विवेक से चूके लोग पहले मुज़फ़्फ़रपुर को क़ब्रगाह बनाने वाले एईएस संक्रमण को समझें

बिहार का मुज़फ़्फ़रपुर एक राष्‍ट्रीय प्रहसन का अखाड़ा बना हुआ है, जहां बीमारी से बच्चों की मौत का आंकड़ा डेढ़ सौ पार कर चुका है, कोई पक्‍के तौर पर यह बताने की स्थिति में नहीं है कि ये बच्‍चे किस बीमारी से मर रहे हैं.

WrittenBy:डॉ. ए. के. अरुण
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मर्ज़ कोई नहीं जानता, इलाज पर सवाल सब उठा रहे हैं. ऐसा हास्‍यास्‍पद परिदृश्‍य केवल अपने देश में ही संभव है. बिहार का मुज़फ़्फ़रपुर एक राष्‍ट्रीय प्रहसन का अखाड़ा बना हुआ है जहां बीमारी से बच्चों की मौत का आंकड़ा डेढ़ सौ पार कर चुका है, कोई पक्‍के तौर पर यह बताने की स्थिति में नहीं है कि ये बच्‍चे किस बीमारी से मर रहे हैं, लेकिन इस अराजक माहौल में सब रॉबिनहुड बनने की होड़ में हैं.

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मुज़फ़्फ़रपुर के एसके मेडिकल कॉलेज और अस्पताल के चिकित्सक कर्मचारी सकते में हैं. दिल्ली से पहुंचा कोई भी टीवी रिपोर्टर ऐसे पेश आ रहा है मानो वही तारणहार हो और अस्पताल में कार्यरत चिकित्सक मानो कोई अपराधी. हालत ऐसी है कि बिहार के मुख्यमंत्री भी जब उस मेडिकल कॉलेज के दौरे पर जाते हैं तो उन्हें जनता से बचकर निकलना पड़ता है. एक तो गरीबी और ऊपर से भीषण गर्मी का कहर, दोनों ने मिलकर एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) को जानलेवा बना दिया है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की हालत ऐसी है कि पटना से मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचने में उन्हें दो हफ़्ते लग गये. तब तक बच्चों की मौत का आंकड़ा सौ को पार कर चुका था. अभी-अभी संपन्न हुए चुनाव में चारों खाने चित विपक्ष अब भी खड़ा होने की स्थिति में नहीं आ सका है. दूसरी ओर सत्ता की चापलूसी करते-करते मीडिया कब बेलगाम और बदतमीज़ हो गया, यह बेचारी गरीब जनता भी नहीं समझ पायी. ब्रेकिंग न्यूज़ की सनक ने टीवी एंकरों को इतना फूहड़ बना दिया कि वे बच्चों के गहन चिकित्सा कक्ष (आईसीयू) में घुसकर डाक्टरों, नर्स, मरीज के तीमारदारों के मुंह में माइक डालकर अपनी बेहूदगी का परिचय दे रहे हैं. उन्हें न तो उनके चैनल का संपादक टोकता है और न ही टीवी पत्रकारों का संगठन.

तमाम तरह की खबरों के बीच यह जानना सबसे जरूरी है कि यह रोग आखिर है क्या बला. दरअसल, यह एईएस संक्रमण बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर, मोतिहारी, सीतामढ़ी, समस्तीपुर इलाके में हर साल गर्मी के महीने में कहर ढाता है. इस वर्ष यह ज़्यादा सुर्खियों में है. आमतौर पर छोटे बच्चों में होने वाला यह संक्रमण 15 वर्ष तक के बच्चों को ज़्यादा प्रभावित करता है. इसमें बच्चों में तेज़ बुखार, सर दर्द, शरीर में खुजली, उल्टी, देखने-सुनने की क्षमता में कमी, लकवा, बेहोशी जैसे लक्षण दिखते हैं. इस बुखार की उपस्थिति लगभग हर साल इस क्षेत्र में देखी गयी है, लेकिन इस बार स्थिति ज़्यादा विकट है. एईएस संक्रमण में दिमाग में सूजन, बेहोशी और मूर्च्‍छा रोग की जटिलता के लक्षण हैं. ऐसे में तत्काल यदि विशेष उपचार नहीं किया गया तो बच्चे की मौत हो जाती है. मुज़फ़्फ़रपुर में इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के मौत की भी यही वजह है और समुचित दवा, विशेषज्ञ चिकित्सकों की कमी, दहशत, आदि की वजह से हालात बेकाबू हैं.

