सिंधिया का गुना: तुम मुझे वोट दो, मैं तुम्हें गरीबी दूंगा

आम लोगों ने बड़ी उम्मीदें लगाकर दशकों तक सिंधिया घराने का साथ दिया, लेकिन बदले में उन्हें हाथ लगी बेरोज़गारी, ग़रीबी, मुफ़लिसी और मायूसी.

WrittenBy:प्रतीक गोयल
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राहुल गांधी ने हाल ही में गरीबी को जड़ से मिटाने के लिए न्याय नामक एक नयी योजना लागू करने का चुनावी वादा किया है. अगर कांग्रेस इन चुनावों के बाद सरकार बनाने की स्थिति में आती है, तो इस योजना की सबसे ज्यादा ज़रूरत राहुल गांधी के करीबी सिपहसालार ज्योतिरादित्य सिंधिया के लोकसभा क्षेत्र में गुना में पड़ने वाली है. हमारी इस विस्तृत ग्राउंड रिपोर्ट में गुना लोकसभा क्षेत्र की कुछ ऐसी ही निराशाजनक तस्वीर उभरकर सामने आयी है.

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ग्वालियर राजघराने के वंशज ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली युवा नेताओं में देखा जाता है. वे बीते 17 सालों से ग्वालियर से 200 किलोमीटर दूरी स्थित गुना लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व करते आ रहे हैं. यूपीए के पिछले शासनकाल में वो ऊर्जा मंत्रालय, सूचना प्रौद्योगिकी और वाणिज्य जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभालते रहे हैं. लेकिन विकास और समृद्धि के उनके वादे हक़ीक़त से दूर महज़ कागजी बनकर रह गये.

2018 में आयी नीति आयोग की रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक़, गुना देश के सबसे अधिक पिछड़े जिलों में से एक है. सिंधिया के संसदीय क्षेत्र के दायरे में अशोक नगर जिला और शिवपुरी व गुना जिलों के कुछ हिस्से आते हैं. लेकिन जिस संसदीय क्षेत्र के लोगों ने अपनी निष्ठा दिखाते हुए 2002 से हर बार ज्योतिरादित्य को अपने प्रतिनिधि के तौर संसद भेजा, और जिसने उसके पहले उनके पिता माधवराव सिंधिया को चुनाव में अपना समर्थन दिया, वह क्षेत्र विकास के जुमले से दूर अभी भी निरक्षरता, कुपोषणजनित मृत्यु, पानी की कमी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़ा और तमाम मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है. यह सिर्फ एक झलक भर है.

सरकारी नज़रअंदाजी के भुक्तभोगी सहरिया जनजाति के लोग भी हैं, जिनकी पूरे इलाके में काफ़ी तादाद है. ट्राइबल सब प्लान के तहत अबतक करोड़ो रुपये खर्च किये जा चुके हैं, फिर भी इस जनजाति के लोग बेहद दयनीय स्थिति में जी रहे हैं. लेकिन सहरिया जनजाति के लोगों ने भी सिंधिया परिवार के उम्मीदवार को वोट देना जारी रखा, क्योंकि ग़रीबी का दंश झेल रहे इस समुदाय में यह भाव गहरे तक पकड़ बनाये हुए है कि वह इस ‘साम्राज्य’ की ‘प्रजा’ है और उसे राजघराने को वोट देकर अपनी वफ़ादारी दिखानी चाहिए.

पिछले साल ख़बरें आईं थी कि शिवपुरी के मझेरा गांव में सहरिया समुदाय के 92 लोगों की टीबी व सिलिकोसिस की वजह से मृत्यु हो गयी. पीड़ितों में से अधिकांश पत्थर की खदानों में बंधुआ मज़दूर थे. तत्कालीन कलेक्टर को भेजी गयी रिपोर्ट यह बयान करती है कि हालात कितने ख़तरनाक हो चुके हैं, इस पूरे इलाके में न तो रोज़गार का कोई और ज़रिया है, न ही किसी तरह की कोई स्वास्थ्य सुविधा ही उपलब्ध है.

इसके बावजूद, साल 2014 में एक भाषण में सिंधिया ने कहा, “शिवपुरी (उनके संसदीय क्षेत्र का एक हिस्सा) का विकास इस तरह से किया जायेगा कि लोग पेरिस से आयेंगे और इसके विकास का अनुकरण करेंगे.” न्यूज़लॉन्ड्री ने चुनावी वायदों की हकीक़त जानने और ज़मीनी हालात का जायजा लेने के लिए गुना संसदीय क्षेत्र के कुछ गांवों का दौरा किया.

