नीतीश कुमार के लिए वाटरलू साबित हो सकता है यह चुनाव

एकला चलो से शुरू हुए नीतीश कुमार इस चुनाव में अपनी विश्वसनीयता के सबसे निचले धरातल को छू रहे हैं.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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नीतीश कुमार 12 फरवरी, 1994 का वह दिन कभी नहीं भूल सकते जब उन्होंने पहली बार बगावत का रास्ता चुना. काफी हिचकिचाहट के बाद नीतीश इस नतीजे पर पहुंचे थे कि अपने पुराने सहचर और चिर प्रतिद्वंद्वी तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद से अपना रास्ता अलग कर लेना चाहिए. लालू यादव को चुनौती देने के साथ ही वे एक महत्वाकांक्षी डगर पर निकल पड़े थे.

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पटना का गांधी मैदान 12 फरवरी, 1994 को हुई कुर्मी चेतना महारैली के जरिए नीतीश की बगावत का गवाह बनी.

नीतीश ने तब “भीख नहीं हिस्सेदारी चाहिये” का नारा देकर अपनी ही पार्टी के भीतर आत्मसम्मान के लिये विरोध का बिगुल बजाया था. तब जो रास्ता नीतीश ने पकड़ा वह उन्हें 10 साल के लम्बे अंतराल के बाद बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी तक ले गया.

इस घटना के 25 साल बाद 3 मार्च, 2019 का दिन कुछ अलग था. पूरा पटना शहर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के पोस्टरों से पटा हुआ था. उनके विरोधी लालू यादव चुनावी परिदृश्य से ओझल थे. इस बार गांधी मैदान में सजे स्टेज पर बैठे नीतीश कुमार के कंधे राजनीतिक मजबूरी में झुके हुए थे. हालात के आगे समर्पण की लकीरें उनके माथे पर खिंची हुई थीं.

अतीत में, “धूल में मिल जाऊंगा पर नरेंद्र मोदी से हाथ नहीं मिलाऊंगा”, जैसा आक्रामक बयान देने वाले नीतीश नौ साल बाद उन्हीं नरेंद्र मोदी के साथ चुनावी मंच साझा कर रहे थे. यह मंच 25 साल पहले के मंच से इस मायने में भी अलग था कि तब नीतीश आकर्षण के केंद्र में थे, इस बार वे बड़े नाटक में साइड कलाकार की भूमिका में थे. ऐसा मंच जहां हर ओर मोदी की जयकार थी और नीतीश कुमार उनकी छाया में ढंके हुए.

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पटना के गांधी मैदान में हो रही इस संकल्प रैली में हर ओर भगवा झंडे और कमल के निशान दिख रहे थे. भारतीय वायुसेना के पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक के बाद मोदी की तारीफों के कसीदे मंच से पढ़े जा रहे थे. “मोदी है, तो मुमकिन है” के नारों के बीच नीतीश के चेहरे पर असहज भाव की लकीरें अधिक स्पष्ट हो रही थीं.

लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री ने अगर इतना बड़ा समझौता किया है तो उसके पीछे का राजनीतिक गणित भी यहां की सियासी फ़िज़ां में साफ दिख रहा है.

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(कभी “धूल में मिल जाऊंगा लेकिन….” कहने वाले नीतीश को अब मोदी के साथ दिखने में कोई आपत्ति नहीं है. फोटो – हृदयेश जोशी)

“मोदी की लहर पर सवार”

एक वक्त सुशासन बाबू और विकास का प्रतीक बने नीतीश की छवि आज बिहार में धुंधली पड़ चुकी है. दूसरी ओर एक बड़े वर्ग में नरेंद्र मोदी का करिश्मा छाया हुआ है. खासतौर से राष्ट्रवाद के उफान को देखते हुये.

बिहार की राजधानी से लगी पटना साहिब लोकसभा सीट के टेकाबिगहा गांव में नौजवानों का जमावड़ा टीवी देख रहा है. टीवी पर मोदी का भाषण चल रहा है. मोदी ऐलान करते हैं– “मैं (पाकिस्तान को) छोड़ूंगा नहीं, घर में घुसकर मारुंगा.” यह सुनकर सारे लड़के ताली बजाते हैं.
यह बालाकोट एयर स्ट्राइक के कुछ दिन बाद का दृश्य है. टीवी चैनलों की युद्धोन्मादी कवरेज ने असर दिखाया है और मोदी की चमक साफ दिखती है.

