‘दरबारी बनना तो आपका फैसला है’

मनोज बाजपेयी से बातचीत का दूसरा और अंतिम भाग.

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मनोज बाजपेयी ने हिंदी फ़िल्मों में आयी नयी प्रतिभाओं पर बातें करते समय उन्हें सचेत भी किया है. उन्होंने राजनीति और कलाकार के संबंधों को समझने के लिए हंगरी के इस्तवान सबो की फ़िल्म ‘मेफिस्टो’ देखने की सलाह दी है. सत्ता और सरकार के क़रीबी होने की कोशिश कर रहे कलाकारों को उनकी सलाह है कि दरबार में जाइये, लेकिन दरबारी मत बन जाइये.

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कैसी खुशी होती है जब आप देखते हैं कि आपकी जोती हुई जमीन पर प्रतिभाओं की नयी फसल लहलहा रही है. सीधे शब्दों में पूछूं तो राजकुमार राव, आयुष्मान खुराना और विनीत कुमार जैसे कलाकारों को मिल रही प्रतिष्ठा को देखकर कैसा लगता है?

खुशी होती है, लेकिन मैं अभी इसे लहलहाना नहीं कहूंगा. हां, कुछ प्रतिभाएं अंकुरित हुई हैं. ताजा हरे पत्ते दिख रहे हैं, लेकिन अभी उन्हें मौसमों (तिरस्कार, अपमान और बहिष्कार) की मार झेलनी है. नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के ज़माने से लेकर हमारी पीढ़ी के इरफ़ान खान और केके मेनन समेत मैंने ख़ुद कभी फिट होने की कोशिश नहीं की. हम सभी ने अच्छा काम करना चाहा. हमने कभी एलीट लीग में फिट होने की कोशिश नहीं की और न कभी हमारी यह महत्वाकांक्षा रही. मैं नयी प्रतिभाओं के लिए यही कामना करता हूं कि वे भी ऐसी कोशिश न करें. आप जैसे ही एलीट लीग में शामिल होने की कोशिश करेंगे, आप बाकी सब से कट जायेंगे. आप जहां से आते हैं, वहां से कट जायेंगे. जहां से आप आये हैं, वहां से दूर जा चुके होंगे और एलीट आपको स्वीकार नहीं करेगा. अगर बड़ा काम करना है, तो अपनी धारा ख़ुद बनानी पड़ेगी.

ऐसा लगता है कि प्रशिक्षित कलाकारों ने अघोषित और अनायास तरीके से परफॉर्मेंस का तौर-तरीका बदल दिया है. इसे कभी रेखांकित नहीं किया गया और न ही अलग से कुछ लिखा गया. प्यारे मोहन सहाय और ओम शिवपुरी से लेकर राजकुमार राव तक ने हिंदी फिल्मों के परफॉर्मेंस के तौर-तरीके को प्रभावित किया है. मुख्यधारा के कलाकार उन तौर-तरीकों को अपना रहे हैं. पूरी अभिनय शैली बदल गयी है. क्या आप मुझसे सहमत हैं?

निश्चित ही परफॉर्मेंस की परिभाषा और परख बदल गयी है. रंगमंच से आये प्रशिक्षित कलाकारों ने इसे स्वभाविक रूप से बदला है. वे एक्टिंग की क्राफ्ट और स्किल के प्रति सजग रहे. वह हमारी प्राथमिकता रही है. मुख्यधारा के कलाकार इसे कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि वो कहीं से प्रभावित हुए हैं. वे हर चीज़ पर अपना नियंत्रण और वर्चस्व चाहते हैं. वे नये कौशल, तकनीक और शैली को अपनाकर उस पर कब्ज़ा करना चाहते हैं. उसे अपना बनाकर पेश करते हैं. नये तौर-तरीके को हथियाने का सिलसिला बहुत पुराना है. और ढेर सारे ऐसे लोग भी मिल जायेंगे जो लिखते और कहते रहेंगे- ‘हां… हां, यह उन्हीं का है.’

