1967 में हुए चौथे आम चुनाव को दूसरी अहिंसक क्रांति कहा गया

ये आख़िरी बार था कि जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे.

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1962 में हुए तीसरे चुनावों की स्थिति पहले दो चुनावों से अलग नहीं थी और ये सिर्फ़ 10 दिनों में ही निपट गए. इस बार वोटरों की संख्या बढ़कर 21.6 करोड़ हो गई थी. पर हां, जहां 1952 और 1957 में कांग्रेस को 364 और 371 सीटें क्रमशः मिली थीं, 1967 में उसे 361 सीटें ही मिली. पहली बार वोट शेयर भी गिरकर 44.72% रह गया. हैरत की बात है कि जवाहर लाल नेहरू की अपार लोकप्रियता के बावजूद कांग्रेस का वोट शेयर कभी 50% के निशान को नहीं छू पाया. ये नेहरू के जीवन का आख़िरी चुनाव था पर भारतीय राजनीति में 1967 का आम चुनाव एक निर्णायक मोड़ है.

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अक्टूबर, 1962 को चीन ने भारत के साथ एकतरफ़ा युद्ध छेड़ दिया. देश बिलकुल भी तैयार नहीं था और हमें करारी हार मिली. चीन से मिले धोखे ने नेहरू को मानसिक रूप से तोड़ दिया. उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था. उनके ख़राब स्वास्थ्य और किसी अनहोनी की आशंका के चलते ‘नेहरु के बाद कौन’ प्रश्न राजनीति के हलकों में उठने लगा था. 27, मई 1964 को नेहरू का देहांत हो गया और कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज की कोशिशों से लाल बहादुर शास्त्री अगले प्रधानमंत्री नियुक्त हुए.

नेहरू के बाद भारतीय राजनीति हमेशा के लिए बदल गई. नेहरू के लोकतांत्रिक सरकार का सर्वेसर्वा होने के बावजूद कैबिनेट मंत्रिमंडल के सदस्य अपनी बात उनके सामने रख पाते थे और नेहरू मानते भी थे. उनके बाद लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री कार्यालय, जो ब्यूरोक्रेट्स का मजमा था, को तरजीह दी और इंदिरा गांधी के आने के बाद तो ‘इंदिरा ही कांग्रेस और कांग्रेस ही इंदिरा’ हो गया.

इंदिरा का उभार आसान नहीं था. शास्त्री की भी सेहत ख़राब रहती थी. वही प्रश्न था कि ‘शास्त्री के बाद कौन’. चर्चित पत्रकार कुलदीप नैयर, जो उन दिनों शास्त्री के मीडिया सलाहकार थे, ‘बियॉन्ड दी लाइन्स’ में लिखते हैं कि इस प्रश्न के जवाब में शास्त्री ने कहा था कि अगर उनकी मृत्यु कुछ समय बाद होती है तो यशवंत राव चह्वाण को प्रधानमंत्री बनाया जाए और अगर जल्द ही अनहोनी हो गई तो फिर इंदिरा गांधी को. शास्त्रीजी का देहांत 1966 में हो गया और कांग्रेस में कई दावेदार सर उठाने लगे. सबसे मजबूत नाम था मोरारजी देसाई का. इंदिरा ने काफ़ी मशक्कत के बाद पार्टी और देश के प्रधानमंत्री पद की कमान संभाली. साल 1967 के चौथे आम चुनाव इंदिरा काल में हुए.

चुनाव से पहले के हालात

ये तो तय है कि लोकतंत्र तभी कायम रह सकता है, जब हालात सामान्य हों. उस वक़्त देश में माहौल गड़बड़ा रहा था. शास्त्री के कार्यकाल में हिंदी को राजभाषा बनाये जाने से दक्षिण में आंदोलन उठे थे. नॉर्मन बोरलॉग की हरित क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी, पर देश में अनाज की भारी कमी थी. कुछ राज्यों में अकाल के हालात थे. कईयों के मुताबिक़ अनाज की कमी 67 के चुनाव में सबसे अहम मुद्दा था.

