अख़्तरी: आज़ादी के आर-पार फैली एक शख़्सियत का अफ़साना

‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ की सबसे बड़ी खासियत है कि आप इसे किसी उपन्यास या ललित निबंध की तरह पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने तक एक-दो बैठकी में ही पढ़ जायेंगे.

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बॉयोपिक, बॉयोग्राफी और ऑटोबॉयोग्राफी के निजी और व्यक्तिवादी दौर में ‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ को पढ़ना निहायत अलग अनुभव से गुजरना है. ‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ बेग़म अख़्तर की जिंदगी और गायिकी के किस्सों से भरी पड़ी है. लेकिन यह आत्मकथा या जीवनी नहीं है. यह बेग़म अख़्तर का जीवन चरित भी नहीं है. चरित और चालीसा की अंधश्रद्धा से अलग यह देश की आज़ादी के आर-पार शक्ल लेती उस अज़ीम शख़्सियत की कहानी है, जिसने अपनी ज़िद और जतन से नामुमकिन और मुश्किल सफ़र तय किया. वह पैदा तो एक तवायफ़ के घर हुई, लेकिन अपनी मां की हिदायतों और साज-संभाल के साथ बड़ी होने पर बेग़म अख़्तर कहलाई. आज दुनिया जिस गायिका को बेग़म अख़्तर के नाम से जानती है, वह कभी अख़्तरी बाई फैजाबादी के नाम से मशहूर थी. लखनऊ के हजरतगंज के पास उनका खास ठिकाना था. अपनी जमात से अलग बसर रहा उनका और असर से तो हम सभी वाकिफ़ हैं.

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यह किताब यतीन्द्र मिश्र ने बड़े यत्न से तैयार की है. हम खुशकिस्मत हैं कि हिंदी समाज के पास यतीन्द्र मिश्र जैसे संपन्न और सुविज्ञ लेखक हैं, जो संगीत जगत की हस्तियों की ख्याति, विरासत और परंपरा को 21वीं सदी की पीढ़ी के पाठकों के लिए सहेज रहे हैं. यतीन्द्र मिश्र के लेखन की संपूर्णता अपने विषय के तमाम पहलुओं को समेटने के साथ उन पक्षों को उकेरती और उभारती है, जो संबंधित प्रतिभा की खासियत है या हो सकती है. यतीन्द्र मिश्र ने लता मंगेशकर, सोनल मानसिंह, बिस्मिल्लाह खान और गिरिजा देवी पर विस्तृत और सघन काम किया है. मृदुभाषी और मिलनसार यतीन्द्र मिश्र की व्यक्तिगत खूबियां उनके लेखन में खूब झलकती हैं. वह पाठकों पर अनुभव और ज्ञान का बोझ नहीं डालते. उन्हें आतंकित नहीं करते. वे पाठकों को साथ लेकर चलते हैं. यूरोप के सिटी गाइड की तरह वे प्राचीन वास्तुओं की सभी ईटों से वाकिफ़ और सभी पोरों में फंसे किस्सों के जानकार मालूम होते हैं. लेखन में उनका यही पक्ष कोमल, आत्मीय और स्निग्ध अनुभव देता है. उनके लेखन में आते ही हर शख़्सियत की अंदरूनी हैसियत ज़ाहिर होने लगती है.

‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ की सबसे बड़ी खासियत है कि आप इसे किसी उपन्यास या ललित निबंध की तरह पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने तक एक-दो बैठकी में ही पढ़ जायेंगी/जायेंगे. इसे पढ़ते समय मैंने बेग़म अख़्तर की प्लेलिस्ट चला दी थी और धीमी आवाज़ में उन्हें सुनता रहा. उनकी आवाज़ और अफ़साने की यह संगत पुरअसर माहौल रचने में सफल रही. पढ़ते समय संगीत से दिक्कत नहीं होती हो तो आप इसे आजमा सकते हैं. और हां, मोबाइल को साइलेंट मोड में रखने की सलाह दूंगा, क्योंकि वह अध्ययन-पाठन का घनघोर विरोधी साधन है. यों इस किताब को पढ़ते हुए आप ऐसे रम सकते हैं कि आपको ख़ुद मोबाइल हाथ में लेने की इच्छा ना हो.

