भूमिगत जल के दोहन का स्वार्थी स्वरूप

बात सिर्फ भूमिगत जल के बेतहाशा दोहन की समस्या को लेकर ही नहीं है, बल्कि हर उस पर्यावरणीय समस्या को लेकर है, जो हमारे जीवन पर संकट लेकर आ रही है, लेकिन हम निश्चिंत बैठे हुए हैं.

WrittenBy:वसीम अकरम
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अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में ब्रिटिश चैनल आईटीवी को दिये अपने इंटरव्यू में भारत को नसीहत देते हुए कहा कि भारत के लोगों में न तो शुद्ध हवा की समझ है, न तो शुद्ध पानी और सफाई की ही समझ है. ऐसे मामले में भारत को अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास ही नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत, चीन और रूस में वायु प्रदूषण का स्तर अमेरिका से ज़्यादा है. ट्रंप ने इसी आधार पर कहा था कि इन देशों ने अपनी ज़िम्मेदारियां नहीं निभायी हैं.

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अमेरिका या विकसित देश जलवायु परिवर्तन के लिए कितने ज़िम्मेदार हैं, यह कहानी किसी से छुपी नहीं है और इस पर दुनियाभर में चर्चा होती रहती है. लेकिन यह बात भी सच है कि पर्यावरणीय अव्यवस्थाओं, प्रदूषण और पानी की समस्याओं के लिए हम खुद ही ज़िम्मेदार हैं. हमारे नीति-निर्माता मौन हैं और जनता मनमानी में मस्त है. तकनीक का बेजा इस्तेमाल करके प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का अंधाधुन दोहन करने को हम समझ रहे हैं कि हम तरक्की कर रहे हैं. लेकिन याद रहे, प्रकृति एक दिन इसका बदला ज़रूर लेगी, और वह दिन बड़ा भयानक होगा.

गांव रतनपुरा, ज़िला मऊ, उत्तर प्रदेश. ईद के दिन गांव में कई घरों से सेवई खाने की दावत मिली, तो बारी-बारी से कुछ लोगों के यहां चला गया कि इसी बहाने सबसे मुलाकात हो जायेगी. हर दूसरे घर में बोरिंग करके सबमर्सिबल पंप के जरिये ज़मीन से पानी खींचे जाने की सुलभ व्यवस्था देखकर मैं हैरान हो गया.

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उसी शाम जब मैं बाज़ार गया तो चाय-नाश्ते की दुकान पर कुछ लोग पानी की ही समस्या पर बात कर रहे थे, जो शायद पास के किसी गांव के रहे होंगे. एक ने कहा कि उसने डेढ़ सौ फिट गहरी बोरिंग करायी है, तब जाकर पानी आया है. वहीं दूसरे ने पानी पाने के लिए 170 फिट गहरी बोरिंग की बात कही. उनकी बातों से लग रहा था कि हो सकता है कहीं-कहीं यह बोरिंग 200 फिट के भी पार कर गयी हो. इस विषय में मैंने उन गावों के तकरीबन दर्जन भर लोगों से बात की.

मालूम हुआ कि सरकारी नल से पहले सुबह-शाम पानी आता था तो काम चल जाता था, सब अपनी ज़रूरत का पानी स्टोर कर लेते थे, लेकिन कई साल से सरकारी नल में पानी ही नहीं आ रहा. वहीं दूसरी ओर, गांव भर में जहां-तहां लगे सरकारी हैंडपंप कुछ साल तक पानी की कमी पूरी करते रहे, लेकिन वे भी अब पानी नहीं पकड़ पा रहे हैं, प्रशासन उन्हें रीबोर नहीं करा रहा.

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अरसे से घरों में लगे हैंडपंप से अब तो तभी पानी आता है, जब बरसात के बाद भूमिगत जलस्तर कुछ बढ़ जाता है और वह भी कुछ ही महीने तक आता है. इसलिए सब ज़्यादा गहरे तक बोरिंग करके पानी खींच रहे हैं. गांव के लोगों को लग रहा है कि वे पानी की अपनी समस्या को दूर कर चुके हैं. लेकिन मुझे लगता है कि भूमिगत जल के दोहन का यह एक नया स्वरूप है, जो आने वाले समय में पानी की समस्या को और भी बढ़ा देगा. क्योंकि भूमिगत जल के इस तरह रोज़ दोहन से ज़मीन में दूर-दूर तक पानी की कमी होने लगेगी.

