़ास नहीं है, उन्हें जगह नहीं दी जानी चाहिए. दूसरी तरफ शशि थरूर, पी चिदम्बरम और अरुण जेटली जैसे कई नेता भी हैं, जो काफी विचारोत्तेजक लिखते हैं, जिनके पास कहने-लिखने को कोई अलग बात होती है.”

अरवामुदन इस बात से असहमति जताती हैं. उनका मानना है, “नेताओं के पास अपनी बात कहने के तमाम ज़रिये होते हैं, जैसे दूरदर्शन. मुझे नहीं लगता कि उन्हें इसके लिए प्रिंट मीडिया या वेब मीडिया की तरफ आना चाहिए. यह ऐसी जगह होनी चाहिए जहां आम लोग अपनी बात कहें और वह सुनी जाए. न्यूज़रूम को प्रयास करना चाहिए कि उभरती प्रतिभाओं को, नई आवाज़ों को जगह दें.

सर्वे की विधि:

अख़बारों की पड़ताल करते हुए अख़बार के निम्न हिस्सों में प्रकाशित बाइलाइन पर गौर किया गया:

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के ‘एक्सटेसी ऑफ़ आइडियाज’ पेज को ध्यान में रखा गया. हिंदुस्तान टाइम्स के कमेंट सेक्शन में प्रकाशित नामों को शामिल किया गया. इंडियन एक्सप्रेस के ‘एडिटोरियल’ और ‘द आइडियाज’ पेज गौरतलब रहे और द हिन्दू के ‘संपादकीय’ और ‘ऑप-एड’ पेजों की पड़ताल की गई. साथ ही सभी हिंदी दैनिकों के सम्पादकीय पेज इस पड़ताल का हिस्सा रहे. ‘प्रवाह’ अमर उजाला का संपादकीय पेज है.

सर्वे के दौरान लेखकों को तीन हिस्सों में बांटा गया- विशेषज्ञ, नेता या नौकरशाह और पत्रकार. विशेषज्ञों में पॉलिसी-निर्माता, अर्थशास्त्री, प्रोफेसर, शोधार्थी, विचारक और ऐसे लोगों को लिया गया, जिन्हें क्षेत्र-विशेष का लंबा अनुभव हो. बतौर उदहारण जैसे सेवानिवृत सैनिक आदि. कहने का मतलब है कि प्रताप भानु मेहता, बिबेक देबरॉय, अशोक गुलाटी और अरविन्द पनगढ़िया जैसे लोग इस सूची में आते हैं.

दूसरी सूची निवर्तमान व भूतपूर्व नेताओं, पार्टी प्रवक्ताओं और नौकरशाहों की है. अनुप्रिया पटेल, सुभाषिनी अली, वेंकैया नायडू, कपिल सिब्बल, एस वाई क़ुरैशी, केसी त्यागी, पवन खेड़ा और सुधांशु त्रिवेदी जैसे लोग इसका हिस्सा रहे.

आख़िरी सूची पत्रकारों की है जिसमें ए सूर्य प्रकाश, सबा नक़वी, तवलीन सिंह, राजदीप सरदेसाई और शेखर गुप्ता जैसे लोग रहे. सूची तैयार करने में थोड़ा लचीला रुख अख्तियार किया गया क्योंकि तमाम लोग अलग अलग क्षेत्र-विशेष का भी अनुभव रखते थे.

क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों की जमासूची तैयार करते हुए तीन लेखकों को अलग रखा गया: इनमें गौतम अडानी, अडानी ग्रुप के चेयरमैन; विनय प्रकाश, अडानी इंटरप्राइजेज के सीईओ; और मार्केटिंग व संचार प्रोफेशनल और इवोक के सीईओ शामिल रहे.

(नोट: आंकड़े लगभग में हैं.)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like