कैसे और क्यों अपने ही देश में पहचान खोकर हम पराए और शरणार्थी हो गए: संजय सूरी

मैं एक चीज जानना चाहता हूं कि कश्मीरियों का एक हिस्सा क्यों पाकिस्तान का समर्थक हो गया? उन्हें क्या लाभ दिखता रहा?

Article image
  • Share this article on whatsapp

देखते-देखते 20 साल हो गए. 25 जून 1999 को संजय सूरी कि पहली फिल्म ‘प्यार में कभी कभी’ रिलीज़ हुई थी. तब से वह लगातार एक खास लय और गति से हिंदी फिल्मों में दिख रहे हैं.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

संजय सूरी बताते हैं,’ सच कहूं तो बचपन में कोई प्लानिंग नहीं थी. शौक था फिल्मों का. सवाल उठता था मन में फ़िल्में कैसे बनती हैं? कहां बनती हैं? यह पता चला कि फ़िल्में मुंबई में बनती हैं. मुझे याद है ‘मिस्टर नटवरलाल’ की जब शूटिंग चल रही थी तो उसके गाने ‘मेरे पास आओ मेरे दोस्तों’ में हम लोगों ने हिस्सा लिया था. बच्चों के क्राउड में मैं भी हूं. मेरी बहन भी हैं. मैं उस गाने में नहीं दिखाई पड़ता हूं. मेरी सिस्टर दिखाई पड़ती है. मेरी आंख में चोट लग गई थी तो मैं एक पेड़ के पीछे छुप गया था. रो रहा था. श्रीनगर में फिल्में आती थी तो मैं देखने जरूर जाता था. तब तो हमारा ऐसा माहौल था कि सोच ही नहीं सकते थे कि कभी निकलेंगे यहां से…’

फिर कुछ ऐसा घटा कि श्रीनगर से अचानक निकलना पड़ा. दरअसल,आतंकवादियों ने संजय सूरी के पिता की हत्या कर दी. मां ने हिम्मत से काम लिया.पांच घंटों के अंदर पिता के मृत शरीर के साथ परिवार ने घर छोड़ दिया. वे पहले जम्मू गए और फिर दिल्ली के तीस हजारी आये. पहचान खो गयी. अपने ही देश में शरणार्थी हो गए. संजय सूरी बताते हैं,’ वहां से निकलने के बाद दिल्ली में तीस हजारी के पास पांच साल तक रहे. वहां हर महीने रजिस्ट्रेशन रिन्यू कराना पड़ता था ₹500 मिलते थे हर फैमिली को. कुछ लोगों के लिए उस ₹500 का भी मतलब था. जिनके लिए नहीं था, उनको भी जाना पड़ता था. अगर रिन्यू ना कराओ तो नाम काट देते थे. 1995 में मेरी मां को कैंसर हुआ. फिर हमें लगा कि ऐसे तो नहीं रहा जा सकता. हम तो यहां जूते घिसते रह जाएंगे. मैंने कहा कि अब बंद करो यहां आना-जाना. जो होगा देखा जाएगा. शरणार्थियों के तौर पर मिलने वाली सुविधाएं छोड़ने का मन हो गया. हम तो यही नहीं सोच पा रहे थे कि अपने ही देश में शरणार्थी कैसे हो गए? हमारे लिए विस्थापित शब्द का इस्तेमाल होता था. उस दर्द को जिन्होंने भोगा है,वे ही समझ सकते हैं. 1990 के बाद पैदा हुई पीढ़ी को यह दर्द मालूम ही नहीं है. उन्हें बताया भी नहीं गया है. कश्मीर में यही बताया जाता है कि हिंदू भाग गए. मस्जिदों से वार्निंग दी जा रही थी. कत्ल हो रहे थे. भागते नहीं तो क्या करते?. कश्मीर से मेरा कोई अलगाव नहीं हुआ है. बात तो होनी चाहिए,रास्ता निकलना चाहिए, लेकिन 30 साल हो गए. अभी तक तो कोई हल नहीं निकला है.’ कडवाहट नहीं होने के बावजूद यादें सालती हैं. उन्हें भूला नहीं जा सकता. संजय सूरी मानते हैं कि ‘फोरगिव बट डू नॉट फॉरगेट’. याद रहेंगी घटनाएँ,तभी सुकझ पाएंगी.’