आदमी की तो फितरत ही होती है कि जब उसे कोई चीज़ इफरात में मिल जाये, तो वह उसकी क़ीमत नहीं समझता है. गांवों में बोरिंग से खींचे जा रहे बेशुमार पानी की क़ीमत लोग नहीं समझ रहे हैं और बेतहाशा पानी की बर्बादी चल रही है. सरकार और प्रशासन चाह लें, तो गांवों में पानी की उचित व्यवस्था करके बेतहाशा पानी की इस बर्बादी को रोक सकते हैं. लेकिन क्या पता, खुद अधिकारी गण भी अपने-अपने घरों में बोरिंग से पानी खींच रहे हों, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं. क्या शहर क्या गांव, अब सब भूमिगत जल के दोहन में अपनी बराबर की भूमिका निभाने में लगे हैं. इस वक्त देश के 42 फीसदी हिस्से सूखे की चपेट में हैं. महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक, बिहार झारखंड और उत्तर प्रदेश के हिस्से ज़्यादा प्रभावित हैं. एक तरफ सरकार की चिंता में ये मुद्दे गायब हैं, तो वहीं मुख्यधारा की मीडिया में इसकी कोई बड़ी और सार्थक चर्चा ही नहीं है.

ईद के अगले दिन दो-तीन गांवों में घूमने के बाद मुझे यह अंदाज़ा हुआ कि कमोबेश हर तीसरे-चौथे घर में बोरिंग की व्यवस्था है. मैं सोचने लगा कि यह तो सिर्फ मेरे आसपास के गांवों की स्थिति है. तो क्या ऐसी ही हालत पूरे उत्तर प्रदेश में उन क्षेत्रों में भी है, जहां लोग पानी की समस्या से जूझ रहे हैं? इस वक्त देश के कई राज्यों में इमरजेंसी जैसे हालात हैं. पिछले महीने केंद्रीय जल आयोग ने देशभर में जलाशयों के कम होते जलस्तर पर चिंता जतायी थी.

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बिहार के खेतों में दरार दिखने लगे हैं और तमिलनाडु का हाल तो और भी भयानक है. महाराष्ट्र में तो बाकायदा पानी माफिया ही पैदा हो गये हैं, जो बड़ी-बड़ी मशीनों से भूमिगत जल का दोहन करके टैंकरो में भरकर उसे सुखाड़ इलाकों में बेच रहे हैं. क्या यह संभव नहीं कि सबमर्सिबल पंप की क़ीमतों में भी आग लगने लगे, क्योंकि कुछ महीने पहले बुंदेलखंड के महोबा में 30 हज़ार का हैंडपंप 80 हज़ार में लगाया जा रहा था और एक लाख का सबमर्सिबल पंप 3 लाख में. दिल्ली के पास अरावली क्षेत्र में अवैध खनन की तरह अवैध बोरिंग का मामला भी एनजीटी के सामने आया था. कितना कुछ हो रहा है, लेकिन नेता लोग भावुक अंधभक्ति वाले बयान दे रहे हैं कि आगामी 2024 तक हर घर को शुद्ध पानी मिलने लगेगा. लेकिन यह समझ में नहीं आता कि कैसे?

जो नेता एसी कमरे में बैठकर ग्लोब पर जल चढ़ाकर पूरी पृथ्वी को ठंडा करने जैसा धतकरम कर रहे हैं, क्या उनके पास कोई जल-नीति हो सकती है? क्या इन नेताओं के वादों पर यक़ीन किया जा सकता है, जिनके वादों के नीचे दबकर गंगा जैसी पवित्र नदी आज सबसे प्रदूषित नदी बन गयी है? दिल्ली की सड़ चुके यमुना नदी के पानी का हाल किससे छिपा है? विश्वभर में हर साल जल खपत की दर में एक फीसदी की वृद्धि हो रही है. साल 2030 तक भारत की 40 फीसदी आबादी भारी जल-संकट का शिकार हो जायेगी. खुद नीति आयोग का मानना है कि भारत में अगले साल तक जल-संकट की ज़द में दस करोड़ लोग आ जायेंगे. संकेत साफ है कि आगामी समय में जल-संकट एक बड़ी ही गंभीर समस्या बनकर उभरेगी. इसलिए इसका समाधान आज में ही तलाशना होगा, अन्यथा कल तो बहुत देर हो जायेगी.

औद्योगिक इकाइयों और खेती के लिए भूमिगत जल के दोहन की खबरें आती ही रहती हैं. ऐसे में अगर गांवों में हर घर में जल-दोहन के लिए सबमर्सिबल बोरिंग हो जाये तो आखिर कितना वक्त लगेगा भूमिगत जल के खत्म होने में, यह एक शोध का विषय है. लेकिन, अगर बारिश भी कम हुई और मॉनसून ने धोखा दे दिया तो दोहन से नीचे पहुंचा भूमि का जलस्तर आने वाले समय में और भी नीचे चला जायेगा, यह तय है. और इस बार का अनुमान भी है कि मॉनसून कुछ कमज़ोर रह सकता है. ऐसे में ज़रूरी है कि हमारी सरकारें जल-संग्रहण और संरक्षण के लिए नीतियां बनाएं और पूरे देश को जागरूक भी करें, ताकि वे आसन्न संकट से निपटने में अपने स्तर पर हरसंभव योगदान दे सकें.