एईएस के लिये जिम्मेदार विषाणु

दिमागी बुखार या इंसेफेलाइटिस के लिये जिम्मेदार वायरसों की एक लंबी फेहरिस्त है. जैसे हरपिस सिम्पलेक्स टाइप-1, (एचएसवी1) हरपिस सिम्पलेक्स टाइप-2 (एचएसवी2), इन्टेरोवायरस, इकोवायरस, बेरिसेलाजोस्टर वायरस (वीजेडबी), एइप्सटन बार वायरस (ईबीबी), साइटामेगालो वायरस (सीएमबी), एचआईवी वायरस, जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस (जेई), निपाह वायरस, हेन्ड्रा वायरस, इत्यादि. ये सभी वायरस दिमागी बुखार संक्रमण के लिये जिम्मेदार हैं. इसलिए आप देखते होंगे कि अलग-अलग जगहों पर लगभग ऐसे ही लक्षणों वाले घातक मस्तिष्क ज्वर बच्चों में फैलते हैं और काफी बच्चों की जान चली जाती है.

उत्तर प्रदेश में जापानी बुखार

लगभग इसी महीने में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, बलिया के आसपास के क्षेत्रों में बच्चों में दिमागी बुखार के संक्रमण की बीते साल काफी चर्चा थी. बच्चों की मौतों का आंकड़ा भी बड़ा था. लगभग हर साल जून-जुलाई में बच्चों में दिमागी बुखार से होने वाली मौतों की ख़बर सुर्खियों में होती थी. यहां दिमागी बुखार के लिये जेई वायरस जिम्मेदार था. इसके लक्षणों में वही बुखार, गर्दन में दर्द, अकड़न, बेहोशी, मूर्च्‍छा, आदि जानलेवा बन जाते हैं. रोग के संक्रमण के 3-5 दिनों में बच्चे की मृत्यु हो जाती है. इन्हीं इलाकों में एक और दिमागी बुखार स्वाइन फ्लू की उपस्थिति भी है.

ये सभी बुखार संक्रमण एईएस के ही अलग-अलग रूप हैं. यहां एक विवाद भी है. जापानी इंसेफेलाइटिस (जे.ई.) और एईएस दोनों के लक्षण तो एक जैसे हैं लेकिन दोनों का उपचार और उससे बचाव के टीके अलग-अलग हैं. जेई संक्रामक रोग है जबकि एईएस जलजनित रोग है. दिक्कत तब होती है जब सामान्य तौर पर यह पता ही नहीं लग पाता कि वास्तविक संक्रमण क्या है. इसी में देरी होती है और बच्चे की जान चली जाती है.

अन्य देशों में एक्यूट इंसेफेलाइटिस

जापानी इंसेफेलाइटिस की बीमारी पर जापान, मलेशिया, सिंगापुर और कोरिया जैसे देशों ने किस तरह काबू पाया, इसका भी पता नहीं चलता. बीमारी को उन्नीसवीं सदी में सबसे पहले जापान में देखा गया था. इस बीमारी का वायरस भी 1930 के दशक में पहचान लिया गया था और इस महामारी के फैलने तथा रोकथाम के बारे में भारत के वैज्ञानिकों ने भी काफी शोध किये हैं. भारतीय वैज्ञानिकों ने इसे रोकने के लिए 2012 में जेनवैक नामक जो टीका निकाला है, वह काफी असरदार है और उसके उपयोग का कार्यक्रम 2013 में यूपीए के स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आज़ाद ने शुरू किया था. चीन में बन रहे टीके का इस्तेमाल 2006 से चल रहा है, लेकिन उसके परिणाम उतने अच्छे नहीं हैं.

