6 ख़तरे जिन्हें ध्यान में रखकर डालें अपना वोट

दल नहीं, देश चुनना है. इसलिए वे नहीं, हम चुनेंगे. इसलिए चुनाव नहीं, चयन करेंगे. इसलिए पुराना नहीं, नया चुनेंगे.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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2019 का आम चुनाव सामने आ खड़ा हुआ है. तारीखें भी घोषित हो चुकी हैं, और इस कदर क्षत-विक्षत घोषित हुई हैं कि लगता है यह बेहद घायल चुनाव होने जा रहा है. चुनाव आयोगों ने इस बात के लिए एक-दूसरे से जैसे स्पर्धा कर रखी है कि कौन सबसे लंबा चुनाव आयोजित करता है! हमारा लोकतंत्र शुरू वहां से हुआ था कि एक ही दिन में सारे देश का, और वह भी लोकसभा और विधानसभा का साथ-साथ चुनाव हो जाता था. आज एक ही राज्य में कई दौर तक चुनाव चलते हैं. अब चुनाव लोकतंत्र का खेल नहीं, सत्ताधारी दल की तिकड़मों का जोड़ बन गया है.

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यह चुनाव नहीं, इसका नतीजा अहम होने जा रहा है. हर चुनाव में कोई जीतता है और कोई हारता है. लेकिन कभी-कभी ऐसे भी चुनाव आते हैं जिसमें दल नहीं, देश हारता या जीतता है. 2019 का चुनाव ऐसा ही चुनाव है. यदि यही सरकार फिर वापस लौटती है तो देश हारता है; यह सरकार वापस नहीं आ पाती है तो देश जीतता है. अगर ऐसा हुआ तो यह चुनाव 1977 के चुनाव के बराबर का ऐतिहासिक चुनाव हो जाएगा. 1977 के चुनाव ने दुनिया को पहली बार यह देखने व जानने का मौका दिया कि कोई लोकतंत्र, लोकतांत्रिक तरीके से किसी तानाशाही को पराजित कर सकता है. वोट को कैसे तलवार बनाया जा सकता है, यह 1977 ने हमें दिखाया था.

2019 के चुनाव में हम यह साबित कर सकते हैं कि सांप्रदायिकता की तानाशाही शक्तियों को भी लोकतांत्रिक तरीकों से हराया जा सकता है. हम यह साबित कर सकते हैं कि लोकतंत्र सिर्फ शासन-पद्धति नहीं, जीवन-शैली है जिससे कोई खिलवाड़ करे, यह हमें सह्य नहीं! हमने 1977 में भी यह नहीं सहा था, 2019 में भी नहीं सहेंगे. यह मुमकिन नहीं है. नामुमकिन है कि 2019 के चुनाव का नारा इसके अलावा कुछ दूसरा भी हो सकता है: दल नहीं, देश!

1977 में भी हमारे सामने यही सवाल था और हमने अपनी गहरी लोकतांत्रिक समझ का परिचय दिया था और पार्टी नहीं, देश चुना था. जो गलत है, नकली है, जो झूठा या मक्कार है, उसे नकारना धर्म है- पहला धर्म! हम गलत को इसलिए नहीं सहते रहेंगे कि हमारे पास सही का पक्का नक्शा नहीं है! गलत को  हटाना सही को खोजने का पहला कदम है. 1977 में हमने यही किया था और अपना लोकतंत्र बचाया था. 2019 में भी हमें यही करना होगा क्योंकि हम अपना लोकतंत्र खोना नहीं चाहते हैं.

अगर आप इस सरकार की वापसी चुनते हैं तो आप एक ऐसे दल को चुनते हैं जिसकी सारी संभावनाएं 2014-19 के पिछले पांच सालों में खत्म हो चुकी हैं. अब बचा रह गया है एक असफल व्यक्ति जिसने देश, संविधान, लोकतांत्रिक नियम-परंपराएं सबको ठेंगा दिखा कर, खुद को देश का पर्याय बनाने की कोशिश की है और हर बार, बार-बार नकली साबित होता रहा है.  2019 के चुनाव में जब आप अपना वोट डालने लगें तब जरा सावधानी रखिएगा कि आपको व्यक्ति नहीं, देश चुनना है. क्या कोई आदमी या दल देश से बड़ा हो सकता है? हिंदुस्तान अमर है, कोई दल या व्यक्ति नहीं.