हमारे देश में गांवों की स्थिति बहुत विचित्र है, खास तौर पर उत्तर भारत के गांवों की. एक तरफ ग्रामीणों में जागरूकता का अभाव है, तो दूसरी तरफ शासन-प्रशासन की अनदेखी है. एक तरफ हैंडपंप सूखे पड़े हैं, तो दूसरी तरफ ग्रामीणों में आपस में नफरतें और हेठी फैली हुई है. जल-संकट के इस आलम में एक बोरिंग से दस-बीस घरों का काम आसानी से चल सकता है और पानी भी कम बर्बाद होगा. लेकिन लोगों में हेठी इतनी है कि दूसरे के घर से बोरिंग का पानी वह लेना नहीं चाहते. इसलिए हर कोई बोरिंग कराये जा रहा है. ऐसे में प्रबल संभावना है कि बहुत जल्द हर घर में सबमर्सिबल बोरिंग हो जाये?

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बोरिंग से पानी निकालने वाले लोग जब-तब मोटर चला देते हैं और उपयोग से ज़्यादा पानी बर्बाद होता रहता है. कई घरों में तो पानी स्टोर करने के लिए पानी की टंकी तक नहीं है. उनका मानना है कि पीने के लिए पानी रख लेते हैं, बाकी कामों के लिए जब ज़रूरत पड़ती है, तब ‘‘बिजली की मौजूदगी’’ के अनुसार मोटर ऑन कर लेते हैं. मैंने देखा कि कुछ लोग सिर्फ नहाने के लिए भी मोटर ऑन कर लेते थे. इसका नतीजा यह है कि एक व्यक्ति नहाने में जितना पानी निकालता है, उतने पानी में कम से कम दस-बारह लोग नहा लेंगे, अगर वो बाल्टी और मग्गे से नहाएं. रोज़ारा गलियों और छतों को भिगोने में घंटों तक मोटर चलता रहता है. इस तरह से गांवों में अब भूमिगत जल का बेतहाशा दोहन होने लगा है. अगर यही हाल रहा, तो जिस तरह से वहां हैंडपंप पानी की पहुंच से दूर होकर सूखते चले गये हैं, उसी तरह सबमर्सिबल बोरिंग भी एक दिन भूमिगत जल से दूर होते चले जायेंगे. तब पानी कहां से आयेगा, यह अभी कोई नहीं सोच पा रहा है, क्योंकि ग्रामीणों में पर्यावरण या पानी बचाने को लेकर जागरूकता का भारी अभाव है. वहीं सरकारें और नेता हैं कि वे आगामी चुनाव का हिसाब-किताब लगाने में लगे हुए हैं कि अगली बार किस भावुक मुद्दे को उछालकर लोकतंत्र को छला जाये. सरकार और प्रशासन गांवों में पानी की उचित व्यवस्था करते, जैसे शहरों में करते हैं, तो संभव है कि लोग बोरिंग नहीं कराते.

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भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जहां भूमिगत जल का सबसे ज़्यादा दोहन होता है. इसलिए दिन प्रतिदिन भूजल का स्तर नीचे होता चला जा रहा है. पूरे विश्व में भूमिगत जल का स्तर तेज़ी से घट रहा है. कई क्षेत्रों में तो यह लगभग समाप्त भी हो गया है. फिर भी बड़ी-बड़ी कंपनियों को सरकारें भूमिगत जल का दोहन करने दे रही हैं. भूमिगत जल हमारी पृथ्वी के आंतरिक संचालन के लिए बहुत ज़रूरी है. विडंबना तो यह है कि भूमिगत जल को रिचार्ज करने के बारे में न तो हमारी सरकारों के पास कोई नीति रही है, न कोई प्रबंधन है, और न ही लोगों में इसकी जागरूकता ही है.

प्रख्यात पर्यावरणविद् हिमांशु ठक्कर बताते हैं कि भारत में भूमिगत जल एक तरह से लाइफ लाइन है. आज भारत में खेत की सिंचाई के लिए भूमिगत जल का दो-तिहाई हिस्सा इस्तेमाल होता है. पानी के लिए हमारे गांव 80 प्रतिशत भूमिगत जल पर निर्भर हैं, तो वहीं शहरों में उद्योगों के लिए इस्तेमाल होने वाले पानी में 50 प्रतिशत हिस्सा भूमिगत जल से ही आता है. अलग-अलग राज्यों के अलग-अलग आंकड़े हो सकते हैं. मज़े की बात यह है कि अस्सी के दशक से लेकर अब तक पारंपरिक जलस्रोतों के अलावा भारत में जितना भी अतिरिक्त पानी का इस्तेमाल होता आ रहा है, उसमें 80-90 प्रतिशत हिस्सा भूमिगत जल का रहा है. लेकिन विडंबना यह है कि भूमिगत जल को रिचार्ज करने के लिए हमारी सरकारों के पास इतने सालों से कोई नीति नहीं है.

