नागरिकता रजिस्टर का उलटा पड़ता दांव

सरकार व पार्टी की सोच थी कि प्रतीक हजेला और भावी नागरिकता रजिस्टर को अपनी मुट्ठी में कर लेगी, लेकिन यह संभव नहीं हुआ.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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भारत के सर्वोच्च न्यायालय का यह नया ही चेहरा था जो उस दिन दिखाई दिया जब सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई ने निर्देश दिया कि असम में नागरिकता का रजिस्टर तैयार करने वाली व्यवस्था के प्रमुख प्रतीक हजेला को तुरंत असम से स्थानांतरित कर, सबसे लंबी अवधि के लिए मध्य प्रदेश भेज दिया जाए. फैसला बेहद चौंकाने वाला था.

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भारत सरकार के एटर्नी जेनरल केके वेणुगोपाल भी चौंके, और अदालत में ही पूछा- “क्या ऐसा करने का कोई कारण है?”

“कोई भी फैसला बिना कारण नहीं होता है,” सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कड़ा जवाब दिया.

नागरिकता का रजिस्टर बनाने का काम असम से शुरू हुआ था और जब से यह शुरू हुआ, इसने असम का सामान्य नागरिक जीवन दूभर बना दिया है. 50 हजार से ज्यादा अधिकारियों की फौज के साथ, लंबी मेहनत के बाद प्रतीक हजेला ने जो रजिस्टर जारी किया है उससे सबसे अधिक आपत्ति इस कसरत की जनक भारतीय जनता पार्टी को है. वह कहती है कि जिन 3.11 करोड़ लोगों को असम का वैध नागरिक माना गया है उनमें कई विदेशी हैं और जिन 19 लाख लोगों को अवैध बता कर रजिस्टर से बाहर किया गया है, उनमें बड़ी संख्या में वैध नागरिक हैं.

भारतीय जनता पार्टी दरअसल चाहती थी कि वैध नागरिकों की पहचान के बहाने ‘मुसलमान शरणार्थियों’ को असम से बाहर किया जाए. आप जिन्हें अवैध कह रहे हैं उन्हें अवैध मानने का आधार क्या है? दो कौड़ी की वकत न रखने वाले जिन और जैसे दस्तावेजों को आधार बनाने की बात कह गई है, उसे मान कर चलें तो असम तो छोड़िए, देश के कितने लोगों के पास वे दस्तावेज हैं, जरा हम इसी का ईमानदार सर्वे कर लें.

फिर यह भी सवाल अनुत्तरित है कि आप जिन्हें अवैध ठहराएंगे उन लोगों को आप कहां बाहर करेंगे? पाकिस्तान में या बांग्लादेश में? क्या उनसे बातचीत हो  गई है कि वे आपके अवैध लोगों को अपना वैध नागरिक मान कर वापस ले लेंगे? क्या आप दुनिया भर से निकाले जाने वाले भारतीयों को, अरे, माफ कीजिएगा, हिंदुओं को वापस लेने को तैयार हैं? जरा यह सर्वे भी कर लीजिए कि कितने भारतीय नागरिक, माफ कीजिएगा, कितने भारतीय हिंदू उनके लिए अपनी जमीन, अपने घर का एक कोना, अपनी जायदाद का एक हिस्सा, अपने बाजार में उनके रोजगार की व्यवस्था करने को तैयार हैं?

विभाजन से पहले और बाद को अगर आप ‘कट ऑफ डेट’ बनाते हैं तो कितने हिंदू कटेंगे इसका अंदाजा है आपको? सर्वोच्च न्यायाधीश असमी रंजन गोगई ने यह सब सोच कर राजनीति का उथला खेल खराब कर दिया. उन्होंने सारा मामला अपने हाथ में ले लिया और मध्य प्रदेश के 48 वर्षीय प्रतीक हजेला को, जो असम-मेघालय कैडर के आइएएस अधिकारी हैं, इस काम का प्रभारी बना कर असम भेजा.