मुझे व्यक्तिगत रूप से इसमें कोई दिक्कत नहीं है. आप हमारे तौर-तरीके और कौशल सीखकर बेहतर काम करें तो अच्छी बात है. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. एक समय में नसीर और ओम पुरी ने अभिनय की शैली बदल दी. उसके बाद जो प्रशिक्षित कलाकार आये, उन्होंने अपने तईं बदला. यह प्रक्रिया चल रही है. आज नहीं तो कल जब हम अभिनय और उसके क्राफ्ट और स्टाइल की बात करेंगे, तो यह लिखा जायेगा. सारी चीज़ें सामने आयेंगी. प्रशिक्षित अभिनेताओं का प्रभाव पृष्ठभूमि में काम करता  है.

पिछले दस सालों में आये फ़िल्म अभिनेताओं की बात करें, तो इन्हें आरंभिक ट्रेनिंग प्रशिक्षित कलाकारों ने ही दी है. भले ही वे यह काम आजीविका के लिए करते हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि कथित स्टारों को कोई न कोई प्रशिक्षित अभिनेता तैयार करता है. मैंने तो सेट पर देखा है कि ऐसे स्टार अभिनेता अपने  गुरुओं के प्रति बेरुख़ी और बदतमीज़ी का प्रदर्शन करते हैं.

एक बात मान लीजिये कि वे जमींदार और जमींदार के बच्चे हैं. इन जमींदारों को पढ़ाने के लिए आये मास्टरजी की प्रतिष्ठा केवल प्रशिक्षण तक रहती है. गांव-देहात में तो जमींदार का बेटा गुरुजी के पांव भी छूता है. मुंबई में गुरुजी से हाय-हैलो और पप्पी-झप्पी होती है. प्रशिक्षण की फीस के साथ गुरु का आदर समाप्त हो जाता है. बाद में तो यह हो जाता है कि गुरु ही अपने शिष्यों को प्रणाम करते रहते हैं और उनसे लाभ की उम्मीद करते हैं. मैंने खुद देखा है के अभिनय के गुरु अपने शिष्यों को इस उम्मीद से ताकते रहते हैं कि वे उन्हें पहचान लें. एक्टिंग के ये सारे गुरु मध्यम और निम्न-मध्यम वर्ग के परिवारों से आते हैं और सभी की जड़ें गांव या छोटे शहरों में होती हैं.

पच्चीस सालों के अनुभव के बाद आज के सिनेमा के बारे में क्या कहेंगे? पिछले दो सालों में भाई-भतीजावाद की बात भी उभरकर सामने आयी है. आप क्या कहना चाहेंगे?

इसे तार्किक ढंग से देखना पड़ेगा. हर मामले के बारे में अलग तरीके से सोचना होगा. बाहर से आया कोई भी कलाकार फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित होने के बाद क्या रवैया अपनाता है? उसके बच्चे जब आयेंगे तो जाहिर तौर पर उन बच्चों को संघर्ष के उन चरणों से नहीं गुज़रना पड़ेगा. मैं बाहर से आया, कल को मेरी बेटी अगर फिल्मों में आती है, तो उसे मेरी तरह मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ेगा. इसकी क्या व्याख्या है? मेरी राय कुछ अलग है. मुझे लगता है कि फ़िल्म इंडस्ट्री को एक ऐसा सिस्टम विकसित करना चाहिए, जिसमें किसी भी आउटसाइडर को अधिक संघर्ष और अपमान न झेलना पड़े, बाहर से आनेवाले बच्चों के लिए चीज़ें आसान हो जाएं. नेपोटिज़्म का मसला बहुत बड़ा है. उतना ही बड़ा है आउटसाइडर का संघर्ष. ऑडिशन की लाइन में खड़े 70 फीसदी कलाकार या तो भूखे होते हैं या उन्हें पता नहीं होता कि अगला खाना कहां मिलेगा. फ़िल्म इंडस्ट्री को कहीं-न-कहीं यह भी सिस्टम डेवलप करना पड़ेगा, जहां सपने लेकर आये बच्चों को मालूम हो कि क्या वे वास्तव में एक्टर बनने लायक हैं? और जो एक्टर हैं, उन्हें इंडस्ट्री कैसे जल्दी-से-जल्दी अपना ले, नेपोटिज़्म के नाम पर किसी एक को जिम्मेदार ठहराकर हम इस बुराई से मुक्त नहीं हो सकते. हमें वह माहौल तैयार करना पड़ेगा, जहां बाहर से आये कलाकारों को समान अवसर मिल सके.