“पाकिस्तान से निबटने के लिये ऐसा ही नेता चाहिये. पिछले 60 साल में कभी ऐसा लीडर मिला ही नहीं,” इन्हीं युवाओं के बीच 29 साल के प्रशांत हमें बताते हैं. बिहार के शहरों से गांवों तक हर ओर मोदी पर ऐसा भरोसा नीतीश कुमार की चुनावी ताकत बनता है.

पटना से कुछ किलोमीटर दूर छपरा के एक खुदरा व्यापारी दिलीप गुप्ता कहते हैं, “हमारा वोट तो मोदी के लिये ही है. उन्हीं के नाम पर मतदान करेंगे. आज देश-विदेश में कितना नाम हो रहा है मोदी की वजह से भारत का.”

बिहार के ग्रामीण इलाकों में भी इसका असर दिखता है. बहुत बड़े वर्ग के लिये नरेंद्र मोदी एक “मज़बूत नेता” का पर्याय हैं और कांग्रेस और गठबंधन के दूसरे घटक कमज़ोरी का प्रतीक. नीतीश पूरी तरह से मोदी की लहर पर सवार दिखते हैं.

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(पटना से करीब 60 किलोमीटर दूर बख्तियारपुर में नीतीश कुमार का पुश्तैनी घर, फोटो – हृदयेश जोशी)

पिछले करीब 14 सालों में नीतीश ने तमाम सामाजिक कल्याण योजनाओं और विकास कार्यों के ज़रिये जो भी ज़मीन तैयार की हो वह अब कमोबेश खिसक रही है. हर घर नल, हर घर बिजली, वृद्धावस्था पेंशन और स्कूली किशोरों को साइकिल जैसी योजनाओं ने किसी हद असर दिखाया लेकिन मुख्यमंत्री के तीसरे कार्यकाल में अब वह अपील नहीं रही. शिक्षा के मामले में नीतीश फेल रहे हैं, भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और क़ानून-व्यवस्था बद से बदतर हो रही है. आंकड़ों के मुताबिक अपहरण राज की वापसी भी हो रही है.

बिहार पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि पूरे राज्य में साल 2016 में सड़क पर लूटपाट की 1119 घटनायें हुईं वहीं 2018 में इनकी संख्या 1464 पहुंच गयीं यानी करीब 31 प्रतिशत बढ़ोत्तरी. इसी तरह बलात्कार की घटनायें 2016 में 1,008 से बढ़कर 2018 में 1,475 यानी 46 प्रतिशत से अधिक वृद्धि और अपहरण की घटनायें 2016 के 7,324 के मुकाबले 2018 में 10,310 हो गयीं, यानी अपराध 40 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है.

नीतीश के अपने पैतृक गांव बख्तियारपुर में 75 साल के अबू तैय्यब कहते हैं कि अपराध तेज़ी से बढ़ रहा है. “बूढ़े हों या बच्चे बाहर निकलने में डर लगता है. दो दिन पहले स्कूल जा रहे एक बच्चे को यहां बदमाशों ने उठा लिया. क्या अब बच्चे स्कूल भी नहीं जायेंगे?” तैय्यब पूछते हैं. इन हालात में कई लोग मानते हैं कि नीतीश को आने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी कुर्सी बचाने के लिये कड़ी मशक्कत करनी होगी.

“इन चुनावों में नीतीश खुद कोई फैक्टर नहीं हैं. शिक्षा, क्राइम और करप्शन जैसे मुद्दों को लें तो वह इन पर नाकाम दिख रहे हैं. उनका जादू ज़मीन से गायब है और पूरा लोकसभा चुनाव मोदी के नाम पर ही हो रहा है,” वरिष्ठ पत्रकार अमरनाथ तिवारी बताते हैं.

जल्दबाज़ी या मुनाफे का सौदा

लोकसभा के गणित में मोदी का साथ भले ही नीतीश को ताकत देता हो लेकिन कम से कम एक मामले में वह उन्हें बहुत निरीह भी बनाता है. बार-बार पाला बदलने वाले नीतीश आज एक रीढ़विहीन नेता के तौर पर नज़र आते हैं. कई लोगों को कहना है कि अगर उन्होंने थोड़ा संयम और संकल्प दिखाया होता तो 2019 के अगुवा नेता बन सकते थे.

