मेघ ‘नाद’ या संघ ‘नाद’

मोहन भागवत के आरक्षण विरोधी विचारों को सहमति देने से पहले लॉर्ड मेघनाद देसाई को अपनी जमीन थोड़ा बदल लेनी चाहिए.

WrittenBy:अतुल चौरसिया
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एक ही चीज को अलग-अलग लोग अलग-अलग नज़रिए से देखते हैं. यह निर्भर करता है देखने वाला किस ज़मीन पर खड़ा होकर परिस्थिति का अवलोकन कर रहा है. हिंदी के प्राख्यात उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल की कालजयी रचना राग दरबारी  में इस स्थिति का बेहद मौलिक और दिलचस्प अंदाज में वर्णन मिलता है- ‘शहर का किनारा. उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था. वहीं एक ट्रक खड़ा था… जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे. पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है.’

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यह लेख मेघनाद देसाई के एक लेख से उत्पन्न विचारों की रौशनी में, एक अलग जमीन पर खड़ा होकर लिखा गया है जो 25 अगस्त को इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय पन्ने पर छपा था. लेख सर संघचालक मोहन भागवत की उस मांग को तवज्जो देकर एक अदद जवाब पाने की हसरत रखता है जिसमें उन्होंने आरक्षण को समाप्त करने की दिशा में सभी पक्षों के बीच बातचीत की पहल की है. देसाई जिस जमीन पर खड़े होकर संघ प्रमुख की हसरतों को अपनी सहमति की टेक दे रहे हैं, मैं उन्हीं हसरतों को एक दूसरी ज़मीन से देखने की कोशिश कर रहा हूं.

महज 550 शब्दों के लेख में देसाई ने जो बातें आरक्षण की प्रासंगिकता और संघ प्रमुख के समर्थन में कही हैं उसका लब्बोलुआब इतना भर है कि संघ सभी हिंदुओं को जातियों के कबीले से निकाल कर एकछत्र हिंदुत्व के साम्राज्य में बदलना चाहता है और आरक्षण का खात्मा इसकी एक अहम शर्त है.

देसाई का दूसरा तर्क है कि आरक्षण के साथ मूल दिक्कत यह है कि यह संविधान की उस भावना से बेमेल है जो देश के सभी नागरिकों को समानता का हक़ देने की बात करता है.

देसाई के लेख में एक तर्क यह भी है कि दुनिया के तमाम समाजों में आर्थिक-सामाजिक खाई है लेकिन वहां इस तरह से आरक्षण नहीं दिया जाता.

इसी आखिरी वाले तर्क से हम अपनी बात शुरू कर सकते हैं. यूएसए (अमेरिका) ने सबसे पहले अपने यहां महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए एफरमेटिव एक्शन की आधारशिला रखी. आज भी अमेरिका के आठ राज्यों को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में यह नीति जारी है. (मेरी जानकारी का जरिया गूगल है लिहाजा थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है.)

एफरमेटिव एक्शन के मूल में ऐतिहासिक अन्यायों से उपजी पीड़ा, ग्लानिबोध और प्रायश्चित का भाव है. इस संदर्भ के साथ एफरमेटिव एक्शन (भारत के संदर्भ में आरक्षण) की प्रासंगिकता को समझना जरूरी है. जिन देशों ने अपने यहां एफरमेटिव एक्शन कालांतर में समाप्त किए वो विकसित दुनिया के देश थे, तीसरी दुनिया के देशों से उनकी तुलना करना ही बेमानी है. किसी और देश ने अगर अपने यहां एफरमेटिव एक्शन को खत्म किया तो भारत को भी आरक्षण खत्म कर देना चाहिए, इस तर्क में वो जरूरी तथ्य नदारद है जिसकी भरपायी वहां के समाजों ने की है. यह बहुत महत्वपूर्ण बात है कि एक बार अगर समाज ने पश्चाताप कर लिया तो फिर सरकार के स्तर पर ज्यादा कुछ करने को नहीं रह जाता. वरना सरकारों की जिम्मेदारी बनी रहेगी.