गोपालपुर

शिवपुरी जिले के कोलारस ब्लॉक में पड़ने वाला गोपालपुर गांव. 48 वर्षीय रामवती आसपास के इलाके में काफ़ी चर्चित हैं व अपनी बिरादरी के हक़ में आवाज़ उठाने के लिए जानी जाती हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने उनके गांव जाकर उनसे मुलाक़ात की. रामवती ने बताया, “सिंधिया ने अपना हाथ मेरे माथे पर रखते हुए मुझसे कहा- आप मेरी मां जैसी हैं. मैं पूरी कोशिश करूंगा कि आपके गांव की तकलीफ़ें दूर हो जाएं.” लेकिन हुआ कुछ नहीं है. वो केवल वादे करते हैं और भूल जाते हैं. मैं उनसे कई बार मिल चुकी हूं और मैंने दशकों से कांग्रेस को वोट दिया है, लेकिन हमारे लिए कुछ नहीं बदला.”

गोपालपुर की आबादी तकरीबन 400 है. जब न्यूज़लॉन्ड्री ने गांव का दौरा किया, तो 80 फ़ीसदी घरों में ताला लटका हुआ था. क्योंकि उनमें रहने वाले लोग मज़दूरी के लिए राजस्थान या उत्तर प्रदेश गये हुए थे.

रामवती ने अपने बड़े बेटे राकेश को पिछले चार सालों से नहीं देखा है. वो कहती हैं, “हमारे पास न तो ज़मीन है, न ही भूमिहीन मज़दूर के तौर पर करने को पर्याप्त काम है कि हमारा गुज़ारा हो सके. मेरा बेटा मज़दूरी करने हैदराबाद गया था ताकि कुछ कमाई हो सके.”

गोपालपुर के रहने वाले लोगों को आसपास के गांवों में बमुश्किल महीने भर काम मिल पाता है, वो भी 10 घंटे के काम की दिहाड़ी मात्र 150 रुपये. फिर उनकी मज़बूरी बन जाती है कि काम की तलाश में दूसरे शहर या राज्य की तरफ़ जाएं. रामवती बताती हैं, “हमारे गांव के 300 से ज़्यादा लोग अपने बच्चों के साथ मेहनत-मज़दूरी के लिए बाहर गये हैं.”

रामवती का दूसरे बेटे महेश (उम्र 22 साल) ने कम्प्यूटर एप्लीकेशन में डिप्लोमा कर रखा है. आगे पढ़ पाना उसके लिए संभव नहीं है, क्योंकि परिवार की माली हालात उतनी ठीक नहीं है. उसे शिवपुरी में कोई काम नहीं मिल सकता, क्योंकि “कहीं रोजगार के अवसर ही नहीं है. रोजी-रोटी के लिए उसने भी आगरा और धोलपुर में निर्माण स्थलों पर मज़दूरी करना शुरू कर दिया है.

गांव वाले आदिवासी समाज से आते हैं, लेकिन वन अधिकार कानून के बावजूद उनके पास अपनी ज़मीन नहीं है. रामवती कहती हैं, “हमारे पूर्वज पास के ही गांव पिसनारी की टोरिया में 50 सालों से खेतीबारी करते आ रहे थे, लेकिन ज़मीन अभी भी हमारी नहीं है. वहीं पास ही एक झील है, लेकिन दबदबा रखने वाले या बड़े किसानों को ही उसका पानी इस्तेमाल करने दिया जाता है. वन विभाग हमें इसकी अनुमति नहीं देता.” रामवती कहती हैं कि उन्हें फसलों की कटाई के वक़्त भी सरकारी महकमे के नखरे झेलने पड़ते हैं. “हम अगर काम के सिलसिले में ट्रैक्टर या थ्रेसर मालिकों को भी बुलाएं तो वे इसमें भी पैसे खाते हैं. फलस्वरूप फसलों की कटाई-मड़ाई के वक़्त इनके मालिक हमारे काम आने से मना कर देते हैं.”

वो कहती हैं कि उन्होंने सिंधिया को कुपोषण से लेकर बेरोजगारी तक, तमाम मुद्दों से बार-बार अवगत कराया है, “हर बार वो कहते हैं- ‘आपका काम हो जायेगा’ और कुछ नहीं होता. वो किसानों और आदिवासियों की मदद बात करते हैं और इतने बड़े नेता होने के बावजूद भी करते कुछ नहीं हैं.”

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गोपालपुर की एक और समस्या आवास से जुड़ी हुई है. गांव वालों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर आवंटित हुए, कुछ को तो यह मिलने में भी साल भर लग गये, लेकिन उनके खाते में अभी तक पैसे नहीं आये हैं. आदिवासी समुदाय से संबंध रखने वाली चालीस वर्षीया गौरी भी उनमें से एक हैं. उनके पति पत्थर की खदानों में पत्थर तोड़ने का काम करते थे और तभी उन्हें टीबी का संक्रमण हुआ और तीन साल पहले उनकी मृत्यु हो गयी.