“जेडीयू के समर्थकों को पता नहीं होता कि कल सुबह उनका नेता कहां होगा.” पटना में हुई 3 मार्च की संकल्प रैली में जेडीयू के एक स्थानीय नेता ने ये बात कही. तो क्या इस ढुलमुल रवैये ने नीतीश से एक बड़ा राजनीतिक अवसर छीन लिया है? इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा ने 2017 में राहुल गांधी पर कटाक्ष करते हुये कांग्रेस को बिना नेता की पार्टी और नीतीश कुमार को पार्टी विहीन नेता कहा था. तब गुहा का बहुचर्चित सुझाव आया था कि कांग्रेस पार्टी की कमान नीतीश को सौंप दी जानी चाहिये ताकि एक विशाल पार्टी और समर्थ नेता मिलकर नरेंद्र मोदी का विकल्प तैयार कर सकें. लेकिन इसके एक महीने के भीतर ही नीतीश अपनी पार्टी के साथ बीजेपी के खेमे में चले गये.

बाद में रामचंद्र गुहा ने एक इंटरव्यू में कहा, “मैंने वह बात मज़ाक में कही थी और अब नीतीश ने जो कदम उठाया उससे मैं ही मज़ाक बन गया हूं.” नीतीश के बीजेपी से जुड़ जाने से कई लोगों की उम्मीदें टूट गयीं और उनके इस कदम की प्रतिध्वनियां बिहार की अवाम के बीच सुनाई दे रही हैं.

होली से चार दिन पहले वैशाली के एक बाज़ार में हमारी मुलाकात 42 साल के प्रकाश कुमार से हुई जो रंगों का छोटा-मोटा कारोबार करते हैं. कुछ हल्की फुल्की मज़ाक के बाद प्रकाश ने गंभीर चेहरे के साथ मुझे बताया कि वह अपना वोट आरजेडी के रघुवंश प्रसाद सिंह को देंगे क्योंकि वह अच्छे इंसान और एक काबिल जनप्रतिनिधि हैं. वैशाली सीट पर “रघुवंश बाबू” और लोक जनशक्ति पार्टी की वीना देवी के बीच टक्कर है. प्रकाश कहते हैं उनका दिल नीतीश कुमार के साथ है लेकिन नरेंद्र मोदी उन्हें पसंद नहीं.

“कलकत्ता में हुई विपक्षी गठबंधन की रैली देखे थे आप. केवल नीतीश कुमार की कमी खल रही थी. अगर नीतीश विपक्ष में होते तो वहां (विपक्ष के पास) भी पीएम का चेहरा होता. उधर कोई लीड करने वाला नेता नहीं है. मोदी को इसी का फायदा मिल रहा है,” प्रकाश कहते हैं. वो आगे जोड़ते हैं, “सब कहते हैं कि 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू के वोटबैंक ने नीतीश को जिताया लेकिन मुख्यमंत्री की साफ छवि और उनका विज़न भी गठबंधन की ताकत रहा.

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(कोलकाता में हुई इस विपक्षी महागठबंधन रैली का चेहरा नीतीश कुमार हो सकते थे. क्या नरेंद्र मोदी के साथ जाकर उन्होंने बड़ी राजनीतिक भूल की?)

प्रकाश जिस विपक्षी गठबंधन रैली की बात कर रहे थे वह इस साल 19 जनवरी को कोलकाता में ममता बनर्जी ने बुलाई थी. इसमें 20 पार्टियों के नेता शामिल हुये जिसमें तीन वर्तमान मुख्यमंत्री थे. यह ममता की महत्वाकांक्षा और भावी गठबंधन के सक्रिय कप्तान के रूप में खुद को प्रदर्शित करने की कोशिश थी. मोदी ने महामिलावट की सरकार कहकर इसका मज़ाक उड़ाया लेकिन बिहार में ही नहीं पूरे देश में बहुत से लोगों को लगता है कि नीतीश का चेहरा 2019 के चुनाव में किसी भी दूसरे विपक्षी नेता के मुकाबले अधिक स्वीकार्य और भरोसेमंद होता. नीतीश विपक्ष में दूरदर्शी, ईमानदार और अनुभवी नेता की कमी पूरा करते.

