कॉन्सपिरेसी थियरी के मकड़जाल में फंसी हुई ‘द ताशकंद फाइल्स’

तथ्य और तर्क की बजाय प्रचलित अटकलबाजियों में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत की कहानी कहती फ़िल्म.

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सबसे पहले फ़िल्म के रोमन नाम से आप इसे ‘ताशकेंट’ न लिखें या बोलें. सोवियत संघ के दौर से ही हम इसे ‘ताशकंद’ कहते-लिखते रहे हैं. ‘ताशकंद’ हमारे ज़हन में रहा है, क्योंकि वहां भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का आकस्मिक निधन हुआ था. साल 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद सोवियत संघ की मध्यस्थता से ‘ताशकंद समझौता’ हुआ था. 10 जनवरी, 1966 को हुए इस समझौते की रात ही लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हो गयी थी. चूंकि इस आकस्मिक मृत्यु पर कभी विस्तृत चर्चा नहीं हुई और वर्तमान इतिहास का यह अध्याय बंद नहीं हुआ है, इसलिए रह-रहकर यह सवाल उठता रहा है कि लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हृदयगति रुकने से हुई थी, या उनकी हत्या हुई थी? अगर हत्या हुई तो उसके पीछे कोई न कोई साज़िश रही होगी.

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यही सवाल विवेक अग्निहोत्री को मथता रहा है. वे झल्लाहट और झुंझलाहट के साथ थोड़ी जल्दबाजी में इस फ़िल्म में दिखते हैं. उन्होंने आज के संदर्भ में इसे जोड़ते हुए कुछ साक्ष्यों के आधार पर इसे खंगालने की कोशिश की है. उन्होंने इस काम के लिए युवा रिपोर्टर रागिनी फूले (श्वेता प्रसाद बसु) का सहारा लिया है. रागिनी एक अख़बार में पॉलिटिकल रिपोर्टर है. उसे डेडलाइन के अंदर कोई हंगामाखेज़ स्टोरी करनी है, ताकि वह अपनी नौकरी बचा सके. रिपोर्टरों पर प्रेशर रहता है, लेकिन विवेक अग्निहोत्री ने जिस तरह से दिखाया है वह किसी और दुनिया की बात लगती है.

बहरहाल, एक अज्ञात स्रोत से रागिनी को लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत से संबंधित कुछ कागज़ात मिलते हैं. उनके आधार पर लिखी उसकी स्टोरी से ऐसा हंगामा होता है कि सरकार को एक जांच समिति गठित करनी पड़ती है. श्याम सुंदर त्रिपाठी की अध्यक्षता में गठित इस समिति में इतिहासकार आयशा अली शाह (पल्लवी जोशी), गंगाराम झा (पंकज त्रिपाठी), रॉ के अनंत सुरेश (प्रकाश बेलवाड़ी) आदि के साथ रिपोर्टर रागिनी को भी शामिल किया जाता है.

पूरी बातचीत और बहस लाल बहादुर शास्त्री की मौत को संदिग्ध बना देती है. सभी पक्षों पर बातचीत होती है. सभी के पास अपने तर्क, कारण और सवाल हैं, लेकिन एक रागिनी के अलावा किसी के पास साक्ष्य नहीं हैं. रागिनी अज्ञात सूत्र (बिग बॉस टाइप) से मिली सूचनाओं के आधार पर ताशकंद जाकर साक्ष्य बटोरती है. फ़िल्म में स्पष्ट इशारा केजीबी की ओर है और अपरोक्ष इशारे भारत में कांग्रेस पार्टी और उसके नुमाइंदों पर है. अपनी बहस और साक्ष्यों के बाद भी रागिनी (यहां विवेक अग्निहोत्री) मौत की परिस्थितियों का पर्दाफाश नहीं कर पाती. वे संदेह और संभावनाओं की बात कर यह सवाल तो उठा देते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री की मौत सामान्य नहीं है. लेकिन इसके आगे की बात बताने में फ़िल्म असमर्थ है. उसके बाद सरकार और संबंधित पार्टी की चुप्पी इस संदेह को और गाढ़ा करती है.