गौरी अपने खपरैल वाली झोपड़ी, जहां वो अपनी 6 साल की बेटी के साथ रहती हैं, की तरफ इशारा करती हैं. उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत दो बरस पहले मकान आवंटित हुआ था, लेकिन इसे बनाने के लिए दी जानेवाली एक लाख बीस हज़ार की रकम उन्हें आज तक नहीं मिली. गौरी बताती हैं, “मैंने कलेक्टर के दफ़्तर, तहसील के बीसियों बार चक्कर लगाये, लेकिन किसी ने मेरी अर्ज़ी पर गौर नहीं किया. दफ़्तर के क्लर्क और चपरासी मुझसे कहते हैं कि जो पैसे तुम्हें दिये जाने थे, वो किसी और के खाते में चले गये.”

परेशान होकर गौरी ने सिंधिया (जिन्हें उनके संसदीय क्षेत्र के लोग सिंधिया महाराज कहते हैं) के सामने अपनी बात रखी. “हमने महाराज से कई बार अपनी तकलीफ़ें साझा की. हर बार हमें उनकी तरफ से आश्वासन मिला, लेकिन नतीज़ा कुछ नहीं निकला. वो इतने बड़े आदमी हैं, वो चाहें तो चुटकियों में हमारी तकलीफ़ें दूर हो सकती हैं. हम चुनाव में हमेशा उनके साथ खड़े रहे हैं और हम इस बार भी यही करेंगे, लेकिन उन्हें हमारे लिए थोड़ा-बहुत तो करना ही चाहिए.”

इसी तरह का एक मसला यहां के निवासियों के सामने राशन कार्ड का है. आदिवासी समाज से ही आने वाली राजकुमारी के पति ने उन्हें और दो बच्चों को छोड़ दिया. अब राजकुमारी अपने परिवार का राशन कार्ड बनवाने के लिए जूझ रही हैं. “मेरे पास न राशन कार्ड है, न घर है न ही रोजगार है. मैं फसलों की कटाई-मड़ाई के वक़्त मज़दूरी करके अपना परिवार चलाती हूं. हमारे लिए जीना मुश्किल हो गया है. नेता जब भी हमारे गांव आते हैं, हमें हर चीज़ का भरोसा देकर जाते हैं. लेकिन एक बार चुनाव ख़त्म हो जाए, तो फिर उनको हमारे हालात से रत्ती भर भी फ़र्क नहीं पड़ता.”

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जब हम इन आदिवासियों के गांव से लौटने लगे तो गांव वालों ने अपनी झोपड़ियों के साथ उनकी तस्वीर लेने को कहा, इस उम्मीद से कि उनके दुःख, उनकी तकलीफ़ों को देखकर सिंधिया या फिर दूसरे नेता कुछ जरूरी कदम उठायेंगे. रामवती कहती हैं, “जनता से ही राजा-महाराजा बनते हैं. हम सिंधिया महाराज को लंबे समय से वोट देते रहे हैं. लेकिन अब हम हार गये हैं. यदि चीज़ें इसी तरह रहने वाली हैं तो वह दिन भी आयेगा जब लोग उन्हें वोट देना ही बंद कर देंगे.”

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कुम्हरौवा कालोनी

शिवपुरी के कुम्हरौवा कालोनी की कहानी बहुत अलग नहीं है. कुम्हरौवा कालोनी 3-4 किलोमीटर के दायरे में फैली बंज़र ज़मीन से घिरा एक छोटा-सा गांव है. अधिकांश ग्रामीण राजस्थान या गुजरात में मिलों में मज़दूरी करने या निर्माण-स्थलों पर काम करने जाते हैं.

70 वर्षीय कलिया बाई न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में बताती हैं, “हम चुनाव में सिंधिया परिवार का साथ देते हुए एक दिन ख़त्म हो जाएंगे, पर हमारे लिए शायद कुछ बदलने वाला नहीं है. हमारे पास रहने की ठीक से जगह नहीं है. हमारे बच्चों को काम की तलाश में दूसरे शहर या राज्य जाना पड़ता है. हमारे पास टुकड़ा भर भी ज़मीन नहीं है, न ही हमारे पास ज़मीन है, न ही पानी है.”

कलिया बाई यहां पचास से भी अधिक सालों से रह रही हैं. वो बताती हैं कि उनकी दशा हमेशा से ऐसी ही रही है और आने वाले वक़्त में सूरत बदलेगी, इसकी भी उन्हें उम्मीद नहीं है. “सिंधिया महाराज को हमारी हालत पता है, लेकिन वो कुछ नहीं करते. हम सिर्फ़ वोट बैंक हैं उनके लिए, इससे ज़्यादा कुछ नहीं.”