जब सारे लोग वैचारिक प्रतिबद्धता से अधिक स्वार्थ से परिचालित हो रहे हों, तो एक कलाकार अपनी भूमिका कैसे तय करे? कलाकार भी तो एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है?

जो भी कलाकार सत्ता के साथ जाकर स्वार्थ सिद्धि करना चाहते हैं, उन्हें मैं एक  फ़िल्म देखने की सलाह दूंगा. हंगरी में बनी इस फ़िल्म का नाम है ‘मेफिस्टो’. निर्देशक इस्तवान सबो की यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए. दिल्ली के दिनों में प्रगति मैदान के शाकुंतलम थिएटर में मैंने यह फ़िल्म देखी थी. इसमें बताया गया है कि राजनीति किसी भी कलाकार का उपयोग और दुरुपयोग कर उसे छोड़ देती है और फिर कलाकार कहीं का नहीं रह जाता है. राजनीतिक व्यक्तियों के क़रीब होने के पीछे कहीं-न-कहीं कोई स्वार्थ काम कर रहा होता है और वह स्वार्थ आपको आख़िरकार कहीं का नहीं छोड़ता है. कलाकार को हमेशा सत्ता से एक दूरी बनाकर रहना चाहिए.

अकबर के ज़माने से कलाकारों को नवरत्न के रूप में रखा जाता रहा है और उन्हें सुविधाएं दी जाती रही हैं. उसके पहले के भी उदहारण मिलते हैं. सत्ता और कलाकार की यह दोहरी प्रक्रिया है, जिसमें दोनों सतत प्रयत्नशील रहते हैं निजी लाभ के लिए…

अकबर हो या मध्यकाल के कोई और शासक, वे कलाकारों को अपने दरबार में इसलिए बिठाते थे कि उनकी शोभा बढ़ सके. समस्या तब होती है, जब कलाकार की नज़र राजा के गले के हार पर टिक जाए. कलाकारों को सत्ता और सरकार से सम्मान लेना चाहिए, लेकिन अपना काम करते रहना चाहिए, आप दरबार में जाएं ज़रूर, लेकिन दरबारी बनना तो आपका फैसला है. मैं सार्वजनिक तौर पर गैर-राजनीतिक व्यक्ति हूं. मेरे अपने विचार हैं. मेरी अपनी राजनीतिक समझ है और उन्हें मैं अपने दोस्तों से शेयर करता हूं.

फ़िल्म और काम के फ्रंट पर क्या चल रहा है? वैसे आपने बताया था कि इन दिनों आप विश्राम की स्थिति में हैं…

