पुलवामा से लेकर बालाकोट तक युद्धोन्माद का फिल्मी कोरस

पुलवामा हमला और बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद मुंबई फिल्म इंटस्ट्री ने किस तरह संयम-शील को दरकिनार कर युद्ध का आह्वान किया.

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कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अहमदाबाद में थे. गुजरात की राजधानी अहमदाबाद नरेंद्र मोदी का पुराना मैदान है. यहीं से वे राष्ट्रीय राजनीति के खिलाड़ी बने. वहां एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में एक अस्पताल पर हुए आतंकी हमले को याद किया और तत्कालीन केंद्रीय सरकार को कोसा. उन्होंने आज के संदर्भ से उसे जोड़ते हुए हुंकार भरी और ललकारते हुए कहा, “चुन चुन कर हिसाब लेना… यह मेरी फितरत है.” इसी संबोधन में उन्होंने आगे कहा, “यह हमारा सिद्धांत है… हम घर में घुस कर मारेंगे.”

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घर में घुसकर मारने की बात कहना वास्तव में फिल्मी संवाद है. किसी देश के प्रधान को ऐसी भाषा बोलते कभी नहीं सुना गया. सोशल मीडिया पर हुए शोधों के अनुसार सनी देओल ने सबसे पहले ‘घातक’ फ़िल्म में ऐसा संवाद बोला था. यूं पाठकों को याद होगा कि भारत के चर्चित सर्जिकल स्ट्राइक की दूसरी वर्षगांठ पर रिलीज हुई ‘उड़ी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ में एक सैन्य अधिकारी के संवाद हैं… “हिंदुस्तान ने आज तक के इतिहास में किसी मुल्क पर पहला वार नहीं किया…1947, 65 ,71 और 99 यही मौका है उनके दिल में डर बिठाने का. एक हिंदुस्तानी चुप नहीं बैठेगा. यह नया हिंदुस्तान है. यह हिंदुस्तान घर में घुसेगा और मारेगा भी.” गौर करें इस संवाद में 1962 का उल्लेख नहीं है. 1962 में भारत-चीन युद्ध हुआ था. दरअसल,संवाद का स्पष्ट इशारा पाकिस्तान की तरफ था. दुश्मन सुनिश्चित है.

अब दोनों अवसरों के संबोधन और संवाद को फिर से पढ़ें और मिलान करें तो पाएंगे कि फ़िल्म में उल्लिखित हिंदुस्तान वर्तमान राजनीतिक जीवन में साक्षात मोदी हैं. वे अहमदाबाद की सभा में फिल्म के संवाद ही निजी शैली में दोहरा रहे थे. कौन कहता है कि फिल्में समाज को प्रभावित नहीं करतीं? इस प्रसंग में तो फिल्में सत्ता को भी प्रभावित कर रही हैं. सत्ताधारी पार्टी भी प्रभावित हो रही है. प्रधानमंत्री खुलेआम पूछते हैं ‘हाउ इज द जोश?’ याद करें ‘उड़ी द सर्जिकल स्ट्राइक’ में नायक स्ट्राइक से पहले अपने साथियों से यही पूछता है ‘हाउ इज द जोश?’ कैसी गड्डमड्ड चल रही है?

‘हाउ इज़ द जोश’ नया नारा और आह्वान है. अभी यह  देश की दसों दिशाओं में गूंज रहा है. प्रधानमंत्री से लेकर आम संतरी तक देश में जोश नाप रहे हैं. लग रहा है कि पूरा देश जोश से उतावला हो रहा है. आलम यह है कि मीडिया व सोशल मीडिया से लेकर परस्पर बातचीत तक में हर तरफ राष्ट्रवाद और पाकिस्तान से युद्ध की चर्चा है. ज्यादातर देशभक्त युद्ध को कबड्डी समझ रहे हैं और उसी अंदाज में ‘हु तू तू’ करने में लगे हैं. यह कोरस जीवन के किसी एक दायरे तक सीमित नहीं है. फिल्मी बिरादरी की बात करें तो यहां भी युद्ध का उन्माद उफान पर है. बिरादरी के संवेदनशील सदस्य भी इस हुल्लड़बाजी में शामिल हैं.

रणभेरी बजने से पहले ही सिर्फ संकेत मिलने पर बगैर किसी सरकारी निर्देश के ही पाकिस्तान से हर प्रकार के फिल्मी संपर्क को काटने की बात की जा रही है. यह संपर्क 1965 के युद्ध के 40 सालों के बाद बहाल हो पाया था. पिछले दिनों फिल्मी संगठनों से लेकर कलाकारों तक ने पाकिस्तानी कलाकारों पर पूर्ण पाबंदी का आह्वान किया. सरकार से आग्रह किया गया कि पाकिस्तानी कलाकारों को वीसा ही नहीं दिया जाए.