‘प्यार में कभी कभी’ से एक पहचान मिली,जो कश्मीर विस्थापन से खोयी पहचान की भरपाई तो नहीं कर सकी,लेकिन जीने और आगे बढ़ने का हौसला मिला. ‘झंकार बीट्स’ के बाद पहचान पुख्ता हुई और संजय सूरी ने नए रास्तों पर भी चलने का फैसला किया. फिल्मों के निर्माण और वितरण में हाथ आजमाया. अपने फ़िल्मी सफ़र के बारे में संजय कहते हैं,’लगभग 36-38 फिल्मों में काम कर चुका हूं. साथ ही फिल्में प्रोड्यूस भी की हैं. उसमें से एक ‘आई एम…’ को नेशनल अवार्ड भी मिला है. प्रोडक्शन की शुरुआत ‘माय ब्रदर निखिल’ से हुई. फिर ‘सॉरी भाई’ बनाई. वह मुंबई अटैक के समय रिलीज हुई थी. वह तो बिल्कुल बैठ ही गई थी. फिर हमने क्राउडफंड से ‘आई एम…’ बनाई. दुनिया भर से 400 लोग जुड़े थे. क्राउडफंड सिर्फ पैसों का नहीं था. वह क्रिएटिव फंड भी था. किसी ने गाना दिया, किसी ने म्यूजिक दिया, किसी ने और कुछ. फिर हमने बिकास मिश्रा के साथ ‘चौरंगा’ बनाई. इसे मामी का गोल्डन गेट अवार्ड मिला था. उसके बाद ओनीर ने ‘शब्द’ बनाई थी. मैंने ज्यादातर फर्स्ट टाइम डायरेक्टर को मौका दिया. बतौर  एक्टर मैंने ज्यादातर नए डायरेक्टर के साथ काम किया. लगभग 15-16 नए डायरेक्टर रहे. फर्स्ट टाइम डायरेक्टर के साथ काम करने में मुझे मजा भी आया.’

संजय सूरी के फ़िल्मी सफ़र पर गौर करें तो कोई योजना नहीं दिखती. खास सोच के साथ वे फ़िल्में करते रहे. वह हामी भरते हैं,’बिल्कुल सही, मेरी ऐसी फितरत ही नहीं है. अभी कुछ लोग कहते हैं कि मुझे प्लान करना चाहिए था, लेकिन मैं करता भी तो कैसे करता? मेरी पहली फिल्म भी कोई लॉन्चिंग फिल्म नहीं थी. वह तो रिंकी खन्ना की लॉन्चिंग फिल्म थी. राजेश खन्ना-डिंपल कपाड़िया की बेटी रिंकी खन्ना, डीनो मोरिया का लीड रोल था.मैं सेकेंड लीड में था.’