अभी ‘सोनचिड़िया’ आयी. कुछ महीनों में ‘भोंसले’ आयेगी. मैंने ‘द फैमिली मैन’ नाम से एक वेब सीरीज़ की है. उसे लेकर मैं बहुत उत्साहित हूं. यह सब पिछले साल का काम है. इधर अचानक एहसास हुआ कि शूटिंग पर जाना मेरे लिए 9 से 5 का जॉब बनता जा रहा है. ऐसी जॉब में मेरी कभी कोई रुचि नहीं थी और मैं अचानक उसी मकड़जाल में फंस गया. उसी एकरसता को मैंने तोड़ा और अभी मैंने कोई काम नहीं लिया है. पिछले 6-7 महीनों में मैंने आध्यात्म और परिवार पर ध्यान दिया है. शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान दे रहा हूं और परिवार का ख़्याल रख रहा हूं. अभी मेरी मां की तबीयत भी ठीक नहीं चल रही है. मेरी सास की तबीयत भी बहुत दिनों से ठीक नहीं रही. बेटी आवा बड़ी हो रही है और बहुत सारा समय चाहती है. रुटीन में आने से डर लगा कि मैं अपनी सेहत गंवा दूंगा और परिवार भी नाराज़ रहेगा. हम सभी पारिवारिक जीव हैं. सुबह छह बजे उठकर अपनी बेटी को तैयार करना, उसके टिफिन पर ध्यान देना, सुबह जागते ही उसकी डांट सुनना, उसे क्लासेज़ में लेकर जाना, बस पर चढ़ाना और रिसीव करने जाना, इन सब चीज़ों को बहुत इंजॉय कर रहा हूं.

आपकी देवाशीष मखीजा निर्देशितभोंसलेका राजनीतिक पक्ष है. उसमें माइग्रेंट के मसले को संवेदनशील तरीके से छुआ गया है. फ़िल्म क्यों नहीं रिलीज़ हो रही?

मेरी अपनी राय है कि इस देश में हम सभी माइग्रेंट हैं. सभी अपने गांव-शहर से बेहतर जीवन और सपनों के लिए प्रवास करते हैं. अपने ही देश में हमें क्यों माइग्रेंट समझा जाता है. थोड़ी देर के लिए माइग्रेंट मान भी लीजिये, तो अपने ही देश के दूसरे राज्य में हम सभी पर पाबंदी कैसे लगायी जा सकती है. यह मेरा व्यक्तिगत विचार है. देवाशीष की फ़िल्म मराठी और उत्तर भारतीय किरदारों को लेकर इसी मुद्दे को संवेदनशील तरीके से पेश करती है. विषयवस्तु की वजह से इसे निर्माता नहीं मिल पा रहे थे. मुझे इस विषय और देवाशीष मखीजा पर भरोसा था. मैंने यत्न किया. लोगों को लगता रहा है कि इस फ़िल्म से एक राजनीतिक धड़ा नाराज़ हो सकता है. इन विषयों पर बात होनी चाहिए.

आपके व्यक्तित्व में एक आत्महंता पहलू है. ख़ुद को ही नष्ट करने का शौक… फ़िल्म, काम और प्रशंसा से घिरने पर आप खुद को ही पिन कर देते हैं?

सही निरीक्षण है आपका. मैं अपनी ही हवा निकाल देता हूं. फिर से तैयारी करता हूं. दरअसल, मैं ख़ुद का बहुत बड़ा आलोचक हूं. यह मेरी कला साधना का ही हिस्सा है. प्रशंसा से घिरने पर समस्याएं पैदा होने लगती हैं. अपनी कमजोरी दिखनी बंद होने लगती है और लोगों की अपेक्षाएं अलग ढंग से बढ़ने लगती हैं. कुछ लोग आपके प्रयास को इस अर्थ में नज़रअंदाज करने लगते हैं कि अरे मनोज बाजपेयी हैं तो बेहतर काम करेंगे ही. यह वाक्य और यह धारणा मुझे बहुत परेशान करती है, क्योंकि फिर मेरे काम पर आप ध्यान नहीं दे रहे होते हैं. उसमें आपकी रुचि नहीं रह जाती है. मेरे काम के प्रयास के नयेपन पर आपका ध्यान नहीं जाता है. यही वजह है कि मैं ख़ुद को पिन मारता हूं. अपनी तारीफ़ को ही रिजेक्ट कर देता हूं. फिर लोगों का ध्यान जाता है.

नयी प्रतिभाओं में किसमें संभावनाएं दिख रही हैं. ढेर सारे कलाकार आ गये हैं.