“इसमें कोई शक नहीं कि कई लोग जो विपक्ष को वोट नहीं देना चाहते या मोदी को चुन रहे हैं वो ऐसा मजबूरी में कर रहे हैं क्योंकि विपक्ष के पास प्रधानमंत्री पद के लिये कोई अनुभवी और जानदार चेहरा इन लोगों को नहीं दिखता. इस कमी को नीतीश पूरा कर सकते थे,” बिहार की राजनीति पर करीबी नज़र रखने वाले वरिष्ठ टीवी पत्रकार बालकृष्ण ने मुझसे यह बात मुज़फ्फरपुर में कही.

तो क्या मोदी के साथ जाकर नीतीश ने प्रधानमंत्री बनने का मौका गंवा दिया?

“अब वह (नीतीश) जहां जा बैठे हैं उसके बाद वह एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गठजोड़ के मुखिया नहीं बन सकते,” सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया. “लेकिन जब तक उन्होंने यूपीए का साथ नहीं छोड़ा था तो मैं कहता रहा कि वह देश के प्रधानमंत्री पद के लिये सबसे उपयुक्त विकल्प हो सकते हैं.”
लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू भी है. नीतीश के करीबी और जेडीयू के वरिष्ठ नेता आरसीपी सिंह कहते हैं कि नीतीश को पीएम के पद का दावेदार और विपक्ष के चेहरे के रूप में देखना मोदी विरोधियों की एक “विशफुल थिंकिंग” हो सकती है लेकिन राजनीति में “ग्राउंड रियलिटी” को भी देखना पड़ता है.

नीतीश के करीबी बताते हैं कि दो साल पहले यूपी और उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में बीजेपी की विराट जीत और फिर लालू यादव के परिवार का भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरना नीतीश के लिये फैसला लेने की घड़ी थी. वह लालू से छुटकारा चाहते थे और मोदी के साथ उन्हें राजनीतिक भविष्य दिखा भले ही उसके लिये कुछ समझौते करने पड़े.

आरसीपी सिंह लालू यादव से अलग होने के नीतीश कुमार के फैसले को सही ठहराते हैं, “हम क्राइम, करप्शन और कम्युनलिज्म तीनों ही बुराइयों से समझौता नहीं कर सकते. उस वक्त के हाल को देखिये. लालू और उनके परिवार पर सीबीआई के छापे पड़ रहे थे. हम उनसे यही पूछ रहे थे कि आप लोग इस पर जवाब दीजिये लेकिन उनके रुख ने हालात को बर्दाश्त से बाहर कर दिया. नीतीश का फैसला जनहित में और सिद्धातों पर आधारित था.”

लेकिन बिहार की राजनीति पर नज़र रखने वाले जानते हैं कि यह तर्क सिर्फ पाला बदलने का बहाना है. लालू के परिवार पर लग रहे भ्रष्टाचार के मामलों की मौजूदा स्थिति भी इसकी चुगली करती है. नीतीश और लालू का सियासी सफर करीब 40 साल पुराना है लेकिन दोनों के बीच रिश्ते कभी सहज नहीं रहे. लोकसभा चुनाव में बीजेपी से पटखनी खाकर दोनों एक साथ आ तो गये लेकिन वह कदम किसी समझौते की तरह ही था.

“नीतीश और लालू एक साथ नहीं रह सकते. दोनों का चरित्र ही ऐसा है,” वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं. वह बताते हैं कि गुड गवर्नेंस और भ्रष्टाचार के मामले में भी नीतीश कुछ कारगर नहीं रहे. “लालू के राज में जो बुरा हाल लोगों ने देखा उसके बाद लोगों ने नीतीश की ग़लतियों पर सवाल ही नहीं उठाया. आप भ्रष्टाचार की ही बात लीजिये तो भ्रष्टाचार को तो नीतीश ने कभी नीचे आने ही नहीं दिया. पहले जो पुलिसवाला 5000 रुपये लेकर मुकदमा दर्ज करता था वह आज 25,000 ले रहा है.”

पटना के वीर चंद्र पटेल पथ पर बने जेडीयू दफ्तर में नेताओं और पत्रकारों के जमावड़े के बीच हमारी मुलाकात एक वरिष्ठ पार्टी पदाधिकारी से होती है. घंटे भर की बातचीत के बाद अपने मुख्यमंत्री की “मजबूरी” को समझाने के लिये वह एक झरोखा खोलते हैं, “नीतीश अपनी राजनीतिक सीमायें समझ चुके हैं. वह मान चुके हैं कि प्रधानमंत्री तो कभी बन नहीं सकते. इसलिये वह खुद को बिहार के भीतर मज़बूत कर रहे हैं.”