लोगों को जानना ज़रूरी है कि टीकाकरण के राष्ट्रीय कार्यक्रम यूनिवर्सल इम्युनाइजेशन प्रोग्राम में जापानी इंसेफेलाइटिस के प्रतिरोध का टीका भी शामिल है और इसमें देश के वे सारे जिले शामिल हैं जहां यह बीमारी पायी जाती है. यह कार्यक्रम सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में चलता है. मीडिया की किसी रिपोर्ट में इस कार्यक्रम का ज़िक्र नहीं है. यह सवाल कोई नहीं कर रहा है कि इस कार्यक्रम का क्रियान्वयन बिहार, खासकर मुज़फ़्फ़रपुर में किस तरह हुआ है? यह सवाल बिहार सरकार से लेकर केंद्र सरकार की नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व के निकम्मेपन को सामने ला देगा.

एक्यूट इंसेफेलाइटिस और टीकाकरण

यह भी जानना चाहिए कि टीकाकरण का कार्यक्रम देश के विभिन्न राज्यों में कैसा चल रहा है. टीकाकरण के कार्यक्रम बीमार कहे जाने वाले बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों में तो बुरी हालत में है ही, गुजरात भी इसे खराब तरह से चलाने वाले राज्यों में शामिल है. वहां टीकाकरण की सुविधा के अभाव वाले स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बिहार से दोगुनी है. बच्चों के टीकाकरण की दर भी पचास प्रतिशत से कम है. गनीमत है कि वहां जापानी इंसेफेलाइटिस का कहर नहीं है. भारत में विकसित टीके के बारे में भी जान लें.

नेशनल इंस्टीट्यूट आफ वायरोलॉजी और प्राइवेट कंपनी भारत बायोटेक के संयुक्त शोध से विकसित जेनवैक का उत्पादन भारत बायोटेक करता है. यह माना गया था कि यह चीन से आयात होने वाले टीके के मुकाबले काफी सस्ता होगा. सरकार इसे सस्ते में खरीदती भी है, लेकिन बाज़ार में इसकी कीमत पांच सौ से नौ सौ रुपये के बीच है और गरीब लोग इसे सिर्फ सरकारी मदद से ही उपयोग में ला सकते हैं.

क्यों बढ़ रही हैं बीमारियां

इधर देखा जा रहा है कि वर्षों पहले ख़त्म हो चुके रोग फिर से और ताकतवर होकर लौट रहे हैं. घातक रोगों को उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीवों की यह खतरनाक प्रवृत्ति होती है कि वे अपने अनुवांशिक कारक डीएनए के टुकड़े ‘‘प्लाजिम्ड्स’’ के जरिये अपने रोग प्रतिरोधक जीन को दूसरे सूक्ष्म जीवों में पहुंचाकर उनमें भी वह क्षमता उत्पन्न कर सकते हैं. ये वातावरण के अनुसार अपनी अनुवांशिकी संरचना में बदलाव भी ला सकते हैं. ध्यान रहे कि सूक्ष्म जीव ‘‘स्टेफाइलोकाकस आरस’’ बेहद शक्तिशाली एन्टीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुका है.

एक और सूक्ष्म जीव ‘‘एन्टेरोकॉकस’’ तो वैंकोमाइसिन के ख़िलाफ़ भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुका है. ये दोनों सूक्ष्म जीव अस्पतालों के कूड़ेदान में पाये जाते हैं. अब चिकित्सा वैज्ञानिकों की चिंता यह है कि ये बैक्टीरिया जब सबसे शक्तिशाली एन्टीबैक्टीरियल दवा के ख़िलाफ़ भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके हैं तो कभी भी ये सूक्ष्मजीव ही महाविनाश के कारक बन सकते हैं.

