अभिनंदन से पहले और अभिनंदन के बाद

कुछ लोग होते हैं जो अपनी चौड़ी छाती का नाप बताते फिरते हैं, लेकिन इतिहास छाती नहीं, दिल नापता है.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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चालीस लाशें पुलवामा में; फिर न मालूम कितनी बालाकोट में और फिर 40 से ज्यादा सीमा पर और कश्मीर में; और हवा में कितना सारा जहर! अगर ये सारी लाशें शहादत की हैं तो इनके सम्मान में खड़े हो भाई, इतनी जानें गईं तो अफसोस में सर झुकाओ और गहरी भावना से प्रार्थना करो कि ऐसा मंजर फिर न बने. आदमियत तो इसी को कहते हैं कि अनजान अर्थी भी जा रही हो तो धरती से उसे विदा करते हुए आंख बंद कर, नमस्कार करते हैं. ये तो हमारे फौजी हैं- या उनकी फौज द्वारा गलत तरीके से इस्तेमाल किए जा रहे गिनिपिग! इन्हें लेकर ऐसी घृणा का प्रचार, शोर और फेंफड़ों की वीरता किसी महान राष्ट्र को शोभा नहीं देती. अगर किसी का यह कहना हो कि नहीं हैं हम महान राष्ट्र तो वह भी खुल कर कहो ताकि हम आपसे कुछ न कहें! लोग होते हैं कि जो अपनी चौड़ी छाती का नाप बताते फिरते हैं, इतिहास छाती नहीं, दिल नापता है. तभी तो किसी हिटलर या मुसोलिनी या चर्चिल की नहीं, इतिहास किसी गांधी, किसी लिंकन की अभ्यर्थना में झुकता है.

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प्रधानमंत्री को बड़ा रोष है कि ‘कुछ लोग’ हमले का प्रमाण मांग रहे हैं. इसमें रोष करने जैसा क्या है, चिंतित होने की जरूरत है कि क्यों आपकी विश्वसनीयता इतनी गिर गई है कि आपके हर दावे पर ‘कुछ लोग’ नहीं, इस देश के 69% लोग जल्दी भरोसा नहीं करते? और फिक्र तो तब भी होनी चाहिए जब कोई एक अकेला भी भरोसा न करे! देश ने अच्छे-बुरे, कम बुरे-अकुशल सभी तरह के प्रधानमंत्री देखे-भुगते हैं लेकिन ऐसा अविश्वास तो किसी के लिए नहीं देखा था. प्रधानमंत्री का इतिहासविषयक झूठा बड़बोलापन, भूगोल की उनकी नासमझी, आंकड़ों की सत्यता के प्रति उनकी हिकारत और किसी भी सत्य का सम्मान न करने की उनकी हेकड़ी और कहीं भी, किसी का भी अपमान कर सकने का उनका भोंडापन देश ने पांच सालों में इतनी बार समझा-परखा है कि उसे बार-बार पूछना पड़ता है कि वहां से जो कहा जा रहा है उसमें कुछ सच भी है क्या? सेना के प्रवक्ता ने बहुत सही और सच कहा कि बालाकोट में हमारा अभियान सफल रहा लेकिन लाशें गिनना हमारा काम नहीं है. प्रधानमंत्री और उनके लोगों ने कैसे गिन ली लाशें?

युद्ध, हिंसा, घृणा और हत्या को कैसी भी स्थिति में अस्वीकार करने वाला मैं भी यह मानता हूं कि प्रधानमंत्री की अनुमति से हमारी फौज ने जो किया, कोई भी सरकार वैसा ही करती. राज्य की अपनी भूमिका है और उसे वह भूमिका कमजोरी या असमंजस में रह कर नहीं निभानी चाहिए. पूर्ण धीरज और अच्छी योजना के साथ वह करना चाहिए जो करने की जिम्मेवारी उसकी है. यह भी मानता हूं मैं कि जो हुआ वह पाकिस्तान का अपना रचा हुआ है. उसे यह भुगतना ही था. वह अपना रास्ता नहीं बदलेगा तो ऐसे कई घाव उसे लगेंगे. यह भारत-पाकिस्तान के बीच का ही सच नहीं है, आतंकवादी हिंसा हो या नक्सली हिंसा कि चुनावी फायदे के लिए भड़काई गई सांप्रदायिक हिंसा- इन सबको अंतत: तो राज्य की हिंसा से जूझना ही होगा. हम उसके लिए दुखी जरूर होते हैं लेकिन उसका निषेध कैसे करें? जो बो रहे हो, वही काटोगे जैसा न्याय है यह.