यतीन्द्र मिश्रा ने ‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ के अध्यायों को शायराना शीर्षक दिये हैं. ये शीर्षक मशहूर शायरों की ग़ज़लों के शेर से लिए गये है. इन ग़ज़लों को कभी न कभी बेग़म अख़्तर ने गाया हुआ है. पहला अध्याय -ज़िक्र उस परिवार का- मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शेर से लिया गया है-

ज़िक्र उस परिवार का और फिर बयान अपना
बन गया रक़ीब आख़िर था जो राजदां अपना

इस अध्याय में यतीन्द्र मिश्र ने बेग़म अख़्तर के जानकारों और परिचितों के संस्मरणात्मक और विवेचनात्मक लेख एकत्रित किये हैं. शिवानी, ममता कालिया और स्वयं यतीन्द्र मिश्र के साथ कुछ और हस्ताक्षरों के मूल हिंदी में लिखे लेखों में भाषा और सोच की मौलिकता और रवानगी है. उनके अलावा सलीम किदवई, शीला धर, रख्शंदा जलील आदि के अंग्रेजी लेखों के अनुवाद हैं. इन सभी लेखों और संस्मरणों में बेग़म अख़्तर के जीवन के विभिन्न पहलुओं को रेखांकित किया गया है. इन सभी ने बेग़म अख़्तर को जितना जाना और समझा, उतना पूरी आत्मीयता के साथ लिख दिया है. इनमें बेग़म अख़्तर के प्रति लगाव है. सभी उनकी गायकी और शख़्सियत से प्रभावित और आह्लादित हैं. बेग़म अख़्तर की गायकी में आये अंतरालों का ज़िक्र नहीं है. उनकी गायकी में कमी निकालने की कोशिश और ज़रूरत को यतीन्द्र मिश्र ने तरजीह नहीं दी है.

दूसरे अध्याय का शीर्षक है-

कोई यह कह दे गुलशन-गुलशन लाख बलाएं एक नशेमन,
काबिल रहबर काबिल रहजां दिल सा दोस्त न दिल सा दुश्मन.

जिगर मुरादाबादी की ग़ज़ल से ली गयी इस पंक्ति के अध्याय में बेग़म अख़्तर प्रसंग के अंतर्गत 26 व्यक्तियों ने लिखा है. इन लेखों और टिप्पणियों में उनके जीवन के विभिन्न प्रसंग हैं, जिनसे उनके बहुआयामी व्यक्तित्व की झलक मिलती है. उनकी सोहबत और मोहब्बत के रेशे यहां बिखरे पड़े हैं.

तीसरे अध्याय का शीर्षक फैज़ अहमद फैज़ की ग़ज़ल से है-

शाम ए फिराक़ अब ना पूछ आयी ओरा आके टल गयी
दिल था कि फिर बहल गया जां थी कि फिर संभल गयी

इस अध्याय में बेग़म अख़्तर की शिष्याओं शांति हीरानंद और रीता गांगुली से यतीन्द्र मिश्र ने लंबी बातचीत की है. बेग़म अख़्तर के रियाज़, आदत, पसंद- नापसंद और संगीत शिक्षा के तौर-तरीकों को समझने की कोशिश में यतीन्द्र मिश्र पाठकों को उनके शिष्याओं की सोहबत में रखते हैं, उनके जवाबों में पाठक ख़ुद को बेग़म अख़्तर के करीब पाते हैं. शांति हीरानंद और रीता गांगुली ने बेहिचक जवाब दिये हैं. खासकर रीता गांगुली के जवाब में रोचक प्रसंग है. कैसे उन्होंने सिद्धेश्वरी देवी की शिष्या होने के बावजूद रीता गांगुली को अपनाया और गायकी के गुर सिखाये.

आख़िरी अध्याय सुदर्शन फाकिर की ग़ज़ल से है-

अहले उल्फ़त के हवालों पर हंसी आती है
लैला मजनू के मिसालों पर हंसी आती है

इस अध्याय में बेग़म अख़्तर से आचार्य कैलाशचंद्र देव बृहस्पति की लंबी बातचीत और शुभा मुद्गल के उद्गार हैं. संगीत नाटक अकादमी के अभिलेखागार से ली गयी यह बातचीत पठनीय है. खासकर आज के लेखकों और साक्षात्कार करने वालों का यह इंटरव्यू पढ़ना चाहिए. उन्हें बेग़म अख़्तर का अंदाज तो मालूम होगा ही. साथ ही यह भी पता चलेगा कि अपने वक़्त के क्रिएटिव व्यक्ति से सवाल पूछते और जवाब सुनते समय कैसे धैर्य और आदर बरतना चाहिए. बेग़म अख़्तर ने ज़्यादातर जवाब चंद शब्दों में दिये हैं, लेकिन वे शब्द सारगर्भित और अर्थपूर्ण हैं. उनमें गहरी अभिव्यक्ति है.

