मानसून का मतलब

बारिश की एक-एक बूंद को सहेज कर उसे धरती की कोख में पहुंचाने का यह आखिरी वक़्त है.

WrittenBy:सुनीता नारायण
Date:
Article image

एक ही भारतीय चीज़ ऐसी है जो गांव-शहर, गरीब-अमीर में बंटे सभी लोगों के बीच फैली है. वह है मानसून, जिसे हम हर वर्ष देखने के लिए बेसब्री से इंतज़ार करते हैं. तापमान का चढ़ना और मानसून का पहले दस्तक देना, यह हर वर्ष बिना किसी बाधा के होता है. किसान बहुत ही बेसब्री से इसका इंतज़ार करते हैं, क्योंकि उन्हें नयी फसल की बुआई के लिए समय पर बारिश चाहिए.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

शहर के प्रबंधकों को भी मानसून का इंतजार होता है क्योंकि हर वर्ष मानसून की शुरुआत से पहले उनके जलाशय खाली होते हैं और शहर की जलापूर्ति सामान्य से कम होती है. हम सब भी इंतजार करते हैं, इसके बावजूद कि हम वातानुकूलित कमरों और घरों में दुबके रहते हैं. बारिश हमें झुलसा देने वाली धूप और धूल से राहत दिलाती है. यह शायद ऐसा समय होता है जब पूरा देश एक तरह की मायूसी में होता है, बारिश होने तक सांसें थमी होती हैं.

लेकिन जब मैं यह लिख रही हूं, कई तरह के सवाल मेरे दिमाग में आ रहे हैं. आख़िर हम कितना इस अवधारणा के बारे में जानते हैं, जो हर एक भारतीय के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. क्या हम वाकई जानते हैं कि बारिश क्यों होती है? क्या आपको पता है कि वैज्ञानिक खुद मानसून की परिभाषा को लेकर लड़ रहे हैं. उनके पास एकमात्र परिभाषा है जो कि एक मौसमी पवन पर आधारित है. यह पवन एक निश्चित दिशा में जब बहती है, तो मानसून आता है. जैसे ही यह पवन अपना रास्ता बदलती है वे भौचक्के रह जाते हैं.

क्या हम जानते हैं कि हमारा मानसून एक वैश्वीकृत अवधारणा है? सुदूर प्रशांत महासागर की समुद्री जलधाराएं हों या फिर तिब्बत के पठार का तापमान, यूरेशिया की बर्फ यहां तक कि बंगाल की खाड़ी का ताज़ा पानी, मानसून इन सभी से जुड़ा है और एकीकृत है. क्या हम यह भी जानते हैं कि भारतीय मानसून वैज्ञानिक इस अप्रत्याशित और विविधता वाले मानसून का ठीक से पीछा करने के लिए कितनी तल्लीनता से अध्ययन कर रहे हैं? शायद नहीं जानते. हमने स्कूल में कुछ विज्ञान पढ़ा था लेकिन असल जिंदगी में कभी नहीं. यह उपयोगिता वाले ज्ञान का हिस्सा नहीं है. हम यह सोचते हैं कि आज हमारी इस दुनिया को बचाये रखने के लिए जानने की बेहद ज़रूरत है, लेकिन हम गलत हैं. भारतीय मानसून के बारे में एक बड़े जानकार और बुजुर्ग, जो अब दुनिया में नहीं हैं, पीआर पिशोरती ने बताया था कि सालाना घटने वाली इस घटना के तहत सिर्फ 100 घंटों में समूची बारिश हो जाती है. जबकि एक वर्ष में कुल 8765 घंटे होते हैं.

इसका मतलब है कि यह हमारी चुनौती है कि हम इस बारिश का प्रबंध किस तरह से करें. पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने मानसून की इस घटना के बारे में विस्तार से बताया था कि कैसे प्रकृति इस काम के लिए अपने केंद्रित बल के बजाये कमजोर बल का इस्तेमाल करती है. ज़रा सोचिये, तापमान का छोटा सा अंतर 40,000 अरब टन पानी समुद्रों से उठाकर पूरे भारत के हजारों किलोमीटर में गिरा देता है. प्रकृति के इस अनूठे ज्ञान से बेवाकिफ़ रहना ही आज के पर्यावरणीय संकट का मूल है.