“वह हर राजनीतिक परिस्थिति में अधिकतम फायदा निकालना जानते हैं. देखिये अब लोकसभा चुनावों के लिये बीजेपी के साथ 50% सीट की डील कर लिये हैं अपने लिये. यह उनके लिये मुनाफे का सौदा नहीं है क्या?” ऐसा कहकर इस नेता ने मेरी ओर यूं देखा जैसे मुझे इसका जवाब देना हो.

वास्तव में 2014 में मात्र 2 लोकसभा सीट पाने वाली जेडीयू आज बिहार में 17 सीटों पर लड़ रही है, वहीं तब 22 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने भी 17 लोकसभा सीटों पर ही संतोष कर लिया. बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता यह मानते हैं कि मोदी-शाह की जोड़ी ज़मीनी सच्चाई को समझ रही है और अभी कोई ख़तरा नहीं मोल लेना चाहती. मोदी कैबिनेट के वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और बीजेपी नेता ने दिल्ली में पत्रकारों को बताया, “न केवल हमने उन्हें (जेडीयू को) राज्य में उनकी क्षमता बहुत अधिक सीटें दी हैं बल्कि कुछ ऐसी सीटें भी दे दी हैं जिन्हें पार्टी को किसी हाल में नहीं छोड़ना चाहिये था.”

बिहार में बीजेपी नेताओं के बीच इस बात को लेकर भी गुस्सा है कि गया, नवादा और जमुई से लेकर बांका-भागलपुर-कटिहार-किशनगंज-पूर्णिया तक का एक पूरा सतत भूभाग जेडीयू-एलजेपी के हवाले कर दिया गया है. इन सीटों में कुछ पर तो बीजेपी कार्यकर्ताओं में इतनी नाराज़गी है कि वह चुनाव के दौरान हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे. उधर वाल्मीकि नगर सीट पर अपने मौजूदा सांसद सतीश चंद्र दुबे का टिकट काटकर जब बीजेपी ने सीट जेडीयू के हवाले कर दी तो दुबे की नाराज़गी बहुत बढ़ गयी. उन्होंने बतौर निर्दलीय उम्मीदवार लड़ने का मन बना लिया. बाद में बीजेपी नेता भूपेंद्र यादव ने दुबे को पटना बुलाया और शांत करने के लिये उन्हें चार्टर्ड विमान से दिल्ली लाकर पार्टी अध्यक्ष अमित शाह से मिलवाया गया.

झारखंड सरकार में मंत्री और बीजेपी नेता सरयू राय ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “एक साथ इतनी सीटें इस तरह छोड़ देना बीजेपी के हित में नहीं है. यह बात (पार्टी में) बहुत लोगों के गले नहीं उतर रही है.”

2019 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की मजबूरी और राजनीतिक समझ साफ दिखती है. वह बिहार से लेकर महाराष्ट्र तक सहयोगियों के साथ कोई खींचतान नहीं कर रहे बल्कि यूपी में होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई के लिये बंगाल और उड़ीसा जैसे राज्यों पर फोकस कर रहे हैं.

टूट गयी भरोसे की दीवार 

एक व्यवहारिक सियासी पैंतरे में एक नेता ने समाज के एक बहुत बड़े हिस्से का इक़बाल खो दिया है. पटना से 50 किलोमीटर दूर चकदौलत गांव के मोहम्मद अशरफ 2 साल पहले तक नीतीश कुमार के मुरीद हुआ करते थे. लेकिन आज उनके दिल में मुख्यमंत्री के लिये गुस्सा है और वह उन्हें “धोखेबाज़” मानते हैं.
“हमारा पूरा गांव उनसे (नीतीश से) खुश नहीं है,” अशरफ कहते हैं. “मुस्लिम समाज में आज बहुत डर है. उनको अब हमारा 100 में से 70 (प्रतिशत) वोट तो नहीं मिलेगा.” यह कहते हुये अशरफ के सुर में ठगे जाने का भाव था.