यतीन्द्र मिश्र को इस पुस्तक के लेखन, अनुवाद, संकलन और संपादन में लंबा वक़्त लगा होगा. समर्पण भाव से उन्होंने बेग़म अख़्तर के सोज़ और साज़ के अफ़साने को पूरा किया है. पुस्तक में कुछ कमियां अखरती हैं. कुछ लेखों में तथ्यों और प्रसंगों का दोहराव है. ऐसा संभवत: परिचित प्रसंगों के बारे में अलग-अलग लेखकों के लिखने की वजह से हुआ है. मशहूर हस्तियों के कुछ किस्से आम होते हैं. उन्हें सभी जानते हैं. सामूहिक स्मृति के दोहराव से बचने के लिए संयम चाहिए और चाहिए थोड़ी निर्ममता. यतीन्द्र मिश्र के पास संयम तो है, निमर्मता नहीं है. संकलन और संपादन की एक बड़ी दिक्कत है कि योगदान के लेख मंगवा लिए जाने के बाद उसे रद्द करना या वापस लौटाना संभव नहीं होता. इस किताब के कुछ लेखों के अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में आज की चलन के मुताबिक़ अंग्रेजी के वाक्य विन्यास का ही पालन किया गया है. हिंदी में पढ़ते समय ऐसे वाक्य विन्यास मानस में अटकते हैं. हमें अर्थ और आशय तो मिल जाता है, लेकिन अध्ययन का प्रवाह टूटता रहता है.

‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ में आज़ादी के आर-पार जीवित और व्यस्त बेग़म अख़्तर की जिंदगी के हसीन किस्से हैं. इसमें किस्सागोई है. इन किस्सों से उत्तर भारत की तवायफ़ों और उनकी परंपरा को समझा जा सकता है. यह किताब बेग़म अख़्तर के बहाने आज़ादी के पहले और बाद के दौर की सामाजिक, सांस्कृतिक और एक हद तक राजनीतिक संदर्भ में एक औरत के काबिल और कामयाब होने की दास्तान है. बेग़म अख़्तर की गायकी तो सभी को मालूम है. उनकी जिंदगी का आंगन समतल नहीं था. फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और समझौता भी नहीं किया. परिवार की मर्यादा और हद में रहते हुए उन्होंने खुद के लिए खुला आसमान चुना और उसमें उन्मुक्त विहार किया. उनकी शोखी, हंसी और मुस्कुराहट के दीवानों का यह आलम था कि कोई उनकी आवाज़ की ‘पत्ती’ उभरने के इंतज़ार में महफिल से नहीं उठता था. बेग़म अख़्तर भी अपने दीवानों की क़द्र करती थीं.

इस पुस्तक को पढ़ने के बाद हम बेग़म अख़्तर की पसंदीदा ग़ज़लों और उनके शायरों को जान पाते हैं. बेग़म अख़्तर सही मायने में शायरों से इश्क़ करती थीं और उनके रिश्तों को जेवर की तरह संभालती थी. वह अपने दीवाने रसिकों को भी बेइंतहा प्यार करती थी और गायकी के लिए किसी हद तक जा सकती थीं. वह अपने समय की खास औरत थीं. बॉयोपिक फिल्मों के इस दौर में अगर कोई फिल्मकार उनकी जिंदगी को बड़े पर्दे पर उतारे, तो हमें ‘उमराव जान’ जैसी एक रोचक और सांस्कृतिक फिल्म मिलेगी. इस फिल्म में अवध के साथ आज़ादी के पहले के उत्तर भारत में मौजूद तवायफ़ों की परंपरा और उसकी शिफ्टिंग की मुकम्मल जानकारी मिलेगी.

बेग़म अख़्तर की पूरी डिस्कोग्राफी भी दी गयी है. तस्वीरें थोड़ी कम हैं.

पुस्तक : ‘अख़्तरी : सोज़ और साज़ का अफ़साना’
सम्पादक : यतीन्द्र मिश्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
मूल्य : 395 रुपये

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