क्या अरुंधति रॉय गांधी और आंबेडकर की सही शिनाख़्त कर पायीं?

अरुंधति रॉय की किताब ‘एक था डॉक्टर एक था संत’ के बहाने मौजूदा समय पर एक टिप्पणी.

WrittenBy:अविनाश मिश्र
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1 अगस्त, 1924 को अहमदाबाद में हुई राष्ट्रीय शिक्षा परिषद् के सामने गुजराती में दिये गये भाषण में महात्मा गांधी ने अपने विषय में कुछ ऐसे शब्द कहे जो उनके विषय में आज तक सही चले आते हैं. वे शब्द थे: ‘‘मेरी स्तुति और निंदा का कोई पार ही नहीं है. इसलिए दोनों का मुझ पर कोई असर नहीं होता.’’

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गांधी के रहते और न रहते दोनों ही समयों में उन्हें देखने की दृष्टियों-अंधदृष्टियों से संसार का पाला पड़ता रहा है. सारे संसार के घोषित-अघोषित-स्वघोषित बौद्धिक विचारकों के लिए यह ज़रूरी रहा आया है कि वे किसी भी बहाने से गांधी पर अपने विचार प्रस्तुत करें. चूंकि गांधी को महात्मा और संत लगभग उनके जीते-जी और बहुत पूर्व में ही स्वीकार लिया गया, इसलिए बाद के बौद्धिकों के लिए मज़ेदार कार्यभार यही था कि वे किसी न किसी बहाने गांधी की महानता और संतत्व को चुनौती दें, उन्हें प्रश्नांकित करें. इस कड़ी में नयी ललकार कुछ वर्ष पहले अंग्रेज़ी कथाकार-विचारक (लेकिन हिंदी में भी बेहद मक़बूल) अरुंधति रॉय की ओर से तब उठी, जब उन्होंने भीमराव आंबेडकर लिखित प्रसिद्ध लेख ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ (1936) के टीका सहित संस्करण (द डॉक्टर एंड द सेंट: कास्ट, रेस एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट: द डिबेट बिटवीन बीआर आंबेडकर एंड एमके गांधी) की प्रस्तावना लिखी, जिसे भारत में पहली बार ‘नवयान प्रकाशन’ द्वारा 2014 में प्रकाशित किया गया और बाद में जिसे ‘वर्सो बुक्स’ ने अमेरिका और इंग्लैंड से शाया किया.

इन दिनों इस ललकार के हिंदी अनुवाद (एक था डॉक्टर एक था संत, आंबेडकर-गांधी संवाद: जाति, नस्ल और ‘जाति का विनाश’,  अनुवाद: अनिल यादव ‘जयहिंद’, रतनलाल, पहला संस्करण: 5 अप्रैल 2019, दूसरा संस्करण: 25 अप्रैल 2019, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) की चर्चाएं हैं.

5 अप्रैल 2019 की दुपहर को इस पुस्तक का लोकार्पण मावलंकर हॉल, कॉन्स्टिट्यूशन क्लब ऑफ़ इंडिया, नयी दिल्ली में हुआ, जहां दिलीप मंडल ने अपनी चिरपरिचित शैली में अरुंधति रॉय को (चूंकि अरुंधति दलित नहीं हैं) आंबेडकर पर लिखने के लिए अयोग्य पाया. इस पर इस ‘परिघटना’ को स्त्री-कोण देते हुए अरुंधति ने दिलीप मंडल के पितृसत्तात्मक और मर्दवादी चेहरे की शिनाख़्त की.

बहरहाल, इस पुस्तक का लोकार्पण नहीं, स्वयं यह पुस्तक इस स्तंभ का विषय है, इसलिए उस पर ही लौटते हैं. हिंदी में इस पुस्तक का आना एक ऐसे वक़्त में हुआ है, जब गांधी पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं. उनकी मूर्तियों पर गोलियां चलायी जा रही हैं और उनके हत्यारे-हत्यारों को महिमान्वित किया जा रहा है. गांधी के बग़ैर किसी का काम नहीं चल रहा है. वह एक साथ सबकी ज़रूरत और सबसे आसान शिकार होने को अभिशप्त हैं.

यह पुस्तक गांधी का आसान शिकार करते हुए आंबेडकर को उनसे ऊपर/पहले रखने की कोशिश कुछ इस क़दर करती है कि जैसे उन्हें एक साथ रखना संभव ही नहीं. मानो गांधी और आंबेडकर के मध्य कोई सम्मिलन बिंदु है ही नहीं. उनके बीच केवल टकराव है और जिसमें गांधी खलनायक हैं. कहीं-कहीं यह पूरी किताब अजीब पूर्वाग्रहों और हास्यास्पद तर्कों से युक्त है. इसकी वजह या तो तत्कालीन भारतीय समाज की ज़मीनी सच्चाई को नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ना है, या उस पर भरपूर नज़रसानी करके भी उससे अजनबी बने रहना है, क्योंकि इस तरफ़ दिखायी गयी समझदारी आपके उस एजेंडे को ही उलट देगी जो गांधी और आंबेडकर को लड़ाने का है.