अजय देवगन और ‘टोटल धमाल’ की टीम ने पाकिस्तान में फिल्म नहीं रिलीज करने का फैसला किया. टी सीरीज ने आनन-फानन में अपने यूट्यूब चैनल से आतिफ असलम और राहत फतेह अली खान के गाये हिंदी फिल्मों के गाने हटा दिए. सलमान खान ने प्रिय गायक आतिफ असलम का गीत ‘ भारत’ से निकाल दिया. अजीब अफरा-तफरी है. इन सभी घोषणाओं और एकतरफा सक्रियता मैं अधिकांश की सहमति दिखाई पड़ रही है. कह सकते हैं कि सभी की मति पर देशभक्ति की धुन सवार है.

हिंदी फिल्मों के लिए देशभक्ति कोई नई परिघटना नहीं है. आजादी के पहले की हिंदी फिल्मों में राष्ट्रीय अस्मिता और गौरव की बातें की जाती रही हैं. कवि प्रदीप ने 1934 में आई ‘किस्मत’ में देश की भावना को शब्द दिए थे- ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो ए दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है.’ इस दौर की फिल्मों में वंदे मातरम, बलिदान और शहादत के गीत दर्शकों के दिलों में राष्ट्रभक्ति का संचार करते रहे हैं. फिल्मों और फिल्मकारों पर स्वाधीनता आंदोलन का प्रभाव स्पष्ट है. कभी गांधी, कभी नेहरू तो कभी सुभाष और भगत सिंह के व्यक्तित्व व विचारों से प्रेरित हिंदी फिल्मों का स्वर आजादी की आकांक्षा के तरानों से गूंजता रहा. आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण और सामाजिक विषमता खत्म करने की कहानियां फिल्मकारों को आकर्षित करती रहीं. अपने पांव पर खड़े हो रहे देश की अंगड़ाई और उम्मीद फिल्मों में प्रकट हुई.

1962 में हुए चीन के आक्रमण से पहले महसूस ही नहीं किया गया था कि पड़ोसी देशों से देश की संप्रभुता को खतरा हो सकता है. पंचशील के सिद्धांत पर चल रहे नेहरू ने सरहदों की सुरक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया था. चीन के आक्रमण से नेहरू को गहरा आघात लगा था और देश का मनोबल टूटा था. इस पृष्ठभूमि में चेतन आनंद ने 1964 में ‘हकीकत’ का निर्माण और निर्देशन किया. फिर 1965 में पाकिस्तान युद्ध के बाद फिल्मों में देशभक्ति की नई लहर दिखी, जिसमें युद्ध की पृष्ठभूमि में सैनिकों की कहानियों का चित्रण किया गया. देश की रक्षा में सीमाओं पर खुद की आहुति और कुर्बानी दे रहे जवानों को याद करने की भावभीनी अपील की गई. तब की फिल्मों में पलटवार और आक्रमण से अधिक देश की हिफाजत और निगेहबानी पर जोर दिया गया. ‘हमसाया’, ‘प्रेम पुजारी’, ‘ललकार’, ‘हिंदुस्तान की कसम’, ‘आंखें’ आदि फिल्मों का अध्ययन और दर्शन इस लिहाज से किया जा सकता है.

पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में मनोज कुमार उर्फ भारत कुमार ने राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया. इन फिल्मों में नायक का नाम भारत हुआ करता था. इसी वजह से मनोज कुमार को भारत कुमार कहा जाने लगा था. कहते हैं कि निर्माता केवल कश्यप की फिल्म ‘शहीद’ में भगत सिंह की भूमिका निभाने के बाद उन्हें फिल्मों में अपनी ख़ास दिशा और जमीन मिली. संयोग कुछ ऐसा बना कि तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को ‘शहीद’ बहुत पसंद आई. उन्होंने मनोज कुमार को ‘जय जवान, जय किसान’ की थीम पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया. शास्त्रीजी की प्रेरणा का मनोज कुमार पर ऐसा असर हुआ कि उन्होंने दिल्ली से मुंबई की वापसी की ट्रेन यात्रा में ‘उपकार’ की स्क्रिप्ट पूरी कर ली. ‘उपकार’ की सफलता और स्वीकृति ने उन्हें भरपूर जोश दिया. फिर तो उन्होंने ‘पूरब और पश्चिम’ ‘शोर’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘क्रांति’ आदि फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया.

