गिरीश कर्नाड : संस्कृति के सिपाही की विदाई

गिरीश कर्नाड से कुमार प्रशांत की कुछ व्यक्तिगत मुलाकातें.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

मुझे अच्छा लगा कि गिरीश रघुनाथ कर्नाड को संसार से वैसे ही विदा किया गया जैसे वे चाहते थे: नि:शब्द! कोई तमाशा न हो, कोई शवयात्रा न निकले, कोई सरकारी आयोजन न हो, तोपों की विदाई या उल्टी बंदूकें भी नहीं, कोई क्रिया-कर्म भी नहीं, भीड़ भी नहीं, सिर्फ निकट परिवार के थोड़े से लोग हो- ऐसी ही विदाई वे चाहते थे…

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

…मुंबई में समुद्र के पास, बांद्रा में उनके अस्त-व्यस्त घर में लंबी चर्चा समेट कर हम बैठे थे. जीवन का अंत कैसे हो, ऐसी कुछ बात उस दिन वैसे ही निकल पड़ी थी और मैंने कहा था कि कभी बापू-समाधि (राजघाट) पर, शाम को  घूमते हुए अचानक ही जयप्रकाशजी ने कहा था- “मुझे यह समाधि वगैरह बनाना बहुत ख़राब लगता है… जब ईश्वर ने वापस बुला लिया तो धरती पर अपनी ऐसी कोई पहचान छोड़ने में कैसी कुरूपता लगती है… हां, कोई बापू जैसा हो कि जिसकी समाधि भी कुछ कह सकती है, तो अलग बात है. समाज परिवर्तन की धुन में लगे हम सबकी समाधि इसी समाधि में समायी माननी चाहिए,”

बापू-समाधि की तरफ देखते-देखते वे बोले, और फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा, “तुम लोग ध्यान रखना कि मेरी कोई समाधि कहीं न बने.” गिरीश बड़े गौर से मुझे सुनते रहे, “आज जयप्रकाश की समाधि कहीं भी नहीं है. वे चाहते थे कि उनका शरीरांत पटना में गंगा किनारे हो और इस तरह हो कि गंगा सब कुछ समेट कर ले जाये. ऐसा ही हुआ. आज यह पता करना भी कठिन ही होगा कि उनका अंतिम संस्कार कहां हुआ था. गिरीश धीमे से बोले, “अच्छा, यह सब तो मुझे पता ही नहीं था. मैं जेपी को जानता ही कितना था! लेकिन कुमार, यह अपनी कोई पहचान छोड़कर न जाने वाली बात बहुत गहरी है. बहुत गहरी!”

अभी मैं सोच रहा हूं कि क्या गिरीश को यह सब याद रहा और उन्होंने भी एकदम बेआवाज़ जाना पसंद किया? अब तो यह पूछने के लिए भी वे नहीं हैं.

मैं उनको जानता था, पढ़ा भी था, मिला नहीं था कभी. इसलिए ‘धर्मयुग’ के दफ्तर के अपने कक्ष में जब धर्मवीर भारतीजी ने मुझसे कहा, “ प्रशांतजी, ये हैं गिरीश कर्नाड!, तो मैंने इतना ही कहा था, “जानता हूं!” फिर भारतीजी ने उनसे मेरा परिचय कराया. गिरीश कर्नाड ने वैसी ही आत्मीयता से हाथ आगे बढ़ाया जैसी आत्मीयता उनके चेहरे पर हमेशा खेलती रहती थी. जब तक गीतकार वसंतदेव उनसे मेरे बारे में कुछ कहते रहे, वे मेरा हाथ पकड़े सुनते रहे और फिर बोले, “मुझे बहुत खुशी हुई यह जानकर कि ऐसे गांधीवाले भी हैं.” मैंने कुछ टेढ़ी नजर से उनकी इस टिप्पणी को देखा तो हंस पड़े, मानो कह रहे हों- इसे अनसुना कर दो भाई!

