”हमेशा ही बीजेपी के दो चेहरे और दो बोली रही है”

हमेशा ही बीजेपी का दो चेहरा रहा है, दो बोली रही है. हर निर्णायक मोड़ पर हम देखते आए हैं कि दोनों मिल कर एक हो जाते हैं. आज भी एक चालाकी और चाशनी की जबान है, एक धमकी और आगाह करती ललकार है.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
Date:
Article image

भरोसा और विश्वास किसी भी राजनीतिज्ञ की सबसे बड़ी पूंजी होती है और वह पूंजी आज नरेंद्र मोदी के खाते में है. इसलिए आंकड़ों का, जीत-हार की गिनती का, वोटों के प्रतिशत का और गठबंधनों में ‘ऐसा होता कि वैसा होता’ जैसे समीकरणों का अभी कोई मतलब नहीं रह गया है. अब अगर कुछ मतलब की बात है, और आंख खोल कर जिसे देखते और दिखाते रहने की ज़रूरत है, तो वह यह है कि बातें क्या कही जा रही हैं और बातें क्या की जा रही हैं. इनके बीच की खाई ही है जो आने वाले समय में देश की कुंडली लिखेगी.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

हमें यह देखना ही होगा कि मोदी-शाह की जोड़ी अब उस तरह बरत रही है जिस तरह कभी वाजपेयी-आडवाणी की जोड़ी बरतती थी. हमेशा ही इस पार्टी का दो चेहरा रहा है, दो बोली रही है. हर निर्णायक मोड़ पर हम देखते आए हैं कि दोनों मिल कर एक हो जाते हैं. आज भी एक चालाकी और चाशनी की जबान है, एक धमकी और आगाह करती ललकार है.

अपने नवनिर्वाचित 303 सांसदों के सामने खड़े हो कर जब प्रधानमंत्री सेंट्रल हॉल में संविधान की किताब के सामने नतमस्तक हो रहे थे, उससे ठीक पहले ही मध्यप्रदेश के शिवनी में, संविधान की उसी किताब की धज्जियां उड़ा कर, संघ परिवार के गौ-रक्षक तौफीक, अंजुम शमा तथा दिलीप मालवीय की वहशी पिटाई कर रहे थे. 2014 से यह मंजर देश को लगातार घायल करता आ रहा है. तभी यह खबर भी आयी कि 2013 में, पुणे में डॉ. नरेंद्र दांभोलकर की गोली मार कर जो हत्या की गयी थी, उस मामले में सीबीआई ने सनातन संस्था से जुड़े दो लोगों की गिरफ्तारी की है. जानने वाले सब जान रहे हैं कि यह सनातन संस्था क्या है और इसके तार कहां से जुड़े हैं.

अपनी पार्टी, सरकार और अपने बारे में राष्ट्रीय विमर्श बदलने का यह नायाब मौका था कि प्रधानमंत्री इन दोनों बातों का जिक्र अपने भाषण में करते और अपने साथियों-सहयोगियों को सावधान करते! पर जो करना चाहिए, वह उन्होंने कब किया कि अब करते ? फिर तो बंगाल में की गयी नयी हत्या की खबर भी आयी और तृणमूल-भाजपा में रस्साकशी यह चलती रही कि लाश की पार्टी कौन-सी थी! फिर आयी अमेठी से ख़बर जहां भारतीय जनता पार्टी के सुरेंद्र सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी गयी. फिर बेगूसराय की खबर जहां नाम पूछ कर मुहम्मद कासिम को यह कहते हुए गोली मारी गयी कि पाकिस्तान जाओ. ये सब अभागी घटनाएं हैं जो कहीं भी, किसी भी सरकार में हो सकती हैं. लेकिन अभागी घटनाएं जब घटती नहीं, आयोजित की जाती हैं और सत्ताधीश उसे मौन चालाना देता है, तब देश का असली दुर्भाग्य शुरू होता है. यह है वह नया भारत जो आकार ले रहा है और जिसमें हर उस व्यक्ति को अपनी जगह तलाशनी होगी, जिसे भारत में किसी ‘अपने भारत’ की तलाश थी. वह ‘अपना भारत’ खो गया है, ‘वह आदमी आज हतप्रभ है’.

imageby :