कुम्हरौवा कालोनी में 600 की आबादी की प्यास बुझाने के लिए सिर्फ़ एक हैंडपंप है. एक दूसरा हैंडपंप भी था, लेकिन वह तकरीबन साल भर पहले ख़राब हो गया. पंचायत को ख़बर दी गयी, लेकिन कोई कार्रवाई न हुई. कलिया बाई कहती हैं कि गर्मी के दिनों में यह इकलौता हैंडपंप भी काम नहीं करता. गांव वालों को पानी के लिए डेढ़ किलोमीटर दूर कुएं तक जाना पड़ता है.

गांव के ही प्रकाश सहरिया ने बताया कि सरकार ने ग्रामीण इलाकों के लिए तमाम नीतियां बनायी हैं, लेकिन उससे उन्हें कोई फायदा नहीं होता है. “यहां कुछ घरों में बिजली का कनेक्शन है और हमारे गांव में एक पक्की सड़क है, लेकिन मुझे नहीं लगता यहां रहने वालों की नज़र में यह विकास है. 600 के लगभग ग्रामीणों में 25 से भी कम आदिवासियों के पास ज़मीन का पट्टा है. बाकी काम की तलाश में दूसरे राज्यों में जाते हैं. इलाके में पानी की भयंकर किल्लत यह बताती है कि जिनके पास ज़मीन है वे भी खेती-बड़ी के लिए बारिश पर ही निर्भर हैं. गांव के आसपास की ज़मीन बंज़र है और पानी के लिए एक ही हैंडपंप है,” सहरिया कहते हैं.

वो आगे कहते हैं- “हम फिर भी उन्हें ही वोट देंगे, यह जानते हुए भी कि वे हमारे किसी काम नहीं आयेंगे.”

सत्रह वर्षीय प्राण सिंह बताते हैं कि कुम्हरौवा कालोनी में रहते हुए उसकी पढ़ाई छूट गयी, क्योंकि अक्सर यही होता था कि शिक्षक पढ़ाने ही नहीं आते थे. वह जोधपुर गये और दालमिल में काम करने लगे और अभी छुट्टी पर वापस आये हैं. “मुझे दिन के 300 रुपये मिलते हैं और मैं वहां पिछले दो साल से काम कर रहा हूं. हमारे लिए यहां कोई अवसर नहीं है, इसीलिए हमें काम की तलाश में दूर जाना पड़ता है.”

प्राण की ही तरह 20 वर्षीय अजमेर सिंह भी जोधपुर में काम करते हैं. वो बताते है, “मेरे जैसे ज़्यादातर बच्चे इसलिए पढ़ाई नहीं पूरी कर पाते, क्योंकि शिक्षक पढ़ाने ही नहीं आते. कुछ मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजते ही नहीं. लेकिन कोई बच्चा अगर पढ़ना भी चाहे, तो जब शिक्षक ही न आयें तो धीरे-धीरे उसकी भी इच्छाएं ख़त्म हो जाती हैं.” न्यूज़लॉन्ड्री ने 8 साल के लवकुश से बात की. लवकुश गांव के ही स्कूल में पढ़ते हैं. उन्होंने बताया, “हमारे स्कूल में कुछ शिक्षक सोते ही रहते हैं.”

आदिवासी समुदाय के ही गिलंडे, जिनका 19 वर्षीय बेटा कालीराम निर्माण-स्थल पर मजदूरी करता है, कहते हैं कि नेताओं को सिर्फ़ वोट की भूख है. “वे कहते हैं कि आपका काम करेंगे, लेकिन वे ऐसा कभी नहीं करते. प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकान पाने की पात्रता रखने के बाद भी हमारे गांव में लोगों के पास रहने को घर नहीं है. पिछले साल सिंधिया पक्की सड़क का उद्घाटन करने हमारे गांव आये और तुरंत चले गये.”

न्यूज़लॉन्ड्री ने शिवपुरी के गांव माजरा दिघोड़ी के एक प्राइमरी स्कूल का दौरा किया और पाया कि पहली से पांचवीं कक्षा के बच्चे एक छोटे से कमरे में साथ बैठकर पढ़ते हैं. नाम न बताने की शर्त पर कक्षा अध्यापक ने बताया, “हमारे पास सारी कक्षाएं अलग-अलग चलाने के संसाधन नहीं हैं. हमने बच्चों की तादाद भी कम कर रखी है, इसलिए हम उन्हें एक ही क्लास में पढ़ाते हैं.”