भूमिगत जल को तालाबों, नहरों, नदियों, बावड़ियों और जंगलों के जरिए रिचार्ज किया जाता है. नमभूमि (वेट लैंड) से भी भूजल रिचार्ज होता है. लेकिन जिस तेज़ी से तालाब, नहरें, नदियां, बावड़ियां और जंगल खत्म होते जा रहे हैं, उससे मुमकिन नहीं है कि भूमिगत जल रिचार्ज हो पाये. यही वजह है कि भूजल रिचार्ज कम होता है, और दोहन ज़्यादा, जिसका खामियाजा दिन-प्रतिदिन कम हो रहे भूजल-स्तर के रूप में हमारे सामने आता है, और उस भूजल की गुणवत्ता भी दिन प्रतिदिन गिरती जा रही है. सरकार चाहे तो रिचार्ज की व्यवस्था कर सकती है, लेकिन समस्या यह है कि देश की जल नीति में इस बात को स्वीकार करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं की जाती कि भूजल हमारी लाइफ लाइन है.

सरकारी तंत्र को यह तक पता नहीं है कि देशभर में रिचार्ज जोन कहां-कहां हैं, फिर यह कैसे संभव है कि वह इस दिशा में कोई ठोस कदम बढ़ायेगी? बाज़ारवाद को बढ़ावा देने वाली सरकारों से कैसे उम्मीद की जा सकती है? वही बाज़ारवाद, जिसने एक तरफ भूमिगत जल के दोहन को बढ़ावा दिया है, तो दूसरी तरफ कंपनियों के कचरे और दूषित जल से अच्छी-खासी साफ नदियों को गंदा कर दिया है. जहां-तहां मिलने वाले बोतलबंद पानी और कोल्ड ड्रिंक्स भूमिगत जल के दोहन का ही नतीजा हैं, जिन्हें सबसे ज़्यादा बढ़ावा हमारी सरकारों ने ही दिया है. अध्ययन बताते हैं कि कोल्ड ड्रिंक्स कंपनियों के प्लांट जहां लगते हैं, वहां आसपास कई किलोमीटर तक ज़मीन बंजर हो जाती है.

हमारे लोकतंत्र की यह अजीब खूबसूरती है कि कोई अपराधी, झूठा, मक्कार, भ्रष्ट, ये सभी चुनाव लड़ सकते हैं और जनता का वोट पाकर ये जीत भी सकते हैं. लेकिन लोकतंत्र की यही खूबसूरती क्या एक बड़ी विडंबना नहीं बन जाती है, जब ऐसे लोग हमारे समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं? ऐसे में लोकतंत्र एक फ्रॉड मॉडल जान पड़ता है. और जब नेता लोग प्रचार-प्रसार करते हैं कि वोट देना जनता का अधिकार है और साथ ही वोटों की खरीद-फरोख्त शुरू हो जाती है, तब लगता है कि यह जनतंत्र एक छलावा मात्र है, जो गंदी राजनीति द्वारा सिर्फ छले जाने के लिए ही अभिशप्त है.

जिस देश में मंदिर-मस्जिद जैसे फर्जी मुद्दों पर चुनाव होंगे, वहां इस बात की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है कि लोग साफ हवा, शुद्ध पानी की उपलब्धता, प्रदूषण आदि जैसे गंभीर मुद्दों की बात करेंगे. भ्रष्ट राजनीति ने हमारा मानस इतना विकृत कर दिया है कि हम उसके द्वारा उछाले गये फर्जी मुद्दों के गुलाम बनते जा रहे हैं. अगर राजनीति में अच्छे लोग आते, तो वे ज़रूरी मुद्दों को समझते और फिर वैसी ही नीतियां और योजनाएं बनाते, जिससे जानलेवा समस्याओं से छुटकारा मिल जाता.

यह बात सिर्फ भूमिगत जल के बेतहाशा दोहन की समस्या को लेकर ही नहीं है, बल्कि हर उस पर्यावरणीय समस्या को लेकर है, जो हमारे जीवन पर संकट लेकर आ रही है, लेकिन हम निश्चिंत बैठे हुए हैं. अब भी वक्त है, कुछ ही समय में मॉनसून आने वाला है. अगर बारिश के पानी का भंडारण करके भूमिगत जल को रिचार्ज करने की व्यवस्था हम नहीं बना पाये, तो निश्चित रूप से आगे आने वाले समय में हम त्रासदी ही देखेंगे.

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