हां,लेकिन शुरुआत कैसे हुई? यूँ ही राह चलते तो फिल्म नहीं मिली होगी? तब का माहौल कैसा था और बाकी चीजें…अपनी परिचित हंसी के साथ संजय सूरी बताने लगते हैं,’ तब मुंबई बहुत दूर की दुनिया लगती थी. जब कश्मीर के हालात खराब हुए. मैं कश्मीर से शरणार्थी की हैसियत से निकला था. हम लोग दिल्ली आए. दिल्ली आने के बाद इच्छा जागी और सोचा क्यों ना आजमा कर देखें? एडवरटाइजिंग शुरू की तो मुंबई में प्रहलाद कक्कड़ और कैलाश सुरेंद्रनाथ मिले. मैंने राम माधवानी के साथ भी एक ऐड किया था, जिसमें विद्या बालन भी थी. इन सभी ने मेरा विश्वास जगाया कि मैं कैमरे के सामने कंफर्टेबल रहता हूं. नेचुरल रहता हूं. उन्होंने सुझाव भी दिया कि एक्टिंग में एक्सप्लोर करो. दिल्ली के शरणार्थी शिविर में रहने के बाद मुंबई आया तो ऐड वर्ल्ड में काम किया. मॉडलिंग की. एक्टिंग की मेरी शुरुआत सीरियल से हुई थी. ‘यही तो प्यार है’. यह जीटीवी का शो था. सीरियल के डायरेक्टर नीरज पाठक थे 16 एपिसोड का वह सीरियल था जिसमें गाने वगैरह भी थे. बहुत ही भव्य तरीके से उसकी शुरुआत हुई थी जीटीवी पर. ‘इंडियन हॉलीडे’ नाम का ट्रैवल शो होस्ट भी किया. दिल्ली की अनु मल्होत्रा का ट्रैवल शो था. मेरा काम देखकर ही लोग काम देते गए. ऐसे ही मुझे पहली फिल्म मिली. मेरी दूसरी फिल्म ‘तेरा जादू चल गया’ थी. वह अभिषेक बच्चन की दूसरी फिल्म थी. उसमें कीर्ति रेड्डी हीरोइन थी और मैं सेकेंड लीड में था. इस फिल्म से फिल्मों के कमर्शियल पहलू का मुझे एहसास हुआ. यह भी लगा कि अगर मेन लीड के लिए रुकना है तो इंतजार लंबा होगा. मैं ऊहापोह में था, तभी कल्पना लाजमी का फोन आया कि वह ‘दमन’ बना रही हैं . मुझे उनकी ‘रुदाली’ बहुत पसंद आई थी, इसलिए मैंने तुरंत हां कह दी. उस फिल्म में रवीना टंडन भी थीं तो मुझे लगा कि उनके साथ भी काम करने का तजुर्बा मिल जाएगा. ‘दमन’ से मेरी अल्टरनेट सिनेमा की शुरुआत हुई. ‘दमन’ के तुरंत बाद मुझे ‘फिलहाल’ मिल गई. यह मेघना गुलजार की फिल्म थी. उसमें तब्बू और सुष्मिता सेन थीं. उस समय ऐसा लग रहा था कि मैं दोनों तरह की फिल्मों का हिस्सा बन सकता हूं’. वह आगे जोड़ते हैं,’  अब लगता है कि उन दिनों मैंने बराबर संघर्ष नहीं किया. हालांकि मैं प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से मिलता रहा. कुछ और तरीके से मुझे आगे बढ़ना चाहिए था. मैं उन जरूरतों को या कहें कमर्शियल खेल को समझ नहीं पाया. मुझे खेल खेलना आता नहीं था. मैं सीधे जाकर मिल लेता था और उम्मीद करता था कि वे मुझे बुलाएंगे. एक अंतराल के बाद जब ‘झंकार बीट्स’ आई, तब थोड़ी पहचान बनी. उस फिल्म से सुजॉय घोष स्थापित हो गए. फ़िल्म भी चली. शायद डायरेक्टरों को भी मेरा काम पसंद आता था, इसलिए उनमें से कुछ ने रिपीट भी किय. काम चलता रहा. मैं आगे बढ़ता रहा. फिल्में करता रहता हूं. अब तो वेब सीरीज भी कर रहा हूं.’

हिंदी फिल्मों में कास्टिंग यानि कलाकारों के चयन की अनकही प्रक्रिया है. अपना अनुभव सुनाते हैं संजय सूरी,’फिल्में प्रोड्यूस करने के बाद मैं फिल्मों की इकोनॉमी समझने लगा. फिर मेरी समझ में आया कि कास्टिंग तो आर्थिक कारणों और शर्तों से होती है. टैलेंट के अलावा भी कुछ चीजें काउंट करती हैं. जो घोड़ा दौड़ रहा हो, उस पर पैसे लगाए जाएंगे. आप से आगे चलने वाला गिर गया तो हो सकता है आप आगे निकल जाए. शुरू में थोड़ी उलझन जरूर रही. बाद में मैं भी रियलिस्ट हो गया. मैंने खुद को समझा लिया. मैं हमेशा बहुत पॉजिटिव रहा हूं. मैंने एक्टिंग के साथ प्रोडक्शन स्टार्ट कर दिया. डिस्ट्रीब्यूशन भी स्टार्ट कर दिया और भी बहुत कुछ करता रहा.’

