संविधान का 42वां संशोधन और आपातकाल जिसने सिखायी आज़ादी और उसकी अभिव्यक्ति की कीमत

इंदिरा गांधी की सरकार ने 42वें संशोधन से संविधान में आमूलचूल बदलाव कर दिये थे जिनसे मौलिक अधिकारों का हनन हुआ. 

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किसी शायर ने कहा है ‘रात होती शुरू है आधी रात को’ हिंदुस्तान में दो आधी रातें बड़ी ऐतिहासिक कही जायेंगी. एक 15 अगस्त, 1947 की, और दूसरी 25 जून, 1975 की. पहली आधी रात जब देश में सवेरे का उद्घोष हुआ, और दूसरी जब देश और अंधेरी कंदराओं में चला गया. घटनाओं की तह में घटनाएं होती हैं, प्याज़ के छिलकों की मानिंद हर तह को उधेड़ते चले जाओ तो हाथ कुछ नहीं आता, बस बास रह जाती है. 25 जून 1975 की आधी रात को लागू हुए आपातकाल की बास आज तक महसूस की जा सकती है.

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यकीन से तो नहीं कहा जा सकता पर ये अचानक हो जाने वाली बात नहीं थी. कुछ ऐसे राजनैतिक सिलसिले बनते चले गये, जिनसे ये हादसा हो गया. हां, पर ये तय है कि इंदिरा गांधी और उनके पुत्र संजय गांधी ने मनुष्य के अवचेतन में छुपे हुए निरंकुश स्वभाव को ख़ूब उजागर किया. इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल को जायज़ ठहराते हुए संविधान में किया गया बयालीसवां संशोधन, उतना ही विवादित था जितना कि ये हादसा. पर ये भी समझें कि आपातकाल क्यों लगा?

आपातकाल और 42वां संशोधन

42वें संविधान संशोधन में कुल 59 प्रावधान किये गये थे इसीलिए इसे ‘मिनी कांस्टीट्यूशन’ भी कहा जाता है. इसकी बुनियाद, दरअसल, 40वें और 41वें संशोधन के बाद पड़ी थी. प्रश्न ये भी उठता है कि क्यों इसे लागू किया गया? बात ये कि सरकार, यानी इंदिरा गांधी, को महसूस होने लगा था कि विपक्ष और सुप्रीम कोर्ट उनके सामाजिक क्रांति के उद्देश्य में बाधक बन रहे हैं.

आपातकाल से कुछ साल पहले इंदिरा गांधी के दो अहम प्रस्ताव- राजाओं के प्रिवी पर्स बंद करना और बैंकों के राष्ट्रीयकरण को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिली थी जहां सरकार हार गयी थी. बाद में आर्डिनेंस जारी करके इन्हें लागू किया गया. इसी प्रकार जयप्रकाश नारायण का ‘परिवर्तन आंदोलन’ उन्हें खटक रहा था. इंदिरा अपने सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए निष्कंटक राज्य चाहती थीं. राजनैतिक शक्तियों के लगातार हो रहे उन पर हमले से वो विचलित हो गयीं और जब 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके चयन को ग़ैरक़ानूनी ठहराया, तब उन्हें यकीन हो गया कि कुछ ताक़तें देश को कमज़ोर करना चाहती हैं. इसके कुछ दिन बाद, 25 जून, 1975 की आधी रात को आपातकाल लागू हो गया.

सरकार ने 42वें संशोधन के ज़रिये कई जगहों पर चोट की जिनमें संविधान की प्रस्तावना, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार और मौलिक अधिकारों का हनन मुख्य थे.

संविधान की प्रस्तावना के साथ भी छेड़छाड़ कर दी गयी

प्रस्तावना के मूल रूप में तीन महत्वपूर्ण शब्द थे- सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न (सॉवरेन), लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) गणराज्य (रिपब्लिक). 42वें संशोधन में बदलाव करके समाजवाद (सोशलिस्ट), पंथनिरपेक्ष (सेक्युलर) शब्द जोड़ दिये. कमाल की बात ये है कि जहां इंदिरा ने ‘समाजवाद’ लफ्ज़ जोड़ा, वहीं उनके पिता, जवाहरलाल नेहरू तो इसमें लोकत्रांतिक शब्द भी नहीं चाहते थे.

संविधान के जानकार इस बदलाव पर दो मत हैं . कुछ मानते हैं कि ये सकारात्मक थे, तो कुछ की नज़र में बिना वजह किये गये बदलावों से संशय की स्तिथि पैदा हो गयी है. मशहूर वकील नानी पालकीवाला ने कहा था कि इसमें ‘समाजवाद’ शब्द भ्रम पैदा करता है. क्योंकि, ये प्रस्तावना है, इसमें ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘एकता’ जैसे शब्दों के कोई मायने नहीं हैं. उन्हें ये राजनैतिक जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नज़र नहीं आया.

रूसी लेखक ऐलक्जेंडर सोल्ज़िनित्सिन ने किसी और संदर्भ में लोकतांत्रिक समाजवाद की अवधारणा की बड़े पुरज़ोर तरीक़े से मुखालिफ़त की है. उनके शब्दों में लोकतांत्रिक समाजवाद सुनने में तो बड़ा अच्छा लगता है पर ये कुछ इसी तरह है जैसे उबलती हुई बर्फ़. जैसे आग बर्फ़ को पिघला देती है, समाजवाद लोकतंत्र को खा जाने के लिए आतुर रहता है. और, जैसे-जैसे लोकतंत्र कमज़ोर होता जायेगा, उत्पीड़न की ताक़तें विश्व में फैलती जायेंगी.