लेकिन यह जवाबी उन्माद फैलाना? इसे कैसे समझा जाए? आग पर भुट्टे सेंके जाएं तो सही, आप लाशें सेंकने लगे तो? चालाकी कहें हम कि लाचारी लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने ज्यादा सयानेपन से स्थिति को संभाला है जबकि पाकिस्तान के अंदरूनी हालात में वे बहुत कमजोर विकेट पर खड़े हैं. वहां भी हमारी तरह का ही अत्यंत शर्मनाक मीडिया है; युद्धोन्माद फैलाने वाले सांप्रदायिक लोग व संगठन हैं; किसी भी स्तर पर उतर कर चुनावी फायदा बटोरने में लगे सत्ता के दलाल हैं. इन मामले में हम दोनों मुल्क यह साबित करने से कभी नहीं चूकते हैं कि दरअसल हम हैं तो एक ही नस्ल के!

लेकिन मोदीजी के या अभिनंदनजी के डर से कांपते इमरान खान ने, घुटनों के बल बैठ कर भी यदि कोई सही बात कह दी है तो क्या उसे ही पकड़ कर हमें न्याय व शांति का मुद्दा आगे नहीं कर देना चाहिए? वे कह रहे हैं कि हम आतंकवाद पर भी बात करने को तैयार हैं तो यही तो हम मांग रहे थे न! तो देर क्यों, बात करने का न्योता भेज दें न! यह भी कह दें कि हाफिज सईद और उसके सारे खर-पतवार, दाऊद इब्राहीम सरीखे तस्कर आपके यहां आजाद घूमते रहें तो बातचीत का वातावरण बनता ही नहीं है. वे पाकिस्तान के नागरिक नहीं हैं. भारत से भागे हुए अपराधी हैं जिन्हें आपने पनाह दे रखी है, तो आपसे बात होगी कैसे? तो वार्ता की ज़मीन तैयार करने के लिए जैसे आपने हमारे अभिनंदन को वापस भेजने का सयानापन दिखाया है वैसे ही इन्हें भी सगुन मान कर गिरफ्तार कीजिए और अपनी ही जेल में डालिए.

इमरान साहब, अपनी सदाशयता पर हमारा भरोसा आपने इतनी बार तोड़ा है कि अब आपको आगे बढ़ कर उसकी मरम्मत करनी पड़ेगी, और उसका एक कदम यह गिरफ्तारी है. पाकिस्तान को अलग-थलग करने की हमारी कोशिश भले चले लेकिन एक कोशिश यह भी करें हम कि पाकिस्तान को नैतिक कठघरे में खड़ा करें! नैतिकता का सवाल खड़ा करने की पहली शर्त यह है कि वह नैतिकता की बुनियाद पर खड़े हो कर उठाई जानी चाहिए.

यह काम चालबाजी से, दांत पीस कर भाषण देने से या अपने राजनीतिक विपक्ष को देशद्रोही बताने से नहीं होगा. अपनी पीठ आप ठोकने वाली यह देशभक्त सरकार तो बमुश्किल पांच साल पहले ही आई है न! इससे पहले देश इसी ‘देशद्रोही’ विपक्ष के हाथों में था. हो सकता है, ये आपकी तरह बहादुर, दूरदर्शी, कुशल, ईमानदार न रहे हों लेकिन ये देशद्रोही होते तो यह देश आपको राज चलाने के लिए मिलता क्या? प्रधानमंत्री और उनके मातहत सारे लोग जिस से, जैसी भाषा बोल रहे हैं, वह चुनावी सन्निपात हो तो भला अन्यथा हमारा सार्वजनिक संवाद कभी इतना पतनशील और असभ्य नहीं हुआ था.

पिछले दिनों में उभरी सबसे पुरसकून और मानवता में हमारा भरोसा बढ़ाने वाली कोई एक छवि चुननी हो तो क्या याद आता है आपको? मुझे याद ही नहीं आती है बल्कि वह छवि मेरे मन पर अंकित हो गई है: पाकिस्तान की सड़कों पर उतरी वो महिलाएं और पुरुष जिनके हाथ के प्लेकार्ड पर लिखा था: अभिनंदन को भारत वापस भेजो!

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