इसके अलावा कई ऐसे सूक्ष्मजीव हैं जो अब भी रहस्य बने हुए हैं. 1990 से पहले ‘‘साबिया वायरस’’ की जानकारी तक नहीं थी. ब्राजील के साबिया कस्बे में एक महिला जब इस खतरनाक वायरस की चपेट में आयी, तब इस वायरस का पता चला. इससे पहले यह वायरस चूहों में होने वाले रोगों का कारक था. ऐसे ही अमेरिका में ‘एल्टीचिया’ नामक बैक्टीरिया का पता साल 2000 में ही चला. इसके संक्रमण से उत्पन्न लक्षण सर्दी, जुकाम आदि के ही लक्षण होते हैं मगर यह जानलेवा बैक्टीरिया यदि समय पर पता नहीं लगा लिया जाये तो आपकी जान ले सकता है और इसके उपचार की दवा भी उपलब्ध नहीं है. इंग्लैंड में ‘स्ट्रेप्टोकाकस ए’ बैक्टीरिया की पहचान की गयी जिसे मांसभक्षक बैक्टीरिया भी कहते हैं. बताते हैं कि इस मांसभक्षक बैक्टीरिया से अमेरिका में ही हर साल हज़ारों मौतें होती हैं.

एक जानलेवा वायरस जिसे अभी तक नाम भी नहीं दिया जा सका है, उसे वैज्ञानिक फिलहाल ‘‘एक्स वायरस’’ कह रहे हैं. कुछ वर्ष पहले दक्षिण सूडान के आदिवासियों में देखा गया था. यह वायरस हज़ारों लोगों की जान लेकर अचानक गायब भी हो गया. मालूम नहीं कि यह कब और किस रूप में किस देश में प्रकट होगा और कितना कहर बरपायेगा. ऐसे अनेक सूक्ष्मजीव हैं जिनकी पहचान तक नहीं हो पायी है, लेकिन ये बेहद खतरनाक और जानलेवा हैं.

महामारियां और गरीबी का संबंध

साल 1995 में जारी एक रिपोर्ट में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने अत्यधिक गरीबी को अंतरराष्ट्रीय वर्गीकरण में एक रोग माना है. इसे जेड 59.5 का नाम दिया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में जहां भी गरीबी है वहां महामारियां बढ़ेंगी और महामारियों को रोकने के लिये लोगों की गरीबी को पहले ख़त्म करना होगा. विगत दो दशकों में देखा जा सकता है कि विभिन्न देशों में लोगों के बीच आर्थिक विषमता इतनी ज़्यादा बढ़ी है कि जहां एक बड़ी आबादी भरपेट भोजन नहीं कर पा रही, वहीं चंद लोगों के पास बेशुमार दौलत है. समाज में गरीबी और अमीरी की बढ़ती खाई के कारण स्वास्थ्य समस्याएं और गंभीर हुई हैं. एक आकलन के अनुसार भारत में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन में से दो बच्चे कुपोषित हैं. इन बच्चों में से 40 प्रतिशत बच्चे बिहार, झारखंड में हैं.

भारत में स्वास्थ्य की स्थिति पर नज़र डालें तो सूरत-ए-हाल बेहाल और चिंताजनक है. स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति भी खस्ता है. अन्य देशों की तुलना में भारत में कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च होता है, जबकि चीन 8.3 प्रतिशत, रूस 7.5 प्रतिशत तथा अमेरिका 17.5 प्रतिशत खर्च करता है. विदेश में हेल्थ बजट की बात करें तो फ्रांस में सरकार और निजी सेक्टर मिलकर फंड देते हैं, जबकि जापान में हेल्थ केयर के लिये कंपनियों और सरकार के बीच समझौता है. ऑस्ट्रिया में नागरिकों को फ्री स्वास्थ्य सेवा के लिये ‘ई-कार्ड’ मिला हुआ है. हमारे देश में फिलहाल स्वास्थ्य बीमा की स्थिति बेहद निराशाजनक है. अभी यहां महज 28 करोड़ लोगों ने ही स्वास्थ्य बीमा करा रखा है. इनमें 18.1 प्रतिशत शहरी और 14.1 प्रतिशत ग्रामीण लोगों के पास स्वास्थ्य बीमा है.