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गुग्वारा

पानी की किल्लत ने शिवपुरी के गुग्वारा गांव के लोगों को इस हद तक बेबस कर दिया है कि लोग गांव छोड़कर जाने लगे हैं. गुग्वारा में एक हैंडपंप भी नहीं है. यहां रहने वाले लोग एक बड़े जोत वाले किसान के ट्यूबवेल से पानी लाते हैं और कहते हैं कि वह उसकी उदारता के लिए कृतज्ञ हैं.

33 वर्षीय गीता बाई ने न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में बताया, “गांव का हैंडपंप सूख रहा है, इसलिए हम लगभग ढाई किलोमीटर दूर के गांव के एक किसान के ट्यूबवेल से पानी लाते हैं. मुझे नहीं पता हम गर्मी के दिन कैसे बितायेंगे.” 50 वर्षीय भानदेवी कहती हैं, “अगर हमें अपने घरों में पानी ही मिले, तो हम ख़ुश रह लेंगे. पानी की किल्लत हमारी सबसे बड़ी समस्या है.”

गुग्वारा में दिसंबर 2018 में पहली बार बिजली आयी. इस गांव की जनसंख्या 350 के क़रीब है और ज़्यादातर निवासी सहरिया जनजाति से हैं. अपने पड़ोसियों की तरह ये भी पानी की किल्लत के अलावा बेरोजगारी आदि दिक्कतों से जूझ रहे हैं.

आदिवासी समुदाय के सुरेश (41 वर्षीय) कहते हैं, “हमारे गांव में न तो पानी है, न ही रोजगार. यही वजहें हमें मज़बूर करती हैं कि हम आगरा, धोलपुर और ग्वालियर जैसे शहरों का रुख करें. लोग अपने परिवार के साथ जाते हैं और मज़दूरी करते हैं. इस विस्थापन की वजह से बहुतों की ज़िंदगी में तनिक खुशहाली आयी है, लेकिन हमारे पास कोई और विकल्प भी तो नहीं है. नहीं तो हमारे बच्चे भूख से तड़प-तड़प कर जान दे देंगे.”

गुग्वारा में आदिवासी समुदाय की नारायणी देवी (उम्र 60 बरस) के तीन बेटे थे. उनमें से दो की पत्थर की खदानों में काम करते वक़्त सिलिकोसिस से संक्रमित होने की वजह से जान चली गयी. उनकी विधवाएं और तीसरा बेटा सुगालाल व उसकी बीवी आगरा चले गये हैं. वो बताती हैं, “वे वहां आलू के खेतों में मज़दूरी करते हैं. उन्हें हर दिन 200 रुपये मिलते हैं और वे वहां इस तरह एक या दो महीने काम करते हैं. कुल मिला कर हमारा परिवार साल के 15,000 रुपये कमा लेता है.”

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जब उनके मां-बाप मज़दूरी पर निकलते हैं, तो नारायणी के तीन पोते और दो पोतियां उसके पास रहते हैं. वो कहती हैं, “एक परिवार के लिए ऐसे हालात में ख़ुद को ज़िंदा रख पाना कोई आसान काम नहीं. नेता हमारे दरवाज़े तक आते हैं, वोट के लिए हमारे सामने हाथ जोड़ते हैं. लेकिन वो ये नहीं समझते कि हम पर क्या बीत रही.”

धनवाड़ी कालोनी

सिंधिया के संसदीय क्षेत्र गुना के धनवाड़ी कालोनी में लोग जंगली कंदमूल पर गुज़र-बसर कर रहे, क्योंकि उनके पास इसके अलावा कोई साधन ही नहीं है. 62 वर्षीय चइयां बाई ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, “मेरे दो बेटे हैं. दोनों राजस्थान के छबड़ा जिले में ईंट भट्ठे पर काम करने चले गये. हमारे पास यहां कोई काम नहीं है. हम पुतली घाटी के जंगलों से गोंद, महुआ, तेंदुल पत्ता इकट्ठा करते हैं और अपनी रोजी के लिए इन्हें बेचते हैं.”

धनवाड़ी कालोनी में भी पानी की भयंकर किल्लत है. गांव में कोई कुआं नहीं है और हैंडपंप भी सिर्फ़ दो ही हैं, जो गर्मियों में पानी छोड़ देते हैं, इस वजह से गांववालों को पानी के लिए पास के गांव इकोडिया जाना पड़ता है. गांव-गांव की यही कहानी है. सिंधिया को इनकी समस्याओं के बारे में बताया गया था, उन्होंने गांववालों को सबकुछ सुधारने का आश्वासन भी दिया था, पर बदला कुछ नहीं.