मनोज कुमार का राष्ट्रवाद एक तो आक्रामक नहीं था और ना ही किसी पार्टी विशेष के प्रभाव में था. हालांकि तब कांग्रेस का एकछत्र वर्चस्व था. फिर भी मनोज कुमार की फिल्मों में पार्टी का दुराग्रह नहीं है. वह भारत के अतीत की याद दिलाते हुए वर्तमान की विसंगतियों और परिस्थितियों की बातें करते रहे. उनके समकालीन दूसरे फिल्मकारों की देशप्रेमी फिल्मों में भी किसी प्रकार का युद्धघोष नहीं सुनाई पड़ता. चेतन आनंद और रामानंद सागर की फिल्मों में नायकों का आक्रामक रुख नहीं है. उन फिल्मों में युद्ध की विभीषिका से गुजर रहे जवान सीमाओं की रक्षा के साथ निजी दुख-दर्द को भी जाहिर करते रहे. इन फिल्मों में देशवासियों को जवानों की वीरता और शहादत की याद दिलाने की कोशिशें हैं.

कारगिल युद्ध (1999) के बाद की हिंदी फिल्मों में ललकार और आक्रामक चीख सुनाई पड़ती है. हालांकि 1992 में आई मणिरत्नम की ‘रोजा’ में घुसपैठियों की पाकिस्तानी के रूप शिनाख्त कर ली गई थी. उनकी वेशभूषा भी निश्चित हो गई थी. नतीजा यह हुआ कि बाद की ज्यादातर फिल्मों में खलनायक पठानी सूट पहने दिखाई पड़ा और उसके सूत्र पाकिस्तान से मिले होते थे. 1999 के बाद तो ‘दूध मांगोगे खीर देंगे, कश्मीर मांगोगे चीर देंगे’ जैसे उद्घोष के साथ पाकिस्तान पर धौंस जमाने और पाकिस्तानी सेना को नीचा दिखाने की सरल विधि अपना ली गई.

2001 में आई ‘गदर’ की पृष्ठभूमि विभाजन की थी, लेकिन सनी देओल के संवादों में कारगिल युद्ध के बाद का गुस्सा था. ‘गदर’ की जबरदस्त कामयाबी से जाहिर हो गया कि देश के अधिकांश दर्शक किस मूड में थे? जेपी दत्ता की ‘बॉर्डर’ और ‘एलओसी कारगिल’ में युद्ध का महिमामंडन दिखाई पड़ता है. जेपी दत्ता के भाई भारत-पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए थे. उन्होंने व्यक्तिगत अनुभव को देशभक्ति शौर्य और वीरता से जोड़कर रोमांचक ‘वार’ फिल्में निर्देशित की.

हर युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति के बाद राष्ट्रवाद और देशभक्ति की फिल्मों का उफान आता है. इस प्रवृत्ति और प्रभाव से अलग पिछले दो-तीन सालों से फिल्मकारों और कलाकारों में राष्ट्रवाद के प्रति अतिरिक्त झुकाव नजर आ रहा है. केंद्र में भाजपा की सरकार है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने फिल्मों में राष्ट्रवाद को स्थापित किया है.

लोकप्रिय संस्कृति यानी सिनेमा को विचारधारा का टूल बनाने में भाजपा की सक्रियता बढ़ी है. फिल्म इंडस्ट्री के अंदर इस राष्ट्रवाद के कुछ हमदर्द भी उभरे हैं. असहिष्णुता विवाद के बाद उनकी सक्रियता बढ़ गई है. फेस पर बैठे फिल्मकारों ने राष्ट्रवाद की डफली थाम ली है. देशप्रेम, राष्ट्रभक्ति या देश के यशगान से भला किस भारतीय दर्शक को दिक्कत हो सकती है, लेकिन जब यह झुकाव और स्वर निहित राजनीति में पगा होता है तो खतरनाक नतीजे आने लगते हैं.

इस बीच ऐसी कई फिल्में आई है जिनमें केंद्रीय सरकार और भाजपा की सोच को संवाद और सीन में बदला गया है. इधर पुलवामा में सीआरपीएफ के जवानों पर हुए कायराना हमले और उसके बाद भारत की तरफ से हुई असैन्य कार्रवाई के साथ फिल्मकारों की बड़ी टोली हाहाकार, हुंकार और जय जयकार मैं लिप्त दिखाई पड़ी. फिल्मकार और कलाकार वर्तमान उद्घोष के कोरस में सुनाई पड़े. उन्होंने एयर स्ट्राइक और विंग कमांडर अभिनंदन की घटना के साथ सोशल मीडिया को संदेशों से पाट दिया. वायु सेना के जवानों को सलामी भेजी गई. इन संदेशों के टोन में मारने और सबक सिखाने की प्रतिध्वनि थी. अक्षय कुमार ने आह्वान किया ‘अंदर घुस के मारो’ तो अशोक पंडित ने ट्वीट किया- ‘चुन चुन के मारेंगे’. फिलहाल शांति और सुलह की बात करने वाले देशद्रोही मान लिए जाएंगे. फिल्म इंडस्ट्री के संयत स्वर खामोश हैं. अधिकांश कलाकार और फिल्मकार नए भारत के आक्रामक राष्ट्रवाद के समूहगान में शामिल हैं.

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