ऐसा भी तो हो सकता है कि आपकी भिन्न गतिविधियों को देखकर लोगों ने एक्टिंग के ऑफर देना बंद कर दिया हो? और फिर आप इतने मृदुभाषी हैं आप की छवि सादगी की है हिंदी फिल्मों के अभिनेता में जो आक्रामकता होनी चाहिए वह आप में नहीं है.संजय सूरी हँसते हुए स्वीकार करते हैं,’मेरे अंदर आक्रामकता नहीं है. मैं रणवीर सिंह तो हो नहीं सकता. उन्हें वह शोभा देता है. वे उसे अच्छी तरह कैरी करते हैं. लोगों ने मुझसे कहा था कि प्रोड्यूसर बनने के बाद फिल्मों के ऑफर कम मिलते हैं. पहले मैंने माना नहीं था, बाद में स्वीकार कर लिया. वैसे फरहान खान ने तो शुरुआत डायरेक्टर से की थी. हां, लेकिन उनसे तुलना नहीं की जा सकती. वे एक दूसरे लेवल पर ऑपरेट करते हैं. मुझे प्रोड्यूसर बनने का नुकसान हुआ. मैंने सुना भी कि भाई यह तो प्रोड्यूसर है. पता नहीं एक्टिंग करेगा कि नहीं करेगा? अब देखें कि आमिर खान ने भी ‘धोबी घाट’ बनाई. मैंने ‘आई एम…’ बनाई. उनसे किसी ने सवाल नहीं किया. वह एक्टर बने रहे. मैं सवालों के घेरे में आ गया. मुझे कम फिल्में मिलीं. मैं मानता हूं कि मैंने कुछ गलत डिसीजन लिए ,लेकिन किचन चलाना भी जरूरी था. हालांकि मेरी जरूरतें ज्यादा नहीं हैं. साधारण सी गाड़ी चलाता हूं. साधारण सी जिंदगी जीता हूं. मेरी कोई एयरपोर्ट लुक नहीं होती.’

आपकी बहुत सादा छवि है और आपको किरदार भी ऐसे ही सादे -सादे मिले. संजय सूरी सहमति जाहिर करते हैं,’जी ऐसा हुआ है और मैंने वैसे ही फिल्में शायद पसंद भी कीं. अब जैसे अश्विनी चौधरी की ‘धूप’ में बहुत छोटी भूमिका थी मेरी, लेकिन मुझे अच्छी लगी. मैंने वह फिल्म की. मुझे तो लगता है किरदारों ने मुझे चुन लिया. मैंने उन किरदारों को कम चुना है. मुझे सरप्राइज करने वाले किरदार नहीं मिले. ‘सिकंदर’ में नेगेटिव किरदार था, लेकिन उसे सही रिलीज़ और सफलता नहीं मिली.’

इन अनुभवों के बावजूद संजय सूरी अपने फ़िल्मी सफ़र से संतुष्ट हैं. वे कहते हैं, ‘मैं खुद में तो बहुत संतुष्ट हूं. 20 साल हो गए. शुरुआत में केवल यही मनाता था कि चार-छह महीने में वापस ना जाना पड़े. एक संतुष्टि तो है कि मैं चलता रहा. आज भी मुझे फिल्में और वेब सीरीज मिल रहे हैं. आज भी मैं काम से दूर नहीं हुआ हूं. कुछ ऐसी फिल्मों से जुड़ा हुआ हूं, जिनका जिक्र लंबे समय तक चलेगा. मैं आगे भी ऐसा करता रहूंगा. मुझे जब भी मौका मिलेगा मैं अपने सफर को आगे बढ़ाता रहूंगा. मेरी स्थिति और प्रकृति ऐसी नहीं रही कि मैं लंबा इंतजार कर सकूं. मैं दो सालों का इंतजार नहीं कर सकता था. कश्मीर से जब निकला था तो मन में यही था कि फिर से पीछे लौटना ना पड़े. आगे बढ़ते रहना है. जो अच्छा लगा वही किया. सही और गलत की जानकारी तो बाद में लगी. मैंने जिंदगी में कभी कोई अफसोस नहीं किया. कभी किसी बात का पछतावा नहीं रहा. मैंने अपने सारे निर्णय सोच-समझ के ही लिए हैं.’