तीन साल के अंतराल पर दो युद्ध हो चुके थे, मुद्रास्फीति दर बढ़ी हुई थी. हिंदू ग्रोथ रेट (2.5% से 3%) की रफ़्तार से जीडीपी बढ़ रही थी. इंदिरा गांधी ने पहली बार रुपये का अवमूल्यन किया, पर यह भी कुछ ख़ास काम नहीं आया. जबलपुर और राउरकेला में दंगे हो चुके थे. उधर पूर्वोत्तर में मिज़ो आंदोलन की आग सुलग रही थी. ऐसे मुश्किल हालात में विदेशी राजनैतिक विश्लेषक कयास लगा रहे थे कि हिंदुस्तान में कानून व्यवस्था बिगड़ जाने से हिंसा उपजेगी और पाकिस्तान और बर्मा या अफ़्रीकी देशों की तरह यहां भी सेना का शासन या कोई अन्य वैकल्पिक व्यवस्था लागू हो सकती है.

आख़िरी बार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ हुए

कई राज्यों में बनने वाली कुछ सरकारें स्थिर न रह पाईं या कुछ को रहने न दिया गया. मसलन, 1959 केरल की कम्युनिस्ट सरकार को इंदिरा गांधी ने नेहरू के हाथों बर्खास्त करवा दिया था, इस वजह से वहां मध्यावधि चुनाव हुए. फिर ये बात भी ज़ोर पकड़ने लगी कि केंद्र और राज्य के मसले अलग-अलग होते हैं, इसलिए एक साथ चुनाव करने का कोई औचित्य नहीं है. दरअसल, इसके पीछे कांग्रेस की राज्यों में घटती लोकप्रियता थी.

ईपीडब्लू डा कोस्टा 1967 के योगेन्द्र यादव थे

ऐसा हम नहीं चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उनके बारे में कहा है. 2005 में गुहा ने द हिंदू अखबार में लिखे लेख में ज़िक्र किया है कि ईपीडब्लू डा कोस्टा ने देश के कुछ हिस्सों में घूमकर जनमत सर्वेक्षण कर बता दिया था कि कांग्रेस के गढ़ में दरार पड़ने जा रही है. डा कोस्टा ने कहा था 1967 का चुनाव हिंदुस्तान के इतिहास में दूसरी अहिंसक क्रांति होगी. पहली से उनका आशय गांधी द्वारा 1919 में शुरू किया गया असहयोग आंदोलन था. सर्वेक्षण के आधार पर उन्होंने कहा कि केंद्र में कांग्रेस सरकार तो बना लेगी पर उसका वोट शेयर तीन से चार प्रतिशत गिर सकता है, जो लगभग 50 सीटों का नुकसान है. वहीं मध्य प्रदेश, राजस्थान, केरल, उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और पंजाब में ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनने जा रही है. शायद ये पहला सर्वे था और लगभग चुनाव परिणाम डा कोस्टा के अनुमान के मुताबिक़ ही थे.

चुनावी आंकड़े

चौथे आम चुनाव सिर्फ़ एक हफ्ते (15 फ़रवरी से 21 फ़रवरी) में पूरे हो गए. क़रीब 25 करोड़ वोटरों ने 523 लोकसभा सीटों पर 2,369 प्रत्याशियों के लिए मतदान किया. इस बार मतदान प्रतिशत बढ़कर 61.33% रहा. साल 1962 के मुकाबले, कांग्रेस पार्टी का ग्राफ़ नीचे आ गया और उसे सिर्फ़ 283 सीटें ही मिलीं जो कि कुल सीटों का 54% ही था. विपक्ष ने 237 सीटें जीतीं जो इस प्रकार थींः ग़ैर-कांग्रेसी राष्ट्रीय पार्टियों ने 156, क्षेत्रीय दलों ने 39 और निर्दलीय उम्मीदवारों ने 42 सीटों पर जीत हासिल की. कांग्रेस पार्टी का वोट शेयर भी 4% टूटकर 40.8% रह गया. बिलकुल वही जो डा कोस्टा ने कहा था.

जहां पहले दो आम चुनावों में सबसे ज़्यादा सांसद वकील थे, 1967 में पहली बार 30% सांसद किसान पृष्ठ भूमि से थे. पहली बार 1962 में 4 और 1967 में 7 इंजीनियर भी चुनाव जीते. इतिहासकार बिपिन चन्द्र के मुताबिक़ 1967 के आम चुनावों के बाद से भारत के मध्यमवर्गीय और रईस किसानों का राजनीति में उभार शुरू हो गया था. उन्होंने कई गठजोड़ किये और अपने फ़ायदे के लिए राजनैतिक पार्टियों के साथ मोलभाव भी शुरू किया.

