टीवी चैनलों की ज़रूरत बन चुका है नफ़रत का कारोबार

देश के अंदर कहीं भी और किसी भी तरह की घटना होती है, तो टीवी चैनलों को उसमें संवेदनशीलता कम बल्कि उसका व्यवसायीकरण ज़्यादा दिखता है.

WrittenBy:साकेत आनंद
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

नफ़रत का कारोबार अब टीवी चैनलों की ज़रूरत बन चुका है. ऐसा लगता है कि इसके बिना अब ये धंधा नहीं चल सकता है. क़रीब 8-9 महीने पहले मैंने लिखा था कि एजेंडा सेटिंग थ्योरी किस तरीके से दर्शकों पर हावी है. उस वक़्त भी मैंने आज तक के कार्यक्रम ‘दंगल’ का एक महीने का विश्लेषण किया था. उसमें हर दो-तीन दिन में राम मंदिर पर बहस की गयी थी. अब ज़रा आज तक, ज़ी न्यूज़ और एबीपी न्यूज़ की शाम के वक़्त की बहसों का मुद्दा देखिये. हर दिन हिंदू, राम, कश्मीर, पाकिस्तान, मुसलमान, इमरान खान के आसपास ये एंकर भटकते रहते हैं. कुछ ख़ास और अधूरे तथ्यों को लेकर उसे तोड़ना-मरोड़ना लगा ही रहता है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute
imageby :
imageby :
imageby :

सांप्रदायिकता फैलाने के लिए तैयार माल बिना रुके बेचा जा रहा है. तीनों चैनलों की ये सभी तस्वीरें जुलाई महीने की हैं. सिर्फ़ इस 3 हफ़्ते में इन चटकदार विषयों पर इतनी बार बहस की गयी है, अगर आप साल के हर महीने का विश्लेषण करेंगे तो कमोबेश यही स्थिति मिलेगी. इसी जुलाई महीने में पूरा देश अलग-अलग आपदाओं से जूझता रहा है, लेकिन इन चैनलों के लिए वो आम घटनाएं रहीं. इस तरह की कवरेज का नतीजा मैं यही निकाल पाता हूं कि अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ एजेंडा चलाकर ये लोग जनता के बीच गोलवलकर और गोडसे जैसी चेतना का विकास जोरदार तरीके से कर रहे हैं और बेशक इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा सत्तारूढ़ पार्टी को हो रहा है.

आपने देखा होगा कि इसी साल फरवरी-मार्च में किस तरीके से इन्हीं लोगों ने स्टूडियो से ही भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध का शानदार प्लॉट तैयार कर दिया था. स्टूडियो के ग्राफिक्स से सिर्फ़ आग, गोला और रॉकेट ही फेंके जा रहे थे. चुनाव भी बेहद नज़दीक था. सबकुछ इतना बढ़िया हुआ कि 23 मई को एंकर्स के चेहरे पर ग़ज़ब की चमक थी. वैसे इनके राष्ट्रवादी एजेंडे में सवाल कहीं भी नहीं है, सिर्फ़ उन्माद है. अगर सवाल होता तो इसी एजेंडे में सरकार से एक बार पूछने की ज़ुर्रत करते कि पुलवामा हमले की एनआईए जांच का क्या हुआ?

देश के अंदर कहीं भी और किसी भी तरह की घटना होती है, तो टीवी चैनलों के लिए उसमें संवेदनशीलता कम, बल्कि उसका व्यवसायीकरण ज़्यादा दिखता है. पिछले महीने मुज़फ़्फ़रपुर की घटना के बारे में भी मैंने लिखा था कि वो चैनलों के लिए टीआरपी का मसला हो गया. अब जब मुज़फ़्फ़रपुर की वो घटना और उसकी चर्चा का दौर समाप्त हो गया, तो फिर स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर पिछले एक महीने में इन चैनलों पर कितनी बार चर्चा की गयी?

हाल में चेन्नई पानी की भीषण किल्लत से जूझता रहा, लेकिन इन पर चैनल क्यों बहस नहीं कर पाये. मराठवाड़ा और विदर्भ में सूखे की भीषण स्थिति पर चर्चा करने के बदले इन्होंने पाकिस्तान को मुद्दा बनाना ठीक समझा. हिंदू धर्म और राम ही इन समस्याओं का समाधान कर दें, शायद इसीलिए इस पर बारंबार बहस हो रही है. वैमनस्यता की भावना ऐसी कि स्वास्थ्य, कृषि, मानवाधिकार, आदिवासी, शिक्षा, विज्ञान, प्रदूषण सभी मुद्दे-सवाल ग़ायब हैं. बाढ़ भी इन लोगों के लिए टीआरपी मटीरियल हो जाता है. रिपोर्टर को सीने तक भरे पानी में ठेल देते हैं और चैनल में बैठकर मज़ा लूटते हैं. मैं सोच रहा था कि चैनल वाले इन एंकरों को ग्राफ़िक्स के बदले असल में चंद्रयान से भेज दिया जाता तो कितना अच्छा होता. शायद यहां कुछ बच जाता!