संजय सूरी कश्मीर के हैं. एक अन्तराल के बाद वह कश्मीर के जीवंत संपर्क में हैं. ताज़ा घटना और गृह मंत्री अमित शाह के चौंकाने वाले फैसले के दो दिनों पहले उन्होंने अपनी मां को बुला लिया था. कश्मीर के बारे में बातें करते हुए वह यादों की गलियों से गुजरते हैं. वह बताते हैं,’ नौवें दशक का कश्मीर तो बहुत खूबसूरत था ही. शांति भी थी. उस दिनों हर किस्म के फूल खिलते थे. सभी साथ रहते थे. 1987-88 के बाद हालात बिगड़ने शुरू हुए. उसके पहले कभी-कभार झडपों की खबर आ जाती थी. तब सोशल फैब्रिक बहुत अच्छा था. हिंदू भी थे. मुसलमान भी थे. सिख भी थे. 1989 के बाद वहां गड़बड़ी शुरू हुई. हिंदुओं की हत्याएं हुई. बहुत तेजी से हालत खराब हुए. कुछ महीनों के अंदर सब कुछ अनियंत्रित हो गया. हमें बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि इस स्तर तक हालत बिगड़ेगी. मैं 19 साल का लड़का था. हमारी तो समझ में नहीं आया कि हम पराए कैसे हो गए. हम एक ही स्कूल में जाते थे. हम एक सी किताबें पढ़ते थे. ऐसा कैसे हुआ कि हमारा झुकाव हिंदुस्तान की तरफ हो गया और उनका झुकाव पाकिस्तान की तरफ हो गया. यह तो धार्मिक विभाजन ही हुआ ना? मुझे याद है कि जब जिया उल हक मरे थे तो कश्मीर में शटर डाउन हो गए थे. इंडिया और वेस्टइंडीज के बीच मैच चल रहा है तो वेस्टइंडीज के लिए तालियां बज रही थीं. एंटी इंडिया सेंटीमेंट था, लेकिन वह इस लेवल का नहीं था. क्योंकि तब हिंदू-मुसलमान सब घुले-मिले हुए थे. मेरे पिताजी किस्से सुनाए करते थे कि हमारे दरवाजे खुले रहते थे. कोई ताला नहीं लगता था. कहीं चोरी नहीं होती थी. 1988 के पहले कोई क्राइम नहीं था. मेरी पर्सनल फीलिंग और एक्सपीरियंस यही है कि हमें टारगेट किया गया. रातों को मस्जिदों से लाउड स्पीकर से बोलने लगे कि काफिरों भाग जाओ. वह तो बहुत ही खौफनाक अनुभव था. उस समय के हालात की बात सोचते और कहते हुए हम जब भी बताने लगते हैं तो लोग कहते हैं कि तुम विष फैला रहे हो. मेरा अनुभव तो यही रहा कि फर्क हमने नहीं किया था. फर्क उन्होंने किया था. दोस्तों से मैंने पूछा कि हमें टारगेट कैसे कर दिया? उनके पास जवाब नहीं था. हम भी कश्मीर के भूमिपुत्र थे. हिंदुओं के निकलने के बाद सत्ता समर्थक मुसलमान टारगेट किए गए. अमीर मुसलमानों पर आक्रमण हुए. फिरौती का धंधा तेज हो गय . फिर हालात इतने बिगड़े कि केंद्र सरकार भी नहीं संभाल सकी.’

क्या पूरे मामले को लेकर आपके अंदर कोई कड़वाहट है? संजय सूरी साफ़ कहते हैं,’ मेरे अंदर कोई कड़वाहट नहीं है, मैं जाता रहा हूं. मेरे अभी भी दोस्त हैं. 2008 के बाद से तो लगातार जा रहा हूं. वहां बहुत अपनापन मिलता है. मेरी एक ही मांग है कि एक की ही बात ना सुनें, दूसरे की भी बात सुनें. स्वतंत्र भारत का वह सबसे बड़ा नरसंहार है. उसे आप कैसे भूल सकते हैं. मेरा मानना है कि माफ कर दें लेकिन भूले नहीं. बातें याद रहती है तो एक परिप्रेक्ष्य मिलता है. माफ करने के बाद से एक स्वीकार की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है. मेरे पिता के वहां हत्या हुई. वह तो आ नहीं सकते वापस. मेरे अंदर कोई नकारात्मकता नहीं है. बस एकतरफा कहानी ना सुने. दोनों तरफ की बातें सुने.’