इसमें शक नहीं है कि देश में महज इलाज की वजह से गरीब होते लोगों की एक बड़ी संख्या है. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक शोध में यह बात सामने आयी है कि हर साल देश में कोई 8 करोड़ लोग महज इलाज की वजह से गरीब हो जाते हैं. यहां की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था ऐसी है कि लगभग 40 प्रतिशत मरीजों को इलाज की वजह से खेत-घर आदि बेचने या गिरवी रखने पड़ जाते हैं. एम्स का यही अध्ययन बताता है कि बीमारी की वजह से 53.3 प्रतिशत नौकरी वाले लोगों में से आधे से ज़्यादा को नौकरी छोड़नी पड़ जाती है.

विगत 20 वर्षों में लगभग 30 नये रोग उत्पन्न हो गये हैं, जो विभिन्न देशों में सैकड़ों करोड़ लोगों के जीवन के लिये घातक सिद्ध हो रहे हैं. इनमें से अनेक रोगों का न तो इलाज है और न ही इन रोगों से बचने का टीका उपलब्ध है. रिपोर्ट में अलग-अलग देशों में पहली बार फैले रोगों का ज़िक्र है. उदाहरण के लिये अमेरिका में पहली बार 1976 में लेजियोनाइटिस तथा क्रिप्टोस्पोरिडियोसिस, 1981 में एचआईवी एड्स, 1982 में इकोलाई 0157:एच 7, ब्रिटेन में 1986 में बी.एस.ई (पागल गाय रोग) तथा 1988 में साल्मोनेला इंटेरीडिस पी.टी.4 रोग का संक्रमण फैला. इटली के डेल्टा में 1980 में पहली बार हिपेटाइटिस डी पाया गया, 1991 में वेनेजुएला में वेनेजुएला रक्त ज्वर तथा 1994 में ब्राजील में ब्राजिलियन रक्त ज्वर का उद्भव हुआ.

भारत में 1992 में पहली बार ‘हैजा 0139’ रोग फैला. ऐसे ही जायरे में इबोला रक्त ज्वर तथा आस्ट्रेलिया में हयूमन एंड इकीनी मार्बीली वायरस नामक घातक रोगों का पता चला है, जिसमें मनुष्य का श्वसन तंत्र ही नाकारा हो जाता है. इस रोग की 1993 में जानकारी मिली. यह रोग अब अमेरिका के लगभग 20 प्रदेशों में फैल चुका है.

बहरहाल, बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में एईएस संक्रमण से तिल-तिलकर मर रहे बच्चों से यह सबक सरकारों को सीखना चाहिये कि समय रहते यदि प्रशासनिक व्यवस्था और समुचित जानकारी का ठीक से इस्तेमाल किया जाये तो रहस्यमयी बीमारियों के चंगुल से भी बच्चों को बचाया जा सकता है. दूसरा सबक यह है कि कुपोषण से ग्रस्त बच्चों के माता-पिता गरीबी की वजह से खुद अपने बच्चे का न तो पेट भर सकते हैं और न ही इलाज करा सकते हैं. ऐसे में प्रशासन को आपातकालीन प्रबंध पहले से ही रखने चाहिए. तीसरा सबक, बीमारी के मामले में चिकित्सक, प्रशासक, नेता और पत्रकार, सभी को विवेक से काम लेना चाहिए.

(लेख मीडिया विजिल से साभार)

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