दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के चलते दिनोंदिन जल संकट गहराता जा रहा है, इसका बुरा असर न केवल पानी की उपलब्धता पर पड़ रहा है, बल्कि गेहूं, धान जैसी फसलों पर भी पड़ रहा है,
आज दुनिया के 15 फीसदी गेहूं उत्पादक क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे हैं, यदि इसकी रोकथाम के लिए व्यापक कदम नहीं उठाये गए तो इस सदी के अंत तक यह आंकड़ा 60 फीसदी के पार चला जायेगा. जिसका गंभीर परिणाम न केवल कृषि क्षेत्र को झेलने होंगे, बल्कि सम्पूर्ण मानव जाति पर इसका बुरा असर पड़ेगा.
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Contributeजर्नल साइंस एडवांसेज में छपे एक नए अध्ययन से पता चला है कि यदि जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए गए तो दुनिया का 60 फीसदी से अधिक गेहूं उत्पादक क्षेत्र इस सदी के अंत तक भयंकर सूखे की चपेट में होंगे और इसके व्यापक व गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे.
गेहूं दुनिया की सबसे बड़ी वर्षा आधारित फसल है. जो कि मनुष्य जाति के भोजन की 20 फीसदी कैलोरी की मांग को पूरा करती है. दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग के चलते दिनोंदिन जल संकट गहराता जा रहा है, इसका बुरा असर न केवल पानी की उपलब्धता पर पड़ रहा है, बल्कि गेहूं, धान जैसी उन फसलों पर भी पड़ रहा है, जो बारिश पर निर्भर हैं.
हालांकि पेरिस समझौते के अनुरुप कार्रवाई करने से इस नकारात्मक प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग की दर यही रही तो 2041 से 2070 के बीच गेहूं उत्पादक क्षेत्रों पर पड़ने वाला यह प्रभाव आज के मुकाबले दोगुना यानी लगभग 30 फीसदी अधिक हो जाएगा.
वहीं दूसरी तरफ बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए कृषि क्षेत्र पर दबाव और बढ़ जाएगा क्योंकि 2018 में जहां वैश्विक जनसंख्या 760 करोड़ थी, उसके 2050 तक 990 करोड़ हो जाने के आसार हैं. जिसके परिणामस्वरूप, भोजन की वैश्विक मांग में 70 फीसदी का इजाफा हो जाने की संभावना है.
खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार बढ़ती वैश्विक जनसंख्या के चलते 2050 तक अनाजों की वार्षिक मांग लगभग 43 फीसदी बढ़ जाएगी. जो की 2006 में 210 करोड़ टन से बढ़कर 2050 में 3 करोड़ टन हो जाएगी. भू विज्ञान विषय के एसोसिएट प्रोफेसर और जर्नल साइंस एडवांस में छपे इस अध्ययन के दूसरे प्रमुख लेखक सॉन्ग फेंग ने बताया, ‘‘भविष्य में गेहूं उत्पादक क्षेत्रों पर गंभीर सूखे का खतरा आज की तुलना में चार गुना अधिक बढ़ जायेगा. जो कि खाद्य उत्पादन प्रणाली के लिए एक बड़ा खतरा है.’’
शोधकर्ताओं के अनुसार मौसम के पैटर्न को देखते हुए यह लगता है कि वर्तमान में गंभीर सूखा, गेहूं उत्पादक क्षेत्रों के 15 फीसदी हिस्से पर अपना प्रभाव डाल रहा है.
अध्ययन के अनुसार भले ही ग्लोबल वार्मिंग में हो रही वृद्धि पेरिस समझौते के अनुरूप (औद्योगिकीकरण से पहले के तापमान से केवल 2 डिग्री सेल्सियस अधिक) हो, लेकिन इसके बावजूद वैश्विक उत्सर्जन में की गयी यह कटौती विश्व के गेहूं उत्पादन क्षेत्र के 30 फीसदी हिस्से को गंभीर सूखे कि चपेट में आने से नहीं बचा सकती. जो कि स्पष्ट रूप से यह दिखाता है कि भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग, खाद्य उत्पादन को बड़े स्तर पर प्रभावित करेगी.
इस विश्लेषण के लिए फेंग और उनके सहयोगियों ने 27 जलवायु मॉडलों का विश्लेषण किया है, जिनमें से प्रत्येक के तीन अलग-अलग परिदृश्य थे. जिनके अध्ययन से पता चला है कि ऐतिहासिक रूप से दुनिया भर में गंभीर सूखे से प्रभावित कुल क्षेत्र और खाद्य कीमतों के बीच एक गहरा नाता है.
आंकड़े दिखाते हैं कि अतीत में अधिक व्यापक सूखे का मतलब सीधे तौर पर खाद्य पदार्थों की ऊंची कीमतों से हैं. वहीं फेंग ने बताया, “यदि केवल एक देश या किसी क्षेत्र विशेष में सूखा पड़ता है तो इसका सीमित प्रभाव पड़ता है, लेकिन अगर सूखे से कई क्षेत्र एक साथ प्रभावित होते हैं, तो यह वैश्विक उत्पादन और खाद्य कीमतों को प्रभावित कर सकता है, साथ ही खाद्य असुरक्षा को जन्म दे सकता है.”
(यह लेख डाउन टू अर्थ की अनुमति से प्रकाशित)
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