पहले दिन से ही सर्वोच्च न्यायालय की यह भूमिका, उसका स्पष्ट निर्देश, प्रमुख अधिकारी के रूप में प्रतीक हजेला का चयन आदि असम के राजनीतिक दलों को रास नहीं आ रहा था. फिर राजनीति ने करवट ली. कांग्रेस को हरा कर, असम में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी. कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में गये सर्वानंद सोनोवाल जैसा चतुर व्यक्ति मुख्यमंत्री बना. सरकार व पार्टी ने सोचा कि इस प्रतीक हजेला को और भावी रजिस्टर को हम अपनी मुट्ठी में कर लेंगे. लेकिन यह संभव नहीं हुआ. हजेला न्यायालय के निर्देश से अलग कुछ भी करने को तैयार नहीं हुए.

रजिस्टर बनता रहा, असम का एक-एक नागरिक हैरान-परेशान व असहाय कर दिया गया. सबसे अधिक परेशानी मुसलमानों को हुई जिन पर बांग्लादेशी होने का इल्जाम था और हिंदुत्ववादी आमादा थे कि इस इल्जाम के साथ ही उन्हें देश से बाहर कर दिया जाए. लेकिन प्रतीक का रजिस्टर कुछ दूसरी ही कहानी कहने लगा. तनाव बढ़ा, खींच-तान बढ़ी. जो मानवीय समस्या थी वह राजनीति की कुचालों में दबने लगी. रजिस्टर जिस रोज जारी होने वाला था उसी रोज प्रतीक हजेला को यह संदेश मिला कि वे प्रेस में जाने से पहले मुख्यमंत्री से मिल लें. हजेला जानते थे ऐसी मुलाकात का मतलब. इसलिए उन्होंने यह मुलाकात टाल दी और असम की वैध नागरिकता का वह रजिस्टर जारी हो गया जिसे कोई भी जारी करना नहीं चाहता था.

जब तैयारी सारे देश को असम बनाने की चल रही है, यह मक्खी निगली कैसे जाए, यह सवाल खड़ा हो गया है. नागरिता का रजिस्टर इस भूत-भय में से पैदा हुआ था कि असम में भारी संख्या में बांग्लादेशी घुस आए हैं और हालात ऐसे बन रहे हैं कि असम, असम न रह कर ‘बांग्ला असोम’ हो जाएगा. चीख-चीख कर पूछा जा रहा था (गृहमंत्री अमित शाह को आप सुनेंगे तो मान जाएंगे कि प्रधानमंत्री ही नहीं, गृहमंत्री बनने के साथ ही चीखने की कला में कितना इजाफा हो सकता है.) कि क्या आप अपने देश को विदेशियों का चारागाह बनते देखते रह सकते हैं?

जवाब चुप्पी के अलावा दूसरा क्या हो सकता था. कोई आपसे पूछे कि क्या आप सच में सच बोलने वाला समाज नहीं चाहते हैं, तो जिनका हर दिन झूठ बोलने से ही शुरू होता है, वे भी कहेंगे तो यही न कि समाज तो सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जैसा ही होना चाहिए. ऐसा ही नागरिकता के रजिस्टर के साथ हुआ. बांग्लादेशियों की घुसपैठ का सवाल उठा कर जैसी राजनीति असम में हुई, कई नये नेता और उनकी एक नई सरकार जिस सवाल के बल पर असम में पैदा हो गई उसके बाद कोई कैसे नागरिकता के रजिस्टर का विरोध करता.

कांग्रेस घुसपैठियों की तरफ से आंख मूंदने से सत्ता में आती रही थी; युवाओं (महंता) की सरकार घुसपैठियों का डर दिखा कर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर गई थी; आज की सरकार घुसपैठियों को असम से निकाल बाहर करने का नारा लगा कर सत्ता में आई है. सत्ता ही सत्य है, और यह सत्ता जिस भी नाम-नारे से मिलती हो, वही सत्य है. लेकिन सत्य का सत्य यह है कि उसके साथ मिलावटी माल खपाया नहीं जा सकता है.