यह खतरों से भरा चुनाव है 

पहला खतरा, यदि यही सरकार वापस लौटती है तो हमारे लोकतंत्र का वापस लौटना संभव नहीं होगा. क्या लोकतंत्र का मतलब लोकसभा या विधानसभा या प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठे लोग होते हैं? याकि लोकतंत्र का मतलब है संविधान द्वारा स्थापित  लोकतांत्रिक संस्थाओं के आपसी तालमेल से देश को चलाना? संविधान द्वारा निर्मित संस्थाएं ही वह आधार होती हैं जिन पर संसदीय लोकतंत्र की इमारत खड़ी होती है. ये संस्थाएं धीरे-धीरे जड़ पकड़ती हैं, विकसित होती हैं और अपने विकास-क्रम में नई लोकतांत्रिक संस्थाओं को जन्म भी देती हैं.

इस सरकार का लोकतंत्र में विश्वास नहीं है. यह सरकार और यह पार्टी उन हारे, पिटे और खारिज कर दिए गये लोगों का जमावड़ा है जिन्होंने अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक आदमी का दामन थाम रखा है. इस सरकार और इस पार्टी के मुखिया दो ऐसे आदमी हैं जो हमारी अदालती प्रक्रिया की लेट-लतीफी और जटिलताओं के कारण जेल से बाहर हैं. इनका जेल में नहीं होना प्रशासनिक तिकड़म और छल का प्रमाण है, न कि इनके निर्दोष होने का. हमारे गुजरात की बागडोर जब इनके हाथों में थी तब सरकारी-तंत्र का दुरुपयोग कर इन्होंने एक-एक कर उन सारे अपराधियों को बचाया था जो लूट-मार से ले कर हत्या तक के मामलों के अपराधी थे. बात इस हद तक गई कि आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि इनके कारण यह संभव ही नहीं रहा है कि गुजरात में किसी अपराध की निष्पक्ष जांच हो सके. इसलिए यहां के मामलों की सुनवाई गुजरात से बाहर हो. आजादी के 70 सालों में गुजरात के अलावा दूसरा कोई राज्य नहीं है कि जिसके माथे पर ऐसा कलंक लगा हो. क्या हम सारे देश को ऐसा ही बनता देखना चाहते हैं?

दूसरा खतरा, यदि यही सरकार वापस लौटती है तो भारतीय समाज का ताना-बाना अंतिम हद तक टूट जाएगा. अपने समाज के गठन पर आप एक नजर डालेंगे तो पाएंगे कि यह बुनावट ऐसी है कि कौन, कहां से शुरू कर, कहां तक गया है, यह पता करना असंभव-सा है. यह बेहद जटिलताओं के समन्वय से बना समाज है. इसकी बुनावट को खोल-खोल कर आप देखेंगे तो अनगिनत धागों का उलझा हुआ, एक बेहद जटिल संसार आपके हाथ लगेगा. यह इस कदर बिखरेगा कि आप इसे दोबारा जोड़ भी नहीं पाएंगे. ऐसा ही 1946-47 में हुआ था और तब जो हम बिखरे, वह घाव आज भी ताजा है, तकलीफ देता है और नासूर बनता जाता है. क्या पाकिस्तान अपने पूर्वी हिस्से को कभी जोड़ पाएगा? जो एक बार टूटा वह फिर जुड़ता नहीं है. भारत आज तक जुड़ा नहीं; पाकिस्तान अब कभी जुड़ेगा नहीं; सारा सोवियत संघ ऐसा बिखरा है कि कभी एक होगा नहीं. इसलिए तोड़ने से बचो. यह सरकार फिर से वापस लौटी तो यह देश को अस्थरता में की आग में धकेल देगी. समाज को काबू में रखने के दो ही तरीके हैं: इसे खंड-खंड में बिखेर कर, एक से दूसरे को लड़ाते हुए इसे काबू में रखो या फिर इन्हें एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता रख कर चलने के लिए प्रशिक्षित करो ताकि फिर किसी पाकिस्तान या द्रविड़स्तान या खालिस्तान या कुछ और की आवाज न उठे. यह सरकार पहले वाले रास्ते पर चलने वालों की सरकार है.

तीसरा खतरा, यदि यही सरकार वापस लौटती है तो वे सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं एक-एक कर खत्म कर दी जाएंगी जो एक-दूसरे पर नियंत्रण करती हुई लोकतंत्र की हमारी गाड़ी को चलाती हैं. हमारे संविधान ने ऐसी एक कारीगरी की है कि जिसमें हमारी सारी व्यवस्थाएं अपने में स्वायत्त भी हैं और एक बिंदु से आगे एक-दूसरे पर अवलंबित भी हैं. यह परस्परावलंबन ही लोकतांत्रिक अनुशासन है. विधायिका एकदम स्वायत्त है कि वह कानून बनाए. नौकरशाही स्वायत्त है कि वह उसे देश में लागू करे. लेकिन विधायिका का बनाया हर वह कानून खारिज किया जा सकता है जो न्यायपालिका की संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतरता हो.