मैं एक चीज जानना चाहता हूं कि कश्मीरियों का एक हिस्सा क्यों पाकिस्तान का समर्थक हो गया? उन्हें क्या लाभ दिखता रहा? यह पूछने पर संजय जवाब देते हैं,’ मुझे तो एक ही धार्मिक कारण समझ में आता है. पार्टीशन और आजादी के बाद जब कबाली आ गए तो कश्मीर के राजा ने कहा कि वह हिंदुस्तान में शामिल होंगे. कुछ मुसलमानों को लगता रहा होगा कि पाकिस्तान मुस्लिम देश है, इसलिए वहां से जुड़ाव् होना चाहिए. और फिर कश्मीर का कुछ हिस्सा पाकिस्तान में चला गया. ऐसा भी नहीं था कि कश्मीर का हर मुसलमान पाकिस्तान से जुड़ना चाहता था. उन दिनों तेजी से प्रचार किया गया कि भारत ने कब्जा कर लिया है. समझौते के तकनीकी बारीकियों को किसी ने समझा ही नहीं और ना ढंग से समझाया कश्मीरियों को समझाया गया. 370 लागू हो गया. पंडित नेहरू से हो गई गड़बड़ी. 70 सालों के बाद अब चीजें बदली हैं तो नई समस्या दिख रही है. किसी बच्चे से खिलौना भी छीन ले तो वह रोएगा ही. यहाँ तो सुविधाओं की बात है. 1990 के बाद दो-तीन जनरेशन तो बर्बाद हो गए. जो बच्चे उसके बाद पैदा हुए, उन्होंने तो हमेशा तनाव ही देखा. उनका तो माइंडसेट ही अलग है. उन्हें इतनी जल्दी नहीं सुधार नहीं सकते हैं. न जाने कितने साल लगेंगे?’

तो क्या 370 हटने से कोई फायदा होगा? संजय की राय में,’वक्त लगता है. पीढ़ियां लगेंगी. राइट हैंड ड्राइविंग करते रहे हो और अचानक से लेफ्ट हैंड आ जाए तो आसानी तो नहीं होगी. लद्दाख और जम्मू में तो जल्दी शांति आ जाएगी, लेकिन वैली में वक्त लगेगा. शिक्षा हो,इंडस्ट्री हो, रोजगार हो… इसमें तो वक्त लगेगा. हालांकि वहां पर्यटन, हैंडीक्राफ्ट और फलों की अच्छी-खासी इंडस्ट्री है. फिर वहां के लोगों को थोड़ा एक्सपोजर मिले, कश्मीर ऐसी जगह है, जिसे बेचना नहीं पड़ता. गोवा और कश्मीर देश के टूरिज्म आकर्षण है. एक डर तो है कि कहीं और ज्यादा एंटी इंडिया माहौल ना हो जाए?’

संजय सूरी पंडितो की कश्मीर वापसी के बारे में कहते हैं,’अभी मुश्किल है. कैसे जाएगा कोई पंडित? अभी तो और दिक्कतें होंगी. अभी तो हो सकता है कि पंडित जाएं और उन्हें सुनने को मिले कि भाई बड़े खुश हो रहे थे. चलो, अब बताते हैं. दूसरे जो बच्चे कश्मीर के बाहर पैदा हुए हैं. उनका कश्मीर से कोई कनेक्ट नहीं बनेगा. मुझे लगता है कि पूरे पहलू को बहुत ही संवेदनशील तरीके से संभालना होगा. यह आसान काम नहीं है. कश्मीर के लोग अपनी स्थितियों से ही बहुत परेशान हैं. जान-माल का खतरा लगा रहता .है यह देखना पड़ेगा कि क्या संदेश जा रहा है और क्या माहौल बन रहा है?

खुद के बारे में संजय सूरी बताते हैं,’ हां,मेरी एक टांग तो वहां. जरूर रहेगी 2008 से लगातार जा रहा हूं. वहां एक फीलिंग तो आती है कि हम अकेले हैं. हालांकि हमारे पड़ोसी बहुत अच्छे हैं. आना-जाना है. मिलना-बैठना है. अगर मुझे मौका मिले तो मैं फिल्मों के जरिए वहां कुछ करना चाहूंगा. स्किल डेवेलप करने में काम करूंगा. जिन की नजर हमारी प्रॉपर्टी पर है, वे सवालिया निगाहों से देखते हैं कि देखो आ गए. वह एक अलग मसला है.’

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like