संसार के हम सारे इंसान शरणार्थी हैं. आज जहां हैं वह एक पड़ाव मात्र है. आगे की मंजिल तक जाना है जहां से आगे भी कोई सफर है. इस नजर से देखें तो धरती पर राष्ट्र-राज्यों की खींची गई सारी लकीरें बेमानी हो जाती हैं. लेकिन हम चाहें, न चाहें यह भी एक सत्य है कि धरती पर हमने जितनी गहरी लकीरें खींच रखी हैं उसने एक मानसिक-प्रशासनिक विभाजन तो बना ही दिया है. उसकी जरूरत और उसकी मर्यादा को ध्यान में रखते हुए हमें इस समस्या की तरफ देखना चाहिए.

हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि हमारी आजादी का जन्म ही शरणार्थियों की कोख से हुआ है. विभाजन की राजनीतिक चालों-कुचालों के कारण अनगिनत लोग उधर की जमीन से उखड़ कर इधर, और इधर की जमीन से उखड़ के उधर गये. ये लाचार या बेसहारा या घुमंतू लोग नहीं थे. ये सभी अपने देश-समाज के जिंदा व आधिकारिक सदस्य थे जिन्हें राजनीतिक आकाओं की वजह से अपनी जगहें छोड़नी पड़ी थीं. तेज आंधी में उड़ते पत्ते क्या अपनी जड़ों की जिद कर सकते हैं? क्या हम देख नहीं रहे कि सारे यूरोप में शरणार्थियों की भगदड़ मची है. कई देशों को अपनी सीमाएं खोलनी पड़ी हैं, शरणार्थियों के लिए जगहें बनानी पड़ रही हैं.

आदमी इतिहास का निर्माता भी है और इतिहास का शिकार भी, यह बात जितनी निश्छलता से हम समझेंगे और याद भी रखेंगे, उतनी सहजता से इस समस्या को देख व समझ सकेंगे. हम यह न भूलें कि राष्ट्र और अंतरराष्ट्र का अपना मतलब भी है और अपनी वैधानिकता भी लेकिन मनुष्य, जिससे इन सबका अस्तित्व भी है और अर्थ भी, वह इन सबसे बड़ी इकाई है. उसे असहाय बनाना अनैतिक भी है और अवैध भी क्योंकि मनुष्य की वैधानिकता किताबों में दर्ज हो कि न हो, उसके अस्तित्व में ही दर्ज है.

नागरिकता का विधान है और होना चाहिए. मनुष्यता का अपना विधान है और वह सबसे पवित्र है. इसलिए नागरिकता का रजिस्टर बनाने वाले भी इसका ध्यान रखें कि एक दूसरा रजिस्टर भी है जो ईश्वरप्रदत्त है. उस रजिस्टर को हमारा कोई भी रजिस्टर खारिज नहीं कर सकता है. और तब तो आप बेहद बौने और मानव-द्रोही नजर आने लगते हैं जब आप यह भी कहने लगते हैं कि इस रजिस्टर में लोग धर्म व जाति के आधार पर दर्ज किए जाएंगे.

असम से जो खेल शुरू किया गया है और अब जिसे देश भर में फैलाने की शैतानी योजनाएं बनाई जा रही हैं उसके पीछे सोच यह नहीं है कि नागरिकों की पहचान की जाए बल्कि यह है कि अपने और परायों के बीच लकीर खींची जाए. आखिर असम में आप यहीं आ कर ठिठके हैं न कि 19 लाख लोगों को बाहर करने में आपके लोग भी छंट रहे हैं? तो छांटना या खोजना भारत के नागरिकों को नहीं है, अपने लोगों को है जो आपके वोट बैंक बने रहें. यही क्षुद्र राजनीति उनको बसाते समय हुई थी, यही उनको उजाड़ते समय की जा रही है. आदमी आदमी नहीं रहा, आपकी शतरंज का प्यादा बन गया.

यह अजीब-सा खेल शुरू हुआ है कि जहां पहले नागरिक अपनी सरकारें चुनते थे वहां अब सरकार अपने नागरिक चुन रही है. इससे कहीं बेहतर यह होगा कि सरकार अपनी पसंद का देश चुन कर वहां चली जाए और हमें अपनी सरकार चुनने और अपना देश बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ दे.

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