न्यायपालिका संविधान की रोशनी में हर तरह का फैसला करने का अधिकार व सामर्थ्य रखती है लेकिन उसका कोई भी फैसला संसद पलट सकती है और न्यायपालिका को वह कबूल कर ही चलना होगा. रिजर्व बैंक, कैग, सीबीआई, संसदीय समितियां, चुनाव आयोग, प्रसार भारती, समाचार संस्थान, टीवी आदि के साथ भी यही सच है. ये बाधाएं नहीं, लोकतांत्रिक अनुशासन हैं. यह सरकार इनको अपने रास्ता का रोड़ा समझती है और इन्हें तोड़ने में लगी है. ये संस्थाएं जिस हद तक टूटी हैं, उस हद तक लोकतंत्र कमजोर हुआ है. आगे लोकतंत्र ही टूट जाएगा.

चौथा खतरा, यदि यही सरकार वापस लौटती है तो बड़ी पूंजी, बड़े कारपोरेट, बड़े निवेश, बड़े बाजार, बड़े घोटाले सब मिल कर हमें लूट लेंगे और झूठे आंकड़ों का जाल बिछा कर यह सरकार हमें छलती रहेगी. व्यक्ति हो या पार्टी, यदि झूठी व नकली हो तो वह जुमलेबाजी का सहारा लेती है, क्योंकि उसके पास कहने या करने को सच्चा या आस्थावान दूसरा कुछ होता नहीं है. यह सरकार जबसे आई है जुमलेबाजी की फसल ही काटती रही है जिससे आज सारे देश में झूठ और नक्कालों की बन आई है. कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र ऐसी सरकार कैसे बर्दाश्त कर सकता है?

पांचवां खतरा, यदि यही सरकार वापस लौटती है तो शासन ही नहीं, समाज में भी एकाधिकारशाही मजबूत होती जाएगी. दुनिया में जहां-जहां भी किसी व्यक्ति को दल-संविधान-कानून-परंपरा आदि से बड़ा बनाया गया है, वहां-वहां लोकतंत्र खोखला होता गया है. इसका नतीजा? वह एक व्यक्ति समाज के हर स्तर पर अपनी ही तरह के छुटभैये खड़े करता है ताकि लोगों के बीच हमेशा विग्रह, असंतोष, आमना-सामना और खूनी संघर्ष का वातावरण बना रहे. यह अकारण नहीं है कि पिछले 5 सालों में भारतीय संस्कृति के नाम पर, हिंदुत्व के नाम पर, गाय के नाम पर, मंदिर के नाम पर, राष्ट्रीयता के नाम पर, फौजी स्वाभिमान के नाम पर और जातीय श्रेष्ठता के नाम पर कितनी ही बहादुर सेनाएं देश में खड़ी हो गई हैं.

इस सरकार में और संसद में ऐसे लोग भरे पड़े हैं कि जिनकी कुल योग्यता एक व्यक्ति की एकाधिकारशाही को मजबूत बनाना है. ऐसी भीड़ दिल या दिमाग से नहीं, फेफड़े के जोर से चलती है और अंतत: भीड़ की हिंसा को अपना अमोघ अस्त्र बनाती है. यह किसी की भी, कैसी भी असहमति को बर्दाश्त नहीं करने के लिए प्रशिक्षित की जाती है.

छठा खतरा, यदि यही सरकार वापस लौटती है तो सारे शिक्षण संस्थानों में उन्माद का राज होगा और शिक्षा का बेड़ा गर्क हो जाएगा. ऐसा इसलिए कि इनकी सारी पढ़ाई का मतलब एक ही है- युवाओं में उन्माद जगाना! यदि यह सरकार वापस लौटती है तो हमें स्कूलों-कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में विद्या की साधना करते युवा नहीं, अविद्या-अज्ञान-अंधविश्वास से लैश युवाओं की भीड़ मिलेगी.

इसलिए दल नहीं, देश चुनना है. इसलिए वे नहीं, हम चुनेंगे. इसलिए चुनाव नहीं, चयन करेंगे. इसलिए पुराना नहीं, नया चुनेंगे.

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