संवैधानिक बदलाव करके सुप्रीम कोर्ट के अधिकार छीन लिए

विधायिका को इतनी शक्तियां दे दी गयीं थीं कि वो संविधान में बदलाव कर सके. दरअसल, केशवानंद भारती बनाम सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि संविधान की आत्मा के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती. सरकार को ये बात बड़ी नागवार गुज़री. अनुच्छेद 368 में बदलाव करके सुनिश्चित किया गया कि विधायिका के द्वारा अनुमोदित बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता.

ठीक इसी प्रकार ऑफिस ऑफ़ प्रॉफिट की परिभाषा में किये गये बदलाव को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. आम भाषा में कहें तो एक मंत्री सांसद या विधायक किसी सरकारी बोर्ड या कमेटी का चेयरमैन हो सकता था और वहां से भत्ता उठा सकता था. इस पर भी अब सवाल नहीं किये जा सकते थे.

सांसद और विधायकों के चुनाव को कोर्ट में चैलेंज नहीं किया जा सकता था. हां, राष्ट्रपति के पास इसके अधिकार थे. पर साथ में व्यवस्था ये भी थी कि राष्ट्रपति कौंसिल ऑफ़ मिनिस्टर्स की राय और विवेक पर ही चलने को बाध्य था. तो कुल मिलाकर. यहां भी विधायिका सर्वशक्तिमान थी. ये सबसे बड़ी बात थी, क्योंकि चुनाव में तथाकथित गड़बड़ी के आधार पर ही तो इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस सिंहा ने 12 जून, 1975 को इंदिरा की जीत को असंवैधानिक ठहराकर देश में भूचाल ला दिया था और जिसके बाद इंदिरा ने आपातकाल लगाया था. और तो और, इस संशोधन के ज़रिये, संसद के पांच साल के कार्यकाल को 6 साल का कर दिया गया था.

केंद्र और राज्य के रिश्तों की परिभाषा बदल दी

राज्य और केंद्र के गठजोड़ को संघ कहा जाता था. भारत जैसे विशाल और बहुसांस्कृतिक देश में संघीय ढांचे यानी फ़ेडरल स्ट्रक्चर की बड़ी महत्ता है. ये कुछ-कुछ अमेरिकी व्यवस्था से प्रेरित लगती है. केंद्र कुछ एक अहम मसलों के अलावा राज्य को अपने शासन का अधिकार देता है. ठीक इसी प्रकार कर (टैक्स) की भी व्यवस्था की जाती है.

42वें संशोधन में इंदिरा गांधी ने इस रिश्ते को भी बदलने की कोशिश की. मसलन, राज्य में हिंसा रोकने और क़ानून व्यवस्था बनाने के नाम पर केंद्र केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल या सेना भेज सकता था. केंद्र ने अधिकाधिक अधिकार भी अपनी झोली में डाल लिए थे. बड़ी आसानी से राज्य सरकारें गिरा देने की व्यवस्था हो गयी थी.

मौलिक अधिकारों के ऊपर नीति निर्देशक तत्वों को तरजीह दी गयी

यूं तो ग्रैनविल ऑस्टिन, जो भारतीय संविधान के सबसे मज़बूत जानकारों में से एक हैं, के मुताबिक़ भारतीय संविधान एक सामाजिक दस्तावेज़ है और निर्देशों का लक्ष्य ‘सामाजिक क्रांति के उद्देश्यों की प्राप्ति’ है. ऑस्टिन के मुताबिक़ मौलिक अधिकार और नीति निदेशक तत्वों के बीज भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पड़े थे. अधिकार और कर्तव्यों का तवाज़ुल ही देश को आगे ले जा सकता है.

तो ज़ाहिर है जहां हमारे पास अधिकार हैं, तो कुछ कर्तव्य भी होने चाहिए. पर यहां देखने की बात ये है कि संविधान इस बात की व्यवस्था करता है कि मौलिक अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों के टकराव पर मौलिक अधिकार ऊपर माने जायेंगे! 42वां संशोधन करके इंदिरा ने मौलिक अधिकारों को दबाने का प्रयत्न किया. इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था.

देखिये कैसे, आपातकाल के दौरान कई पत्रकारों को लिखने से रोक दिया गया, प्रतिद्वंदी राजनेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया, भाषणों, हड़तालों या किसी भी राजनैतिक प्रदर्शन की मनाही थी. यानी आपके हमारे विचारों पर पाबंदी लग गयी थी, हम सत्ता का विरोध नहीं कर सकते थे. नीति निदेशक तत्वों को अधिकारों से ऊपर रखकर इस पाबंदी को जायज़ ठहराया गया था.

पहला इंटेलिजेंस फेलियर जो देश के काम आया

वाकई! ये सच है! इंदिरा गांधी को इंटेलिजेंस ब्यूरो के अधिकारियों ने यकीन दिलाया था कि मैडम आप अब चुनाव करवा लीजिये. देश में हवा आपके पक्ष में बह रही है है क्योंकि इमरजेंसी से आम जनता ख़ुश है. उनके अधिकार कम हुए हैं तो क्या हुआ? देश की तरक्की हुई है, हड़तालें कम हुई हैं, लोग समय के पाबंद हुए हैं और औद्योगिक उत्पादन बढ़ा है. जनता आज़ादी से ज़्यादा संपन्नता को तरजीह देगी.

इंदिरा इस भुलावे में आ बैठीं और इमरजेंसी के 18 महीने बाद चुनाव करवा दिये. बड़ी ज़बर्दस्त शिकस्त मिली उन्हें. वो ये भूल बैठी थीं कि 1947 के पहले भी देश में ग़रीबी थी पर तब भी जनता ने आज़ादी के लिए आवाज़ उठायी थी. कम खा लेना चल सकता है, बंध के रहना बिलकुल नहीं.

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