इस नये भारत को बस तीन चीजें चाहिए. सुरक्षा, विकास और संपन्नता! प्रधानमंत्री ने विजय-समारोह में एक लंबी सूची बतायी कि उनकी यह जीत किन-किन वर्गों के कारणों से संभव हुई. उस सूची में वे सब शामिल थे जिन्हें उनके मुताबिक सुरक्षा का, विकास का और संपन्नता का अहसास हुआ है. यह तो संभव है ही कि हमारा समाज ऐसा ही खोखला बना रहे, लेकिन देश सुरक्षित भी हो, संपन्न भी और विकासशील भी! कमोबेश यह दुनिया भर में हुआ है. क्या कोई इस मुगालत में है कि पाकिस्तान में कोई विकास नहीं हुआ है? क्या किसी को ऐसी गलतफहमी है कि बांग्लादेश में कोई समृद्धि नहीं आयी है? ये दोनों भी और संसार के कई दूसरे मुल्क भी पहले से अधिक समृद्ध, संपन्न व सुरक्षित हुए हैं. तो क्या हम अपने देश को पाकिस्तान के साथ बदलने को तैयार हैं? क्या हमें समृद्धि के शिखर पर बैठा अमरीकी समाज, अपने समाज से बेहतर दिखायी देता है? कम-से-कम मुझे तो नहीं, क्योंकि मुझे उस भारत की तलाश थी, है और रहेगी कि जिसकी एक कसौटी महात्मा गांधी ने यह बनायी थी कि जहां एक आंख भी आंसुओं से भरी नहीं होगी.

आंसू आंखों से बहने से पहले दिल में उतरते हैं. वे अपमान के भी होते हैं, असहायता के भी, दरिद्रता के भी, भेद-भाव के भी! हमने 15 अगस्त 1947 की मध्यरात्रि में नियति से वादा किया था कि हमारे देश में कोई व्यक्ति, जाति, धर्म, विचारधारा दोयम दर्जे की नहीं होगी. गलत होगी, कालवाह्य होगी, वृहत्तर समाज को नुकसान पहुंचाने वाली होगी तो भी उसका मुकाबला विचार से, कानून से किया जायेगा, तलवार से नहीं. हमने वैसी सरकार की कल्पना ही नहीं की थी, जो भीड़ को न्यायालय में बदलता देखती ही न रहे बल्कि भीड़ को वैसा करने के लिए उकसाती भी रहे.

हमने ऐसा भारत देखा और भुगता है जिसमें इस सदी के सबसे महान भारतीय की, 80 साल की वृद्ध काया को तीन गोलियों से छलनी कर दिया गया और लड्डू बांट कर उसका जश्न भी मनाया गया. फिर भी हमने देखा कि उस आदमी को मानने वालों ने कहा कि हत्यारे को फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए. आगे का इतिहास बताता है कि सरकारी कानून ने हत्यारे को फांसी दे दी, लेकिन भारतीय समाज का मन-दिमाग साबुत ही रहा. उसके पास हत्यारे-जन भी रहे, उनके परिजन भी रहे, करने वाले उनका गुणगान भी करते रहे लेकिन समाज ने उनका हुक्का-पानी बंद नहीं किया. लेकिन हमने सावधानीपूर्वक यह दायित्व स्वीकार किया कि असत्य की, हिंसा की, हत्या की, षड्यंत्र की, घृणा की ताकत से समाज का नियंत्रण करने वाले तत्व हमारा प्रमुख स्वर न बन जायें! इसलिए हमारे देश की संसद की दीवार पर कोई सावरकर सुशोभित न हो और कोई हत्यारा हमारा प्रतिनिधि बन कर वहां न जा बैठे, ऐसी एक अलिखित मर्यादा हमने पाली. इसमें चूक भी हुई, विफलता भी हुई लेकिन कोशिश सुधारने और संभालने की ही रही.

अब एक ऐसा देश बनाया जा रहा है जिसमें हत्यारों का महिमा मंडन हो रहा है, हत्यारे जन-प्रतिनिधि बनाये जा रहे हैं और घृणा देश का सामान्य विमर्श बनता जा रहा है. रणनीति यह है कि ऊपर-ऊपर, कभी-कभार निषेध हो, लेकिन इन ताकतों को अपना खेल खेलने की पूरी छूट भी हो. तभी तो सावरकर को संसद में स्थापित किया गया, नाथूराम को बलिदानी बताया गया, उनकी प्राण-प्रतिष्ठा की सुनियोजित कोशिशें चली. इस कोशिश को जहां पहुंचाना था, यह जल्दी ही वहां पहुंच भी गयी. जिसकी दीवार पर आपने सावरकर चिपकाया था, उसी संसद में अब प्रज्ञा ठाकुर सिंह अवस्थित हुई हैं. दलपति ने कहा : यह हमारा सत्याग्रह है; प्रधानमंत्री ने कहा : मैं कभी उन्हें मन से माफ़ नहीं कर सकूंगा! आप दोनों के बीच का मक्कारी भरा बारीक झूठ खोजते-पकड़ते रहें और  यह अकाट्य तर्क भी सुनते रहें कि लोकतंत्र में जनता ही असली मालिक है और उसने प्रज्ञा ठाकुर सिंह को बहुमत से चुना है तो वह गलत कैसे हो सकती है! न तो यह मुद्रा, न यह रणनीति ही इतनी नयी है कि पहचानी न जा सके. फासीवादी व्यवहार और रणनीति का पूरा इतिहास हमारे सामने है.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like