48 वर्षीय बादल सिंह कहते हैं, “हमारे गांव में बच्चों के लिए स्कूल नहीं है. न तो करने को कोई काम है, न पानी है, भयानक बेरोज़गारी है, ऐसे में हम कैसे जिएं? लोग समझ सकते हैं कि हम अपने हालात के बारे में झूठ बोल रहे, लेकिन आप अपनी आंखों से देख सकते हैं कि हम किन हालात में रह रहे हैं.”

2017 में, पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने सहरिया समुदाय में व्याप्त कुपोषण की पड़ताल के लिए एक योजना की शुरुआत की थी, जिसके तहत आदिवासी महिलाओं के खाते में 1000 रुपये डाले जाने थे. हालांकि यह सच है कि धनवाड़ी कालोनी की महिलाओं के खाते में उसका एक पैसा भी नहीं आया है. बादल सिंह कहते हैं कि गोपालपुर, गुग्वारा, कुम्हरौवा कालोनी की ही तरह यहां भी सरकार की योजनाओं का लाभ लोगों को नहीं मिला है. “पंचायत स्तर के कर्ता-धर्ता ही भ्रष्ट हैं. वे उन नीतियों से रत्ती भर भी लाभ हम तक नहीं पहुंचने देते.”

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गरीबी और अशिक्षा के चलते सरकारी स्तर पर भ्रष्टाचार भी खूब है. 47 वर्षीय पतिया बाई कहती हैं कि यह 1000 रूपये लेने के लिए पंचायत सेक्रेटरी उनका राशन कार्ड रख लेता है. “साल भर पहले की बात है, हमारा राशन कार्ड ज़ब्त कर लिया गया था, तब से हमारे खाते में एक पैसा भी नहीं आया है.”

जीवनलाल बताते हैं कि वे सिंधिया को सरकार की नीतियों को अमली जामा पहनाने में पंचायत स्तर पर अधिकारियों द्वारा की जा रही धांधली के बारे की ख़बर करने गये. “मैं महाराज से कुछ बार सीधे मिला हूं, कुछ बार उनके निजी सहायक की मदद से. शायद वे किसी काम में व्यस्त रहे होंगे कि चीज़ें बदल न पायीं.”

डोंगन और मार की मऊ

न्यूज़लॉन्ड्री ने दोपहर की तेज़ धूप में गुना जिले के डोंगन गांव का दौरा किया. 7-8 बच्चे एक आम के पेड़ के चारों तरफ़ बने चबूतरे पर खेल रहे थे. इसी ग्रुप में 9 बरस का एक बच्चा भी था, जिसे हर कोई गूंगा कहकर बुला रहा था. उसके दादाजी कहते हैं कि किसी को उसका असल नाम ठीक-ठीक पता नहीं है. लेकिन यह बात सबको पता है कि यह छोटे कद का बुझी हुई आंखों वाला लड़का कुपोषण का शिकार है.

जब हम गूंगा के घर गये तो उसके पिता पास के ही खेत में काम करने गये थे. गूंगा की चाची कल्ली ने बताया, “मुझे भी नहीं पता कि इसका नाम क्या है, लेकिन वह और उसका भाई (देवराज) बचपन से ही कुपोषित हैं. उसके भाई के पैरों में विकलांगता है, जबकि गूंगा बोल नहीं सकता.” उसके 65 वर्षीय दादा दयाराम बताते हैं कि गांव में इसके जैसे और भी बच्चे हैं.

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जब हम डोंगन गांव से लौटने लगे तब पांचवीं क्लास में पढ़ने वाला एक बच्चा हमारे पास आया. उसके हाथ और पैर सामान्य नहीं थे, उसने कहा, “सर! मेरा नाम भी लिख लीजिये, मैं भी एक कमजोर बच्चा हूं.”

यहां से लगभग 4 किलोमीटर आगे मार की मऊ गांव में आदिवासी समुदाय के जनक (उम्र 50 बरस) रहते हैं. उनकी सबसे बड़ी समस्या पानी है. सहरना (सहरिया समुदाय का पुरवा) में एक भी हैंडपंप नहीं है. दो हैंडपंप हैं तो गांव से एक किलोमीटर दूर हैं. रोजाना हमारे 4-5 घंटे सिर्फ़ पानी लाने में चले जाते हैं.” 66 वर्षीय दक्खू बाई कहती हैं, “पानी की भयंकर किल्लत है. पीने के लिए पानी बचाने के लिए हम 3-4 दिन में एक बार नहाते हैं. गर्मियों में हालात और बिगड़ते ही हैं और तब हमें कुओं से पानी लाना पड़ता है.”