समाजों के ग्लानिबोध को दो उदाहरणों से समझना बेहतर होगा. दिलचस्प है कि एक उदाहरण पहली दुनिया का है तो दूसरा उदाहरण तीसरी दुनिया का. पहला जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों पर किए गए अमानवीय अत्याचार के बाद जर्मन समाज में पैदा हुई ग्लानि को हमने देखा. उन्होंने नाजी प्रतीकों, चिन्हों और यादगारों को पूरी तरह से विस्मृत कर दिया. जर्मनी को इस बात का शिद्दत से अहसास था कि अगर आगे उसे बाकी दुनिया की ताल से ताल मिलाना है तो अपने अपराधों की स्वीकरोक्ति और उसका सामना करने की हिम्मत दिखानी होगी. पछतावे और अपराध का यह बोध एकदम से नहीं हुआ. युद्ध की विभीषिका ने जर्मन समाज के अवचेतन में गहरा घाव कर दिया था. बुरी तरह से चोटिल जर्मन समाज की नैतिकता ने अंतत: आत्मसमर्पण करते हुए यह स्वीकार किया कि उसे इसका प्रायश्चित करना होगा. 1963 से 65 के बीच फ्रैंकफर्ट में हुई  होलोकास्ट मामलों की अदालती सुनवाई ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की. नाजीवाद के कुकर्मों को न्याय की दहलीज तक पहुंचाने की ये कोशिश विजेता राष्ट्रों ने नहीं की थी बल्कि यह जर्मनों का अपना प्रयास था. जिन लोगों ने नाजी यातना शिविरों में भूमिकाएं निभाई थीं उन्हें जर्मनी ने ही उनके अंजाम तक पहुंचाया. यह एक समाज का प्रायश्चित था.

दूसरा उदाहरण तीसरी दुनिया के देश रवांडा का हम पाते हैं. 1994 में अल्पसंख्यक तूत्सी जनजाति के भयावह नरंसहार के बाद बहुसंख्यक हुतू समाज ने जिस तरीके से प्रायश्चित किया वह भी काबिले गौर है. नरसंहार पर न्याय के लिए गठित ‘गकाका’ अदालतों में लोगों ने स्वयं आ-आ कर अपना अपराध स्वीकार किया और बताया कि कैसे उन्होंने अपने पड़ोसी, निकटवर्ती तूत्सी लोगों की जानकारी हत्यारों को दी. आज भी रवांडा की जेलों में इस ऐतिहासिक अन्याय के करीब 1,25,000 आरोपी बंद है. बहुतों के मामले अभी सुनवाई शुरू तक नहीं हुई है. रवांडन अब अपनी जातीय पहचान सार्वजनिक रूप से जाहिर नहीं कर सकते.

इसकी तुलना में जब हम भारत को देखते हैं तो पाते है कि यहां दलितों के साथ भेदभाव और अत्याचार का इतिहास सदियों पुराना है. इसकी जड़ में हिंदू समाज की जाति व्यवस्था है जो बहुत शातिर और निर्मम तरीके से देश के संसाधनों पर पूरा हक़ कुछेक जातियों को दे देता है. हमारी समस्या जर्मनी और रवांडा से इस मामले में और ज्यादा गंभीर है कि यहां का भेदभाव धार्मिक वैधता धारण किए हुए है. लिहाजा यह समाज के ऊपरी पायदान पर मौजूद लोगों के व्यवहार में बेहद अंदर तक घुस गया है. सवर्ण जातियों के भीतर सेंस ऑफ एंटाइटलमेंट इतना ज्यादा है कि उन्हें अपने अपराधों का एहसास भी नहीं होता. इस समस्या से निपट पाना सरकारों के बूते के बाहर की चीज सिद्ध हुआ है.