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(“हम भी सीमा पर जाकर लड़ सकते हैं लेकिन आज प्रधानमंत्री वोटों के लिये हवाई बयानबाज़ी कर रहे हैं.” पटना साहिब के इन मुस्लिम युवाओं में नीतीश द्वारा ठगे जाने का भाव है. फोटो – हृदयेश जोशी)

टेकाबिगहा गांव में जब मोदी के टीवी पर चल रहे “घर में घुसकर मारूंगा” वाले भाषण पर लोग ताली बजा रहे थे तो मुस्लिम युवाओं का एक समूह पास में ही गंभीर मुद्रा में बैठा था. उन्होंने मुझसे कैमरे पर बात करने से साफ मना कर दिया. लेकिन कुछ देर की बातचीत में यह अंदाज़ा हुआ कि लोगों में कड़वाहट किस हद तक फैल गयी है.

“कश्मीर पर किसी भी आतंकी हमले की ख़बर को यहां मुस्लिम समाज पर ताने की तरह सुनाया जाता है. हमें पता है कि पाकिस्तान पर कार्रवाई को लेकर मोदी और उनके समर्थक दिन रात झूठ बोल रहे हैं. देश की हिफाज़त की ही बात है तो सीमा पर जाकर हम भी अपने देश के लिये लड़ सकते हैं. लेकिन यहां वोटों के लिये हो रही हवाई बयानबाज़ी का क्या मतलब है? फिर भी हम इस झूठ पर कुछ नहीं बोल सकते क्योंकि ऐसा किया तो हमारी वफादारी पर सवाल उठेगा,” इन युवाओं में से एक ने मुझसे कहा.

नीतीश ने मोदी से नाता जोड़ा तो बिहार में मुसलमानों के लिये यह भरोसे की दीवार टूटने जैसा था. बिहार की आबादी का 16.5% मुस्लिम है यानी करीब पौने दो करोड़ लोग. इतने लोगों का भरोसा अब सिर्फ लालू यादव की पार्टी और उनके बिरादरी पर ही बचा है.

“इन चुनावों में यादव का दूध और मुस्लिम का जोड़न (दूध को जमाने के लिये डाला जाने वाला दही) होगा,” मोहम्मद अशरफ एम-वाई समीकरण को देहाती भाषा में समझाते हैं.

क्या फिर पलटी मारेंगे नीतीश

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नरेंद्र मोदी का हाइ वोल्टेज कैंपेन पूरे देश में जारी है और बीजेपी की सत्ता वापसी की संभावनाओं पर अलग-अलग कयास लगाये जा रहे हैं. मोदी अगर जीते तो क्या वह पूर्ण बहुमत से वापसी करेंगे या उन्हें सहयोगियों की ज़रूरत होगी? अगर बीजेपी बहुमत से कम सीटें लाई तो जादुई आंकड़े से वह कितना पीछे रहेगी? ऐसे में नीतीश जैसे सहयोगियों का क्या रुख रहेगा?

लालू प्रसाद यादव ने अपनी हाल में प्रकाशित आत्मकथा में यह बात कही है कि आरजेडी गठबंधन छोड़कर बीजेपी के पास जाने वाले नीतीश 6 महीने के भीतर वापस आना चाहते थे. इस आत्मकथा के प्रकाशित होने से पहले भी ऐसी ख़बरें आती रहीं और नीतीश कुमार के स्वभाव को बार-बार रेखांकित कर यूपीए नेता बिहार में मोदी और बीजेपी विरोधी ताकतों को अपने पाले में रखना चाहते हैं. दूसरे चरण के मतदान से ठीक पहले तेजस्वी यादव ने अपने एक ट्वीट के ज़रिये एक बार फिर नीतीश कुमार पर हमला किया.

तो क्या लोकसभा चुनावों के बाद नीतीश एक बार फिर पलटी मार सकते हैं? इस सवाल का निश्चित जवाब किसी भी जानकार के पास नहीं है लेकिन राजनीति तो संभावनाओं का खेल है और नीतीश से बेहतर इसे कोई और नहीं जानता. लालू अक्सर नीतीश कुमार के अनिश्चित स्वभाव को लेकर उन्हें “पेट में दांत” होने का ताना देते रहे हैं लेकिन पटना में लालू और नीतीश दोनों के साथ काम कर चुके एक वरिष्ठ नौकरशाह ने इस दूसरे तरीके से समझाया.

“लालू जो भी काम करते हैं खुलकर. उनका गुस्सा और दोस्ती सब आंखों के सामने है. जैसे उनके लिये जनता के सामने खैनी खाना आम बात है. वह शान से कैमरे के सामने तंबाकू खाते हैं, लेकिन नीतीश कुमार भी खैनी खाते हैं, यह बात बहुत कम लोगों को पता है.”

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