यह 1984 की बात है. यह ‘उत्सव’ की तैयारी का दौर था- शूद्रक के अति प्राचीन नाटक ‘मृक्षकटिकम्’ का हिंदी फिल्मीकरण. शशि कपूर से मेरा परिचय था तो मैं जानता था कि वे ऐसी किसी फिल्म की कल्पना से खेल रहे हैं. बात गिरीश कर्नाड की तरफ से आयी थी. तब कला फिल्मों का घटाटोप था. शशि कपूर मसाला फिल्मों से पैसे कमा कर, कला फिल्मों में लगा रहे थे. मुझे कभी-कभी लगता था कि उनकी इस चाह का कुछ लोग अपने मतलब के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. ‘उत्सव’ के साथ भी कुछ ऐसा ही तो नहीं? भारतीजी बोले, “चलिये, यह भी देखते हैं!”

वे चाहते थे कि उनकी तरफ से मैं इसके बनने की प्रक्रिया को देखूं-समझूं और फिर इस पर लिखूं, “फिल्म कैसी बनेगी पता नहीं. जब बन जायेगी तब देखेंगे लेकिन संस्कृत के इस अति प्राचीन नाटक का, अहिंदीभाषियों द्वारा हिंदी फिल्मीकरण अपने आप में एक दिलचस्प विषय है जिसे आपको आंकना है. खुले मन से इनके साथ घूमिए-मिलिए-बातें कीजिये और फिर देखेंगे कि क्या बात बनती है.” मैंने बात सुनी, स्वीकार की और तब से गिरीश कर्नाड से मिलना होने लगा.  गीतकार वसंतदेव मराठीभाषी थे.

गिरीश का महाराष्ट्र से रिश्ता कुछ मज़ेदार-सा था. मां-पिता छुट्टियों में घूमने महाराष्ट्र के माथेरन में आये थे. इसी घूमने में मां ने माथेरन में उनको जन्म दिया. आज भी माथेरन के रजिस्टर में लिखा है: 19 मई 1938, रात 8.45 बजे. सो गिरीश मराठी से अनजान नहीं थे, लेकिन थे कन्नड़भाषी! भाषा का इस्तेमाल करना और भाषा में से अपनी खुराक पाना, दो एकदम अलग-अलग बातें हैं. गिरीश कन्नड़ भाषा से ही जीवन-रस पाते थे. इसलिए ही तो इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के बाद भी वे वहीं या कहीं और विदेश में बसे नहीं, भारत लौटे और जो कुछ रचा वह सब कन्नड़ में. अमेरिकी नाटककार ओ’नील ने ग्रीक पुराणों से कथाएं समेट कर जिस तरह उनका नाट्य-संसार खड़ा किया, उसने गिरीश को अचंभित भी किया और आकर्षित भी. इतिहास, राजनीति, सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराएं, मिथक, किंवदंतियां, यौनिक आकर्षण का जटिल संसार-सबको समेट कर, अपनी देशज जमीन से कहानियां निकालना और उन्हें आधुनिक संदर्भ दे कर बुनना, गिरीश कर्नाड का यह देय हम कभी भूल नहीं सकते.

‘ययाति’ और ‘तुगलक’ ने इसी कारण रंगकर्मियों का ध्यान अचानक ही खींच लिया कि ऐसी जटिल संरचना को मंच पर उतारना चुनौती थी, जिसे गिरीश ने साकार कर दिखाया था. मुझे आज भी यह कहने का मन करता है कि गिरीश कर्नाड अव्वल दर्जे के अध्येता-नाट्य लेखक थे. बहुत सधे हुए व साहसी निर्देशक थे. अभिनय में उनकी खास गति नहीं थी लेकिन वे सिद्ध सह-कलाकार थे. हिंदी फिल्मों में उनका यह रूप हम सहज देख सकते हैं. कहीं से हमें वह धागा भी देखना व पहचानना चाहिए जो उसी वक़्त मराठी में विजय तेंडुलकर, हिंदी में मोहन राकेश व बांग्ला में बादल सरकार बुन रहे थे. यह भारतीय रंगकर्म का स्वर्णकाल था. इब्राहीम अल्काजी, बीवी कारंत, प्रसन्ना, विजया मेहता, सत्यदेव दुबे, श्यामानंद जालान, अमल अलाना जैसे अप्रतिम रंगकर्मियों ने इस दौर में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया. यह भारतीय रंगकर्म का पुनर्जागरण काल था.