दूसरी बात है कि क्या जर्मनी या रवांडा की तरह हिंदू समाज में जातीय हिंसा और अपराधों को लेकर उस तरह का कोई सामूहिक ग्लानिबोध आज तक पैदा हुआ है? क्या हिंदुस्तानी समाज ने अपनी जातीय पहचान को तिरोहित करने का कोई सामूहिक यत्न आज तक किया है? इन्हीं सवालों में आरक्षण की आवश्यकता और निरर्थकता का उत्तर छिपा है. बिहार के शंकर बिगहा और लक्ष्मणपुर बाथे नाम के गांवों में 90 के दशक में हुए दलितों के नरसंहार के सभी आरोपी आज की तारीख में अदालतों से दोषमुक्त होकर स्वतंत्र घूम रहे हैं. यानि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अभी भी इतनी सक्षम और संपन्न नहीं हो सकी है कि 50-60 दलितों की हत्या में एक अपराधी को सज़ा दे सके.

संघ का आरक्षण के प्रति नकारात्मक रवैया जगजाहिर है. उसके तर्क यही होते हैं कि सभी हिंदू एक हों और जाति को भुलाकर एक छाते के नीचे आ जाएं और एक वृहद हिंदू ब्लॉक बनाएं न की हजारों जातियों के छोटे-छोटे समूह. ये बात ‘एक हिंदू’ के चिकने-चुपड़े मुलम्मे में पेश की जाती है लेकिन हमें उसके पीछे छिपी मंशा को देखना होगा. कम से कम देसाई जैसे पब्लिक इंटलेक्चुअल को नीर-क्षीर विवेकी होना ही चाहिए.

संघ किसी अराजनीतिक उद्देश्य से ऐसा नहीं कर रहा है, यह विशुद्ध राजनीतिक क़दम है. उसकी तमाम शाखाएं उसके राजनीतिक हितों, उद्देश्यों को अंजाम देने के काम में दिन-रात लगी हुई हैं. संघ जब एक वृहद हिंदू छतरी की बात करता है जिसमें जातीय बोध लुप्त हो तब उसका मकसद होता है एक ऐसा हिंदू ब्लॉक तैयार करना जो इलेक्टोरल संख्या के लिहाज से उतना मजबूत हो जिसे चुनावी राजनीति में कोई मात न दे सके. यह संघ का राजनीतिक प्रोजेक्ट है जिसमें सत्ता का संतुलन हमेशा उसके पक्ष में झुका रहेगा.

संघ ऐसा करते समय जाति के कारण होने वाले भेदभावों की तरफ से आंख मूंद लेता है. उसके ‘एक हिंदू’ के विचार में इन सवालों का कोई जवाब नहीं है कि आरक्षण नहीं रहने पर क्या तथाकथित ऊंची जातियों के लोग दलितों के साथ उठना-बैठना, खाना-पीना शुरू कर देंगे जो अब तक अपने जातीय श्रेष्ठताबोध से उबर नहीं पाए हैं. क्या वे दलित लड़कों से ब्राह्मण लड़की के प्रेम को सामाजिक वैधता देंगे. क्या सामाजिक कार्यों का बंटवारा जातीय पहचान से परे हो पाएगा मसलन कोई ब्राह्मण क्या सीवर सफाई के काम में लगेगा या क्षत्रिय नगरपालिका के झाडूकर्मी का काम रोजाना सुबह करेगा. आखिर क्यों सीवर सफाई के काम में दलितों को अलिखित 100% आरक्षण मिला हुआ है और बाकी नौकरियों में संविधान द्वारा प्रदत्त 21% आरक्षण देने में भी अब आनाकानी हो रही है.

संघ भले ही सभी हिंदुओं के एक छतरी के नीचे लाने की बात करता है लेकिन उसका विचार सभी हिंदुओं को ही स्वीकार्य हो यह बात खुद संघ भरोसे से नहीं कह सकता. ज्यादातर दलित, आदिवासी और पिछड़े हिंदुओं में मांस खाना दिनचर्या का हिस्सा है जबकि संघ वैदिक हिंदुत्व में यकीन रखता है जहां शाकाहार की जयकार होती है. ऐसे मौकों पर संघ घोर अवसरवादिता का परिचय देता है. मसलन देश के अधिकतर हिस्सों में उसे गोमांस की बिक्री से परहेज है लेकिन गोवा और पूर्वोत्तर के मामले में वो चुप्पी धारण कर लेता है. इससे भी यह बात जाहिर होती है कि संघ के लिए एकल हिंदुत्व की छतरी कोई जातिमुक्त उदार  भारत नहीं है बल्कि यह उसका राजनीतिक प्रोजेक्ट है जिसका सारा उद्देश्य एक सुदीर्घ, अपराजेय इलेक्टोरल ब्लॉक निर्मित करना है जिसमें सत्ता का संतुलन हमेशा उसके पक्ष में झुका रहे.