बात यहीं नहीं रुकती. रागिनी को केजीबी के वसीली मित्रोखिन की किताब ‘द मित्रोखिन आर्काइव’ मिलती है. कहते हैं कि केजीबी के अभिलेखागार में कार्यरत मित्रोखिन ने केजीबी के अनेक दस्तावेज़ लंदन पहुंचा दिये थे. यह सोवियत संघ के विघटन के बाद हुआ था. किताब के मुताबिक 1975-76 के दौरान सोवियत संघ ने भारत में केजीबी के गुप्तचर नियुक्त किये थे, जिनमें कुछ तो केंद्रीय सरकार में मौजूद थे.

फ़िल्म दिखाती है कि तत्कालीन प्रमुख नेता को इसके ज़रिये भारी राशि पहुंचायी गयी थी. हालांकि इन तथ्यों की लिखित जानकारी देने के बाद एक पंक्ति में यह भी बताया गया है कि यह तथ्य अभी तक सत्यापित नहीं हुआ है. यही इस फ़िल्म की कमज़ोरी है. दर्शक के मन में यह वाजिब सवाल पैदा हो सकता है कि असत्यापित तथ्यों और हवालों से किये गये तर्क पर बनी फ़िल्म के ज़रिये वह लाल बहादुर शास्त्री की मौत के बारे में क्या राय बनाये, वह भी 53 साल बाद.

फ़िल्म ज़ोर देकर कहती है कि शास्त्रीजी की मौत हत्या थी, लेकिन उस हत्या के साक्ष्य उनके पास नहीं है. यही इस फ़िल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी है कि वह जिस राज़ से पर्दा उठाने की बात करती है या फिर जिस राज़ के ज़रिये कमाई करने की योजना बनाती है, उस राज़ को ही सामने लाने का कोई पुख्ता ज़रिया नहीं है इसके पास.

शास्त्रीजी की मौत के 10 सालों के बाद केजीबी ने भारत में क्यों रुचि ली? फ़िल्म में इसका चलताऊ हवाला भर है. फ़िल्म किसी क्रोनोलॉजिकल ऑर्डर में कड़ियों को पिरोने की बजाय असंबद्ध तरीके से अपनी बात कहती है. एक साथ कई सारी गल्प-सत्य को कहने की कोशिश करती है, मसलन शास्त्रीजी की मौत के बाद वैज्ञानिक भाभा की मौत, उनके रसोइये और डॉक्टर की सड़क दुर्घटना में मौत, भारत के संविधान की उद्देशिका में समाजवाद शब्द घुसाना…फ़िल्म इसी तरह से बार-बार विषयों पर कूदती रहती है. अचानक मौत के सवालों और साक्ष्यों से कूद कर संविधान और तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी के मक़सदों की बातें करने लगती है. फ़िल्म का सारा बोझ परिस्थितिजन्य तर्कों पर टिका है, इसमें शोर है और सब कुछ पुरज़ोर है, लेकिन फ़िल्म किसी खास निष्कर्ष तक नहीं ले जाती.

शास्त्रीजी के मौत के रहस्य से पर्दा उठाने निकले विवेक अग्निहोत्री बीच में ही संविधान और समाजवाद पर अटक जाते हैं. वे भारतीय संविधान की उद्देशिका पर सवाल उठाने लगते हैं. इसी मोड़ पर फ़िल्म विवेक के राजनीतिक मंतव्य की चुगली करने लगती है. उनकी राय में आपातकाल के दौर में सत्ताधारी पार्टी ने ज़ुल्म के साथ देश की राजनीति में भारी तब्दीली की, जिससे हम तबाही की कगार पर जा पहुंचे. एक तरह से यह ख़ास राजनीतिक सोच की धारणा है, जिसे संविधान की पंथनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द चुभते हैं. इसकी समस्या ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ से है.

इन सीमाओं के बावजूद विवेक अग्निहोत्री ने एक ऐसी बात कहने की कोशिश की है, जिस पर अभी तक सिर्फ कयास और अटकलें ही उपलब्ध थीं. उन्होंने कुछ सवाल उठाये हैं. अगर फ़िल्म से इतर उन पर बात हो, तो हम दुविधा और दुरभिसंधियों से बाहर निकलेंगे. बतौर फ़िल्म ‘ताशकंद फाइल्स’ बेहद कमज़ोर कोशिश है, लेकिन अपुष्ट वैचारिक हस्तक्षेप के लिहाज़ से यह उल्लेखनीय है.

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