‘भोंसले’ में इप्सिता चक्रवर्ती सिंह ने मेरे साथ काम किया है. वह बहुत ही अच्छी कलाकार है. वह एनएसडी से आयी है. गुलशन देवैया का नाम लूंगा. उन पर मीडिया की नज़र नहीं है. एक्टर की परेशानी उसके अंदर है. एक लड़का है संतोष जुवेकर… अभी मैंने अनुज माथुर का काम देखा, वह बहुत अच्छे हैं. जिम्मी शरब बहुत अच्छे कलाकार हैं. मिर्जापुर में विक्रांत मेसी को देखा. उम्दा कलाकार हैं.

निर्देशकों में किन का नाम लेंगे.

वासन बाला… हम दोनों को साथ काम करना है. उसकी दो फ़िल्में बन चुकी हैं और मैं दोनों में नहीं हूं. अभिषेक चौबे को तो अब सभी जानते हैं. देवाशीष मखीजा के साथ अभी मैंने फ़िल्म की है.

लेकिन आप अनुराग कश्यप के साथ फिर कब आयेंगे?

मैं ख़ुद उसका फैन हूं, लेकिन वह पागल आदमी है. उसके दिमाग में कोई घंटी बजेगी, तो वह जरूर आयेगा. मैं उसके सपनों को कभी रोकना नहीं चाहता. जब उसकी धार मेरी तरफ मुड़ेगी, तो मैं उसे मौजूद मिलूंगा. हम दोनों ने मिलकर हमेशा लैंडमार्क काम किया है.

मेफिस्टो

हंगरी के निर्देशक इस्तवान सबो की फ़िल्म ‘मेफिस्टो’ को 1981 में अकादमी अवार्ड मिला था. विदेशी भाषा की श्रेणी में उस साल यह सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म मानी गयी थी. ‘मेफिस्टो’ कलाकार और सरकार के संबंधों को लेकर रची गयी कहानी है. जर्मनी के प्रांतीय इलाके से आया नायक धीरे-धीरे अपनी पहचान स्थापित करता है और उसे प्रतिष्ठा मिलती है. बोल्शेविक विचारों से प्रभावित नायक थिएटर में क्रांतिकारी तत्वों का समावेश करता है और उसे मजदूरों और आम नागरिकों के बीच ले जाता है. इस बीच जर्मनी के चुनाव में नाज़ी पार्टी की जीत होती है. सत्ता में आते ही उनका अंकुश बढ़ता है. नायक भी खौफ़ज़दा होकर पलायन करता है. नाज़ी सरकार के प्रधानमंत्री नायक की लोकप्रियता से वाकिफ़ हैं और नेशनल थिएटर की ज़िम्मेदारी दे देते हैं. उसे सरकार का प्रवक्ता भी बना दिया जाता है. यहां तक कि शेक्सपियर के नाटक ‘हैमलेट’ के मंचन की अनुमति भी दी जाती है. इस आज़ादी के बीच नायक को अंदाज़ा तो होता है कि अब वह पहले की तरह स्टैंड नहीं ले पा रहा है. उसके आग्रह पर उसके कुछ दोस्तों की जान बख्श दी जाती है और उन्हें बाइज्ज़त देश निकाला दिया जाता है. नायक इस भ्रम में है कि वह अपने दोस्तों की मदद कर पा रहा है. एक प्रिय दोस्त के गायब होने के बारे में वह जब पता करना चाहता है, तो उसे जबर्दस्त डांट पड़ती है. फिर उसकी समझ में आता है कि वह तो सत्ता के द्वारा इस्तेमाल कर लिया गया. इस्तेमाल करने के बाद सत्ता उसे लगभग विक्षिप्तावस्था में लाकर लाचार कर देती है. सत्ता और कलाकार के संबंध पर नाज़ी जर्मनी के दौर की यह फिल्म आज की भारतीय स्थिति में समीचीन और प्रासंगिक लगती है. यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए.

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