जनक की बहू गुड्डन की साल भर की एक बेटी है, जो कुपोषित है. वो बताती हैं कि एक आंगनबाड़ी कार्यकर्ता उनकी बेटी को पिछले महीने जिला अस्पताल ले गयी, जहां उसे 15 दिन तक भर्ती रखना पड़ा था. फिर भी उन्हें उसकी तबीयत में कोई ख़ास सुधार नहीं दिखता.

सहरिया समुदाय की मुश्किलें

2018 में आयी नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक़ गुना देश के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल है. शिवपुरी व गुना जिलों में कुपोषण से निपटने के लिए मुहिम चलाने वाली सामाजिक कार्यकर्ता उमा चक्रवर्ती ने पहली बार सहरिया समुदाय की इस दुर्दशा को उजागर किया था.

उमा कहती हैं, “वे बदतर हालात में जी रहे हैं. मई 2018 में हमने गुना जिले व शिवपुरी के पोहरी तहसील के लगभग बीसेक गांवों का सर्वे किया. हमने यह पाया कि 80 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों के नाम राशन कार्ड नहीं है. मनरेगा के तहत रोजगार पाने वालों की संख्या भी महज़ 0.01 प्रतिशत है जिसका सीधा सा मतलब है न तो जॉब कार्ड बने हैं न किसी को रोजगार मिला है.”

उमा के मुताबिक याही सारी स्थितियां मिलकर एक समय के बाद कुपोषण को जन्म देती हैं. “बीजेपी की पिछली सरकार में यही हालात थी. मुझे नहीं लगता कि पिछले 6 महीनों में कांग्रेस की सरकार में कोई ख़ास बदलाव हुआ है. चाहे वह ज्योतिरादित्य सिंधिया हों या यशोधरा राजे. स्थितियां बहुत निराशाजनक हैं.”

सरकारी आंकड़ों की बात करें तो 2017 में गुना में 501 व शिवपुरी में 628 बच्चों की पांच साल से कम उम्र में मौत हुई. ये बच्चे निमोनिया, डायरिया, बुख़ार, खसरा, और अन्य दूसरी बीमारियों की वजह से जी नहीं पाये.

पयर्टन स्थल से कूड़े के ढेर में तब्दील होती शिवपुरी

2014 में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने नगर पालिका चुनावों के दौरान भाषण दिया था. कांग्रेस के उम्मीदवार के लिए कैंपेन करते हुए उन्होंने यह दावा किया, “हम शिवपुरी को इस तरह विकसित करेंगे कि लोग पेरिस से देखने आएंगे और हमारा अनुकरण करेंगे.”

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शिवपुरी के शहरी इलाकों के अपने दौरे में न्यूज़लॉन्ड्री ने पाया कि दूर तक सड़कें खुदी हुई थीं. पूरे शहर को जहां-तहां से खोद डाला गया था और सात सालों से शहर की यही दशा थी. सीवर लाइन के असफल प्रोज़ेक्ट और सिंध जलवर्धन योजना की असफलता से शहर की यह गति हुई है. बीजेपी विधायक यशोधरा राजे सिंधिया ने यह दावा किया कि अपनी सीमाओं में ये प्रोज़ेक्ट उनके व्यक्तिगत प्रयासों से शुरू हुए. स्थानीय लोगों का मानना है कि प्रोज़ेक्ट असफ़ल रहे, जिसकी वजह से एक शहर जहां लोग कभी घूमने आते थे अब कूड़ाघर बन गया है.

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शिवपुरी के एक सामाजिक संगठन पब्लिक पार्लियामेंट के सदस्य प्रमोद मिश्रा ने शिवपुरी में सिंध जलवर्धन योजना की असफलता पर एक विरोध-प्रदर्शन की अगुवाई की थी. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में कहा कि दुनिया आगे बढ़ती है, हम (शिवपुरी और उसके लोग) पीछे जा रहे हैं.

वो कहते हैं, “शिवपुरी की सबसे बड़ी समस्याओं में से वाटर प्रोज़ेक्ट था. उससे निपटने के लिए 2007 में सिंध जलवर्धन योजना पास हुई जिसके तहत शहर से 32 किलोमीटर दूर सिंधु नदी से पानी लाया जाएगा.” वे आगे कहते हैं कि प्रोज़ेक्ट दोशियान नामक कंपनी को दिया गया जिसने माधव नेशनल पार्क के करीब से गुजरने वाली सड़क की पाइपलाइन बिछाने के लिए खुदाई करते हुए सारे नियम-क़ायदों को ताक पर रख दिया. “2015 में हमारे हाथ कुछ दस्तावेज़ लगे जिनके मुताबिक़ प्रोज़ेक्ट पर काम 2012 में ही रोक दिया गया था. तब हमने 15 जून, 2015 को भूख हड़ताल शुरू किया.”