देसाई कहते हैं कि आरक्षण के साथ फंडामेंटल दिक्कत ये है कि यह संविधान की उस भावना से विरोधाभास पैदा करता है जिसके मुताबिक देश के सभी नागरिक एक समान हैं फिर कुछ समूहों को आरक्षण का विशेषाधिकार क्यों. मुझे लगता है कि पूरे लेख का यह सबसे खोखला तर्क है. यह वही तर्क है जो भाजपा और संघ कश्मीर से धारा 370 हटाने को लेकर देते रहे. लेकिन वे पूर्वोत्तर के राज्यों में दिए गए इसी तरह के विशेषाधिकारों पर चुप्पी साध लेते हैं.

एक कल्याणकारी राज्य के नाते राज्य और संविधान अपने नागरिकों और संसाधनों में बंटवारे को लेकर सकारात्मक भेदभाव (पॉज़िटिव डिस्क्रिमिनेशन) को न सिर्फ जरूरी बल्कि वैध भी करार देता है, क्योंकि इस देश में लंबे समय से जातीय और सामाजिक आधार पर भेदभाव होता रहा है, जिसे कम करने के लिए राज्य को आगे आना ही होगा, विशेषकर तब जब समाज इसके लिए तैयार नहीं है.

जब देसाई अपने लेख में आरक्षण के खात्मे को समृद्धि से जोड़ते हैं या फिर इसकी 15 साल की मियाद को आगे बढ़ाए जाने के औचित्य पर सवाल खड़ा करते हैं तब वे एक और फंडामेंटल चूक करते हैं. आरक्षण समृद्धि लाने या सबको रोजगार देने का साधन नहीं है. यह अलग बात है कि मौजूदा सरकार ने 10 फीसदी आरक्षण सवर्णों को देकर इसे सिर्फ आर्थिक पक्ष से जोड़ने की कुदृष्टि फैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

वंचित और शोषित जातियों को दिया गया आरक्षण उनके सामाजिक ओहदे को बढ़ाने की कवायद थी, एक भयानक भेदभाव से भरे समाज में लोगों को बराबरी से एक दूसरे के सामने उठने-बैठने और अपनी बात रखने की कवायद था आरक्षण. 15 साल में अगर यह नहीं हुआ तो आगे यह कब तक जारी रहेगा इसका बहुत संक्षिप्त जवाब है, तब तक, जब तक कि हिंदू समाज जाति को तिरोहित करने और दलितों के साथ किए गए ऐतिहासिक अत्याचार के अपराध के लिए सामूहिक प्रायश्चित करने के लिए खुद ही तैयार नहीं हो जाता.

देसाई ने यह लेख जिस जमीन पर खड़ा होकर लिखा वह बेहद अभिजात्य और ब्राह्मणवादी ज़मीन है. संघ इस सोच का सबसे बड़ा पोषक है. संघ का समूचा चिंतन ब्राह्मणवादी है, इसमें दलित-पिछड़ी-आदिवासी संस्कृतियों को अपनी पहचान नष्ट करने के बाद ही स्थान मिलना है. इसलिए देसाईजी को सलाह है कि अगला लेख वो ज़मीन बदल कर लिखें. ट्रक सड़क के किनारे खड़ा है या सड़क के बीच में, ये बात न तो पुलिस वाला तय करेगा न ही ट्रक का ड्राइवर. इसे सिर्फ एक तटस्थ व्यक्ति ही तय तक सकता है.

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