इस पुस्तक में बार-बार गांधी को बनिया और बड़े धनाढ्य बनियों द्वारा समर्थित कहकर इस प्रकार हिक़ारत से देखा गया है, जैसे आंबेडकर महाराजाओं द्वारा समर्थित नहीं थे और उनका जीवन बग़ैर किसी के सहयोग और समर्थन के ही इतना विराट, गरिमामय और सारे संसार के लिए अनुकरणीय हो पाया- बावजूद उनकी एकायामी सोच के, जिसकी तरफ़ स्वयं अरुंधति भी इशारा करती हैं:

‘‘आदिवासियों के प्रश्न पर आंबेडकर से भी भूल हुई. अपने लोगों के अपमान पर झट से प्रतिक्रिया देने वाले आंबेडकर, ‘जाति का विनाश’ में औपनिवेशिक मिशनरियों और उदारवादी विचारकों को प्रतिध्वनित करते हैं, तथा उसमें अपने ही प्रकार के विशिष्ट ब्राह्मणवाद का तड़का लगा देते हैं.’’ (देखें: पृष्ठ 116)

अरुंधति का यह स्पष्ट मानना है कि उन आदिवासियों के बारे में- जो आज आधुनिक पूंजीवाद के ज़ालिम मार्च के सामने एक दीवार बनकर खड़े हैं- आंबेडकर की राय उनकी जानकारी और समझ की कमी को दर्शाती है.

यहां आकर फिर वही चक्र घूमता है जिसके तहत सहानुभूति और समानुभूति जैसे रूढ़ पद सामने आते हैं और सामाजिक न्याय, दलित तथा आदिवासी प्रश्नों को उठाने की इज़ारेदारी अपना मुंह खोलती है और अरुंधति रॉय सरीखी विचारक भी आंबेडकर पर बात करने लिए दिलीप मंडल की दृष्टि में अयोग्य ठहरती हैं. यह तरीक़ा सही नहीं है. सही तरीक़ा पाठ के भीतर जाकर उसकी जांच करना है. जैसे कि इस पुस्तक में अरुंधति करती हैं, वह अपनी तरफ़ से बहुत कम बोलती हैं. वह दस्तावेजों और महानुभावों के उद्धरणों से काम लेती हैं. यह अलग तथ्य है कि इस क्रम में उनकी दृष्टि उलझती जाती है, उनके दिये एक उद्धरण में अगर गांधी खलनायक नज़र आते हैं तो दूसरे उद्धरण में उनका महात्मा होना वैध लगता है. उनका अलौकिक, असाधारण, सबकी आंखों का ध्रुवतारा, राष्ट्र की आवाज़ और आधुनिक विश्व का अब तक ज्ञात सबसे तेज़-तर्रार राजनीतिज्ञ होना सच लगता है.

अंत में यह ग़ौरतलब है कि महात्मा गांधी के जीवनकाल में ही यह लगभग तय हो गया था कि उनके जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं है जो रहस्यमय, गोपनीय और छद्म से भरा हुआ हो, और जिसका सार्वजनिक प्रकटीकरण कोई नयी बात या विवाद उत्पन्न कर सके. लेकिन इस सत्य को नकारते हुए उनकी हत्या के बाद से अब तक उन पर कई किताबें आयी हैं जिन्होंने उनके प्रयोगों और जोखिमों से भरे हुए जीवन के ‘अंधेरे पक्ष’ को उजागर करते हुए उनके महात्मापन और संतत्व को चुनौती दी है- यह भूलकर कि मनुष्य के जन्म, कर्म, परिवेश, परिस्थिति, वंश इत्यादि के ज़रिये उसका एक अत्यंत निजी रूप व्यक्त होता है और उस निजता की छाप उस मनुष्य के प्रत्येक मामले में प्रकट होती है. यह एक प्रकार का वैचित्र्य है, इस वैचित्र्य को तोड़कर किसी मनुष्य को समझने की चेष्टा नहीं करनी चाहिए, बल्कि इस वैचित्र्य में जो साम्य है, जो एक्य है उसे आविष्कृत करने का प्रयत्न करना चाहिए.

दुर्भाग्य से महात्मा गांधी के संदर्भ में कुछ पेशेवर बौद्धिकों (जो आंदोलनों और उनके मूल मक़सदों को अपहृत करने, अपने निजी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात हैं) के यहां ऐसी कोई नज़र मौजूद नहीं है. गांधी आज उस हाथी की तरह हो गये हैं जिसे कई नेत्रहीन छू-छूकर बता रहे हैं कि यह हाथी सूप की तरह है, खंभे की तरह है, केले के वृक्ष की तरह है, बहुत बड़े घड़े की तरह है. पूरे हाथी को समझने के लिए निरपेक्ष नज़रिया चाहिए, अंधत्व नहीं. दरअसल, गांधी अब एक विचार से ज़्यादा एक प्रतीक हैं और प्रतीकों का ग़लत इस्तेमाल बहुत आसान रहा आया है. लेकिन गांधी-दर्शन एक समग्रता में इस क़दर सशक्त है कि वह अपने सार्वभौमिक सत्यार्थ से अलग किसी मनचीते प्रयोग की छूट किसी को भी नहीं देता.

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