मिश्रा कहते हैं कि 10 जुलाई, 2015 को ज्योतिरादित्य सिंधिया, यशोधरा राजे आदि लोगों ने उनसे यह वायदा किया कि शहर में अगले 6 महीने में पानी की दिक्कत नहीं रहेगी. लेकिन अब तक कुछ न हुआ है.

इस दौरान 2012 में सीवर प्रोज़ेक्ट पर काम शुरू हुआ, इस प्रक्रिया में पूरे शहर की खुदाई शुरू हो गयी. प्रोज़ेक्ट की शुरुआत यह कहते हुए हुई थी कि जब सिंधु नदी का पानी शिवपुरी की ज़रूरतों के लिए यहां लाया जाएगा तब इसकी ज़रूरत पड़ेगी. अब इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं कि यह प्रोज़ेक्ट भी अधर में लटक गया है.

निराश होकर पब्लिक पार्लियामेंट ने शिवपुरी की मौजूदा हालत से रूबरू कराने के लिए वीडियो क्लिप तैयार की और ज्योतिरादित्य सिंधिया के सामने उसकी स्क्रीनिंग की गयी. मिश्रा कहते हैं कि जब कभी हमने उनसे इस मसले पर बात करनी चाही उन्होंने हमको वही जवाब दिया, “हमने योजना तो बनायी लेकिन बीजेपी काम में बाधा डाल रही है. यूपीए के शासनकाल में वो कैबिनेट मंत्री थे. वे बहुत प्रभावशाली नेता हैं. इस तरह के जवाब केवल शिवपुरी के विकास में अरुचि को दिखाते हैं.”

पेशे से ठेकेदार, शिवपुरी के रहने वाले सौमित्र तिवारी कहते हैं कि कस्बे की हालिया स्थिति 6 महीने पहले की तुलना में बहुत ठीक है. “6 महीने पहले तो शहर नर्क बना हुआ था. यह देश का सर्वाधिक गंदगी युक्त क़स्बा था. हवा में धूल का स्तर इतना ज़्यादा है कि हर तीसरा आदमी टीबी या सांस की बीमारी  का शिकार हो रहा. शिवपुरी के लोग पिछले 12 सालों से पानी आने का इंतज़ार कर रहे हैं. वो पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं. योजनाएं आ रही हैं लेकिन उनको लागू नहीं कर पा रहे, क्योंकि ज़मीनी स्तर पर उनकी मॉनिटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं है.” वो कहते हैं भयानक बेरोजगारी भी फैली हुई है.

तिवारी कहते हैं कि शिवपुरी कांग्रेस इकाई के नेताओं के पास भी ज्योतिरादित्य सिंधिया का निजी नम्बर नहीं है. वो कहते हैं, “उन्हें उनके निजी सहायक को फोन करना पड़ता है और फिर दो दिनों तक जवाब का इंतज़ार करना पड़ता है. अगर तत्काल कोई ज़रूरत हो तो ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है पूरे इलाके में जिसके पास उनका निजी नंबर हो. यह दशा है इन राजाओं- महाराजाओं की. हमारे क़स्बे का क्या विकास करेंगे वो?”

यहीं के रहने वाए 31 वर्षीय रानू रघुवंशी कहते हैं कि अगर सिंधिया को रेटिंग दी जाए तो आंकड़े बेहद नकारात्मक होंगे. “हर साल शिवपुरी में पानी के नाम पर करोड़ों का घोटाला होता है. 1996 में शिवपुरी की सभी पत्थर की खदानों में काम बंद था. उस वक़्त 90,000 से ज़यादा लोगों ने एक झटके में अपना रोजगार गंवाया था. तबसे इस इलाके में कोई रोजगार योजना नहीं लाई गयी है.”

राजनीतिक विश्लेषक हरिहर निवास शर्मा का कहना है कि सिंधिया परिवार का कोई भी सदस्य कांग्रेस या बीजेपी के उम्मीदवार के तौर पर सिर्फ़ राजभक्ति की वजह से चुनावी मैदान में फतह हासिल कर लेता है. उनका कहना है, “यह निष्ठा सिंधिया राजघराने के प्रति है.” हालांकि लोगों में, ख़ास तौर पर युवाओं में इस परिवार से अब गहरा मोहभंग होने लगा है. इस इलाके में अंततः विकास के मुद्दे को जल्द ही राजनीतिक रंग मिलेगा.

इन तमाम लोगों की शिकायतों और समस्याओं के मद्देनजर हमने यह जानने का प्रयास किया कि इस लोकसभा सीट के जन प्रतिनिधि ज्योतिरादित्य सिंधिया क्या कहते हैं. फिलहाल उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है. जैसे ही वो जवाब देंगे, उसे इस स्टोरी में शामिल किया जाएगा.

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