आंकड़ों में सबसे ज़्यादा दर से विकासमान राज्य स्वास्थ्य के मामले में लाचार और लापरवाह है.
आज जब बिहार से मौतों की लगातार ख़बरें आ रही हैं, तब यह सवाल ज़रूर करना चाहिए कि कई सालों से देश में कथित रूप से आंकड़ों में सबसे ज़्यादा दर से विकासमान राज्य स्वास्थ्य के मामले में इतना लाचार और लापरवाह क्यों है. इस संबंध में कुछ आंकड़ों और तथ्यों को देखा जाना चाहिए.
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Contribute1- चुनावी सरगर्मियों और लफ़्फ़ाज़ियों के दौर में अप्रैल के शुरू में ब्रूकिंग्स में एक सर्वे के बारे में लेख छपा था. बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में हुए इस सर्वे से जुड़े लोगों- श्रुति खेमानी, जेम्स हेब्यारिमाना और इरफ़ान नूरूदीन- ने यह लेख लिखा था. खेमानी विश्व बैंक की वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं तथा हेब्यारिमाना और नूरूदीन जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर हैं. इस सर्वे में एक सवाल था कि क्या लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य व पोषण पर ख़र्च के बदले अपने ख़ाते में सीधे पैसे का हस्तांतरण चाहेंगे. इस पर सिर्फ़ 13 फ़ीसदी ने हां में जवाब दिया था, जबकि 86 फ़ीसदी ने इनकार किया था. जब उनसे पूछा गया कि प्रखंड में सड़कें बनाने की जगह धन उनके अकाउंट में डाला जाये, तो क्या वे इसे स्वीकार करेंगे. इस सवाल पर हां कहनेवालों की तादाद 35 फ़ीसदी हो गयी. इसका मतलब यह हुआ कि पंचायत और प्रखंड में लोग बुनियादी चिकित्सा केंद्र के लिए बेहद आग्रही हैं.
इस सर्वे में यह भी बताया गया है कि मनरेगा के तहत जिन्हें काम नहीं मिला, पर जो काम चाहते थे, वैसे लोगों की बड़ी संख्या बिहार में है. ऐसे ग़रीब ग्रामीण परिवारों की तादाद बिहार में 79 फ़ीसदी है, जबकि इसका राष्ट्रीय औसत 44 फ़ीसदी ही है. इससे साफ़ पता चलता है कि राज्य में मनरेगा असफल है. अगर सरकार के विकास का दावा मान लिया जाये, तो यह भी मानना होगा कि विकास कार्यों में मनरेगा के तहत लोगों को काम नही दिया जा रहा है.
2- शायद यह तथ्य बहुत चौंकानेवाला हो सकता है, पर निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भरता के मामले में बिहार समूचे देश में अव्वल है. साल 2016 में द टेलीग्राफ़ द्वारा प्रकाशित नेशनल सैंपल सर्वे के आधार पर ब्रूकिंग्स इंडिया के विश्लेषण पर नज़र डालें-
सैंपल सर्वे के आंकड़े कुछ साल पुराने हैं. अगर मान लिया जाये कि कुछ सुधार हुआ होगा, तब भी यह सवाल है कि इतनी बड़ी खाई किस हद तक पाटी गयी होगी.
3- वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत के बाद सालाना 10 फ़ीसदी बजट में बढ़ोतरी की दरकार को बिहार सरकार ने लागू नहीं किया है. हालांकि, 2014-15 में बजट का 3.8 फ़ीसदी हिस्सा स्वास्थ्य के मद में था और यह 2016-17 में 5.4 फ़ीसदी हो गया, लेकिन 2017-18 में यह गिरकर 4.4 फ़ीसदी हो गया. इस अवधि में कुल राज्य बजट में 88 फ़ीसदी की बढ़त हुई थी.
4- बिहार में स्वास्थ्य ख़र्च का लगभग 80 फ़ीसदी परिवार वहन करता है, जबकि इस मामले में राष्ट्रीय औसत 74 फ़ीसदी है.
5- बिहार में एक भी ऐसा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है, जो स्थापित मानकों पर खरा उतरता हो.
6- सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों के अभाव के मामले में भी बिहार पहले स्थान पर है. साल 2015 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने जानकारी दी थी कि हर एक लाख जनसंख्या पर एक ऐसा केंद्र होना चाहिए. इस हिसाब से बिहार में 800 केंद्रों की दरकार है. पर राज्य में 200 ही ऐसे केंद्र हैं.
7- राज्य में 3,000 से अधिक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र अपेक्षित हैं, लेकिन ऐसे केंद्रों की संख्या सिर्फ़ 1,883 है.
8- एक ग्रामीण स्वास्थ्य उपकेंद्र के तहत लगभग 10 हज़ार आबादी होनी चाहिए, लेकिन बिहार में ऐसा एक उपकेंद्र 55 हज़ार से अधिक आबादी का उपचार करता है.
9- विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बिहार भारत के उन चार राज्यों में है, जहां स्वास्थ्यकर्मियों की बहुत चिंताजनक कमी है. एलोपैथिक डॉक्टरों की उपलब्धता के मामले में भी बिहार सबसे नीचे है. नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल के मुताबिक, बिहार में 28,391 लोगों पर एक डॉक्टर है, जबकि दिल्ली में यही आंकड़ा 2,203 पर एक डॉक्टर का है.
10- नेशनल हेल्थ प्रोफ़ाइल, 2018 के अनुसार, बिहार की 96.7 फ़ीसदी महिलाओं को प्रसव से पहले पूरी देखभाल नहीं मिलती है.
11- यूनिसेफ़ के अनुसार, बच्चों में गंभीर कुपोषण के मामले में भी बिहार देश में पहले स्थान पर है. साल 2014-15 और 2017-18 के बीच पोषण का बजट भी घटाया गया है.
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