इसे समझिए

हम कोयला और ईंधन जैसे केंद्रित ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसकी वजह से स्थानीय वायु प्रदूषण और वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं. यदि हम प्रकृति के रास्ते को समझें तो हम प्रकृति के ही कमजोर ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर सकते हैं. जैसे सौर ऊर्जा और वर्षा के पानी का इस्तेमाल. हमें इंतज़ार नहीं करना चाहिए कि पानी बह कर नदियों और जलाशयों तक जाये. अग्रवाल अक्सर कहा करते थे कि बीते 100 वर्षों में मानव समाज केंद्रित जलस्रोतों जैसे नदियों और जलाशयों के इस्तेमाल पर ज्यादा आश्रित हुआ है. इसका अत्यधिक इस्तेमाल अत्यधिक दोहन को बढ़ायेगा. वह ज़ोर देते थे कि 21वीं शताब्दी में मानव को एक बार फिर कमजोर जलस्रोतों जैसे बारिश के पानी का इस्तेमाल करने की ओर बढ़ना होगा. यदि दूसरे लफ्जों में कहें तो जितना ज़्यादा हम मानसून को समझेंगे उतना ज्यादा हम समावेशी विकास को समझेंगे.

एक और प्रश्न है मेरे पास?

क्या हम यह भी जानते हैं कि मानसून के बिना कैसे जीवित रहा जाये? मैं एकदम निश्चित हूं कि आपने यह तर्क भी जल्द ही सुना होगा कि हम विकसित होंगे और हमें मानसून की बिल्कुल ज़रूरत नहीं रहेगी. यहां आपको स्पष्ट कर दें कि यह किसी भी समय और जल्दी नहीं होने जा रहा. आज़ादी के इतने वर्षों बाद और सतह पर सिंचाई के लिए सोचनीय निवेश के बाद भी बड़ी संख्या में किसान पानी को लेकर चिंतित हैं. इसका आशय है कि किसान इस मनमौजी और गैरभरोसेमंद देवता की दया पर निर्भर हैं. लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है. 60 से 80 फीसदी सिंचित क्षेत्र भू-जल पर निर्भर है. इस भू-जल को दोबारा इस्तेमाल करने के लिए बारिश के ज़रिये रीचार्ज करने की ज़रूरत होती है. इसलिए भी बारिश चाहिए. यही कारण है कि हर वर्ष जब मानसून केरल से कश्मीर या बंगाल से राजस्थान की ओर बढ़ता है और कहीं रुक जाता है तो हमारे दिल की धड़कनें थम जाती हैं या मंद पड़ कर रुक भी जाती हैं. न्यून दबाव क्षेत्र और डिप्रेशन जैसे शब्द संग्रह भारतीय शब्दकोश का ही हिस्सा हैं.

मानसून सही मायने में अब भी भारत का वित्तमंत्री है. इसलिए, मैं मानती हूं कि मानसून पर निर्भरता खत्म करने की चाह के बजाये, हमें मानसून का उत्सव मनाना चाहिए और उसके साथ अपने संबंधों को और गहरा करना चाहिए. हमारे मानसून कोश को भी ज़रूर विस्तार लेना चाहिए ताकि हम जहां भी और जब भी बारिश हो तो उसकी हर एक बूंद को इस्तेमाल में ला सकें. यह हमारा एक राष्ट्रीय जुनून होना चाहिए. बारिश की हर एक बूंद का मोल हमें समझना होगा. हमें अपने भविष्य को पानी पर निर्भरता के आधार पर बनाना होगा. चेकडैम, झील, कुएं, तालाब, घास और पेड़ हर चीज बारिश के पानी को समुद्र में जाने से रोक सकती है, उसके सफर को धीमा बना सकती है.

यदि हम ऐसा कर पाये तो हमारे अंतिम और दर्दभरे सवाल का जवाब शायद मिल जाये. हमें अपने शहर और मैदानों में बारिश का उत्सव कैसे मनाना चाहिए? आज जब बारिश नहीं होती है तो हम रोने लगते हैं. हम तब भी चिल्लाने लगते हैं जब बारिश की वजह से बाढ़ और बीमारियां आती है. शहरों में ट्रैफिक जाम होता है. जरा भयानक जलसंकट और सालाना आने वाली बाढ़ का चक्र देखिये. इसमें 2016 की बाढ़ को भी शामिल करिये, जब भारत ने हाल-फिलहाल के वर्षों की सबसे वीभत्स बाढ़ देखी है.

बदलाव सिर्फ तभी मुमकिन है जब हम दोबारा हर वर्ष गिरने वाले पानी के इस्तेमाल की कला सीख जायें. मानसून हम सभी का हिस्सा है, अब हमें इसे वास्तविक बनाना होगा.

(यह लेख डाउन टू अर्थ पत्रिका से साभार)

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like