‘उत्सव’ को बनते देखना कई मायने में मुझे खास लगा. इससे जुड़े किसी भी व्यक्ति को संस्कृत नहीं आती थी, तो यह मात्र भाषा का सवाल नहीं था. यह उस पूरी भाव-भूमि से कट कर काम करना था जिसमें ‘मृक्षकटिकम्’ की रचना हुई थी. ये सभी रचनाकार अंग्रेजी को पुल की तरह इस्तेमाल करते थे. आपसी बातचीत भी. फिर आत्मा की जगह कहां बचती है? सब कुछ बड़ा प्लास्टिक-प्लास्टिक हो रहा था. मैंने यह शशि कपूर से भी कहा, गिरीश से भी लेकिन हुआ तो वही, जो संभव था. ‘उत्सव’ खूबसूरत फिल्म बनी जिसमें खुश्बू बहुत कम थी. ‘उत्सव’ का बनना पूरा हुआ और हमारा साथ-संपर्क भी कम-से-कम हुआ.

फिर यह भी हुआ कि गिरीश कर्नाड हमारे दौर में अत्यंत संवेदनशील मन व अत्यंत प्रखर अभिव्यक्ति के सिपाही बन गये. राजनीतिक-सामाजिक सवालों पर वे हमेशा बड़ी प्रखरता से हस्तक्षेप करते थे. निशांत, मंथन, कलियुग से लेकर सुबह, सूत्रधार आदि फिल्मों में आप इस गिरीश कर्नाड को खोज सकते हैं. मालगुड़ी डेज़ में गिरीश नहीं होते तो क्या होता, हम इसकी कल्पना करें ज़रा. वी.एस. नायपाल जिस नज़र से भारतीय सभ्यता की जटिलताओं को देखते-समझते हैं और फिसलते हुए सांप्रदायिक रेखा पार कर जाते हैं, उसे पहली चुनौती गिरीश कर्नाड ने ही दी थी, और वे भी गिरीश कर्नाड ही थे जिन्होंने ‘अर्बन नक्सल’ जैसे मूर्खतापूर्ण आरोप व गिरफ़्तारी का प्रतिकार करते हुए, बीमारी की हालत में, जब सांस लेने के लिए उन्हें ट्यूब लगा ही हुआ था, समारोह में आये थे और गले में वह पोस्टर लटका रखा था जिस पर लिखा था- मी टू अर्बन नक्सल. अपने मन की बात बोलना अगर नक्सल होना है, तो मैं भी अर्बन नक्सल हूं! वे तब संस्कृति के सिपाही की भूमिका निभा रहे थे.

मेरी आख़िरी मुलाकात कुछ अजीब-सी हुई, जब मैं किसी दूसरे से मिलने दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के रेस्तरां में पहुंचा. ढलता दिन था और मुझे खाली कुर्सियों-टेबलों की कतारों के बीच, नितांत अकेले बैठे गिरीश कर्नाड दिखायी दिये. उनका ड्रिंक सामने धरा था. देखकर लगा मुझे कि वे अकेले नहीं हैं, कहीं खोये हैं. कुछ संकोच से मैं उनके पास पहुंचा. हम मिले. कुछ पहचान उभरी, कुछ खोई. कुछ बातें, कुछ फीकी हंसी. मैंने उनका हाथ दबाया और उस तरफ निकल गया जिधर मुझसे मिलने कोई बैठा था… गिरीश रेस्तरां के रंगमंच के बीचोबीच कब तक बैठे रहे, मैंने नहीं देखा.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like