अब नफ़रत और वैमनस्य की एक ऐसी दीवार कायम कर दी गयी है कि अगले कई वर्षों तक यह नहीं टूट सकेगी. लोगों को एक बात साफ़ कर दूं कि इन एंकरों को इस तरह द्वेष फैलाने के पैसे मिल रहे हैं, सब प्रायोजित है. मैंने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले तक अपनी आंखों से सप्ताह में हर दिन एक ही स्क्रिप्ट और एक ही पैनलिस्टों की सूची को देखा है. वही मौलाना और वही पंडे. लेकिन आप क्यों अपनी बौद्धिकता खो रहे हैं? क्या आपके भीतर इस नफ़रत के व्यवसाय का बहिष्कार करने की हिम्मत नहीं है? क्या आपको रोज़गार, पानी, शिक्षा, स्वच्छ हवा और मूलभूत सुविधाएं नहीं चाहिए? 100 बच्चों की मौत के बाद पनपा आपका गुस्सा कहां चला जाता है? क्या आप शाम को टीवी ऑन कर देते हैं?

आप लोगों की सहायता के लिए मैं एक बार फिर प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार वाल्टर लिपमैन की एजेंडा सेटिंग थ्योरी को लिख देता हूं. पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान कई बार हमारा ध्यान इस पर दिलाया जाता है. लिपमैन ने अपनी पुस्तक “पब्लिक ओपिनियन” में लिखा था- ‘लोग वास्तविक दुनिया की घटनाओं पर नहीं, बल्कि उस मिथ्या छवि के आधार पर प्रतिक्रिया ज़ाहिर करते हैं जो हमारे दिमाग़ में बनायी गयी है/जाती है. मीडिया हमारे मस्तिष्क में ऐसी छवि गढ़ने और एक झूठा परिवेश (माहौल) बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.’

इन टीवी बहसों को लेकर वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमड़िया कहते हैं, ‘साधारण-सी बात है कि जो बुनियादी सवाल हैं, उन सवालों की तरफ़ लोगों का ध्यान न जाये, उसे हटाने के लिए अगर सबसे बड़ा मंच कोई हो सकता है तो वह मीडिया का मंच होता है. उसी भूमिका में मीडिया है और इसका उसे पैसा मिल रहा है. जो पूरी (सिस्टम की) लूट है उसमें मीडिया हिस्सेदार है, उसे हिस्सा मिल रहा है.’

अनिल कहते हैं कि इसका काउंटर यही हो सकता है कि वैकल्पिक मीडिया और लोगों का आंदोलन एकजुट हो. सिर्फ़ एक के खड़ा होने से कुछ भी नहीं होगा.

हर दूसरे दिन टीवी डिबेट में उठाये जाने वाले मुद्दों को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और ‘न्यूज़रूम लाइव’ के लेखक प्रभात शुंगलू कहते हैं, “मीडिया सरकार के बनाये हुए एजेंडे पर अपने आपको ढालने लगी है. यह शिफ़्ट पिछले 10-15 सालों में धीरे-धीरे हुई है. सरकार जैसी राजनीतिक फ़िज़ा तय कर रही है, उसी तरह प्रेस भी अब राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के चश्मे से ही सबकुुुछ देखना चाहती है.”

राष्ट्रवादी एजेंडे को लेकर शुंगलू कहते हैं, “पाकिस्तान को लेकर टीवी मीडिया शुरू से ही राष्ट्रवादी रहा है. जब से टीवी न्यूज़ चैनल्स आयेे, तभी से वे पाकिस्तान को लेकर आक्रामक और कट्टर रहे हैैं. लेकिन नयी सरकार के आने के बाद पाकिस्तान के साथ हिंदू-मुस्लिम भी इस आक्रामकता में जुड़ गया है.”

शुंगलू कहते हैं, “प्रेस का एजेंडा सरकार तय कर रही है. पूरी मीडिया सरकार के राष्ट्रवादी एजेंडे पर चल रही है. लेकिन अब भी मीडिया का कुछ हिस्सा है, जो सरकार से अलग लाइन लेकर चल रहा है. सरकार से सवाल कर रहा है, और जहां नीतियों में खोट है उसे बताकर सरकार को आईना दिखा रहा है.”

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like