विधानसभा चुनाव और क्षेत्रीय पार्टियों का उदय

नेहरू की ग़ैरमौजूदगी और क्षेत्रीय राजनैतिक दलों का दबदबा हक़ीक़त बनकर पहली बार सामने आया था. इन चुनावों में छह राज्यों से कांग्रेस की सरकारों का सफ़ाया हो गया. साल 1959 में केरल की कम्युनिस्ट सरकार को इंदिरा गांधी ने जवाहरलाल नेहरू के रहते ही असंवैधानिक ठहराकर वहां राष्ट्रपति शासन लगवा दिया था. वहां कांग्रेस हार गई. उसका गढ़ माने जाने वाले तमिलनाडु में भी करारी हार हुई. वहां द्रविड़ मुनेत्र कझगम (डीएमके) ने 234 विधानसभा सीटों में से 138 जीतकर कांग्रेस सरकार का तख़्ता पलट दिया. वहां कांग्रेस का विरोध इतना ज़बर्दस्त था कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और मद्रास के भूतपूर्व मुख्यमंत्री कामराज भी हार गए.

पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और गुजरात भी कांग्रेस के हाथ से निकल गए. पर उत्तर प्रदेश का मसला उस साल सबसे दिलचस्प रहा. विधानसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और चंद्रभानु गुप्ता मुख्यमंत्री बने. पर एक महीने के अंदर ही किसान नेता चौधरी चरण सिंह ने 1967 में कांग्रेस पार्टी से विद्रोह कर दिया. उनके साथ कुछ कांग्रेस विधायक भी हो लिए और एक नयी पार्टी भारतीय क्रांति दल की स्थापना हुई, जिसके बड़ी संख्या में किसान समर्थक थे. जाट नेता चौधरी चरण सिंह का व्यक्तित्व इतना करिश्माई था कि छोटे और मंझोले किसान उनके साथ जुड़ते चले गए. उन्हें जाटों के अलावा यादवों ने भी अपना समर्थन दिया था.

इस फाड़ से राज्य में कांग्रेस की सरकार अल्पमत में आ गई और चरण सिंह ने कुछ अन्य पार्टियों के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाई. राम मनोहर लोहिया का प्रयोग सफल रहा और कांग्रेस राज्य में कमज़ोर होती चली गई. अफ़सोस ये है कि उसी साल अक्टूबर में लोहिया चल बसे. वरना इतिहास आज कुछ और भी हो सकता था.

सार क्या है?

देखा जाये तो 1967 का आम चुनाव कई कारणों से भारतीय राजनीति में वाटरशेड मोमेंट कहा जा सकता है. पहला ये कि अल्पसंख्यक वर्ग का कांग्रेस से मोहभंग हुआ, जो पार्टी के कमजोर होने का एक बहुत बड़ा कारण था. दूसरा ये कि क्षेत्रीय दलों का दबदबा शुरू हो गया, जो अब एक राजनैतिक हक़ीक़त है. तीसरा, विपक्ष ने पैर जमा लिया था. चौथा, 1969 में कांग्रेस के दो फाड़ हो गए और इंदिरा गांधी पार्टी की दो फाड़ करने के बाद भी अल्पमत में रहते हुए अन्य विपक्षी पार्टियों के साथ मिलकर अपनी कुर्सी बचाने में सफल रहीं.

ईपीडब्लू डा कोस्टा ने अपने विश्लेषण के सार में कहा था- “प्रत्याशियों के लिए ये महज़ शक्ति संघर्ष हो सकता है. राजनैतिक वैज्ञानिकों के लिए अतीत से टूटने की शुरुआत है, जो लगभग आधी सदी पहले शुरू हुई थी. ये अभी विद्रोह तो नहीं है पर आने वाले समय में ये संभवतः एक क्रांति बन जाएगी.” क्या 2019 भी किसी क्रांति की ओर इशारा कर रहा है? राजनीतिक पंडित इसे लेकर माथापच्ची कर रहे हैं. डा कोस्टा होते तो वो क्या कहते?

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