क्यों यह तस्वीर हमारे दौर की आदर्श तस्वीर है?

आज से 25 या 50 साल बाद पीढ़ियां ये तस्वीर देखकर इस दौर के दुनिया की हिंसक भू-सामरिक राजनीति का आकलन आसानी से कर पाएंगी.

WrittenBy:प्रकाश के रे
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हर मिनट लाखों फोटो अपलोड होने के हमारे दौर में भी कुछ तस्वीरें ऐसी होती हैं, जो वायरल की श्रेणी से भी कहीं आगे जाकर सुदूर भविष्य के लिए भी अहम हो जाती हैं. ऐसी ही एक तस्वीर कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ट्विटर हैंडल से जारी किया है. नयी दिल्ली में ली गयी इस तस्वीर में वे पूर्व अमेरिकी विदेश सचिव हेनरी किसिंजर के साथ बैठे हुए हैं और साथ में ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर, ऑस्ट्रेलिया के पूर्व प्रधानमंत्री जॉन हावर्ड, अमेरिका के पूर्व विदेश सचिव कॉन्डोलीज़ा राइस और पूर्व रक्षा सचिव रॉबर्ट गेट्स खड़े हैं.

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इस तस्वीर के बारे में ‘द गार्डियन’ के वैश्विक मामलों के संपादक जुलियन बोर्जर ने लिखा है कि यह तस्वीर महाप्रलय के घुड़सवारों के सेवानिवृत्त होने के दावत की हो सकती है जिसमें एक निवेश बैंक और तबाही के साझा इतिहास द्वारा साथ जुटाये गये बिल्कुल अलग पृष्ठभूमियों और महादेशों के पांच पुरुष और एक महिला मौजूद हैं.

एक-दूसरे का हाथ पकड़े इन लोगों की मुस्कुराहट में प्यारी यादों और समान भाव की सुगंध है. आधी सदी में फैले इनके इतिहास में एक-दूसरे को सुनायी जानेवाली युद्ध की कहानियों तथा आधुनिक युग के कुछ बड़े संघर्षों के पीछे के इनके दावं-पेंच व पैतरों का कोई अंत नहीं है.

मज़े की बात है कि गुजरात जनसंहार के बाद जब कुछ यूरोपीय देशों के साथ ब्रिटेन और अमेरिका ने तत्कालीन मुख्यमंत्री और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने यहां यात्रा से प्रतिबंधित कर दिया था. तब ब्लेयर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे और राइस तत्कालीन अमेरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के प्रशासन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार थीं. बाद में वो विदेश सचिव बनायी गयीं.

शायद इस तस्वीर के साथ हमारे प्रधानमंत्री यह भी भूल गये हों कि किसिंजर ने कभी भारतीयों के बारे में क्या कहा था और कैसे पाकिस्तानी तानाशाही का साथ दिया था. जिस तानाशाही ने लाखों बंगाली हिंदुओं व मुस्लिमों की हत्या की थी और लाखों लोगों को शरणार्थी बनने पर मजबूर कर दिया था. इसकी परिणति भारत-पाकिस्तान युद्ध के रूप में हुई थी. बहरहाल, यह लेख प्रधानमंत्री मोदी के बारे में नहीं है. उनकी छवि और राजनीति पर तो हमारे देश में बरसों से लिखा-पढ़ा जा रहा है. उनके साथ मौजूद नेताओं के बारे में फिर से जानना दिलचस्प होगा, और शायद इस विवरण से यह भी समझने में मदद मिलेगी कि आख़िर क्यों प्रधानमंत्री मोदी उनकी सोहबत में इतने प्रसन्नचित दिख रहे थे.

रॉबर्ट गेट्स

किसिंजर, ब्लेयर, हावर्ड, राइस और गेट्स को दुनिया भर में बड़ी संख्या में लोग युद्ध अपराधी मानते हैं. ऐसा मानने के ठोस कारण भी हैं. बुश और ओबामा के रक्षा सचिव रहे रॉबर्ट गेट्स राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के दौर में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआइए के उप प्रमुख और कार्यकारी प्रमुख रह चुके हैं. रीगन के बाद राष्ट्रपति बने जॉर्ज बुश (सीनियर) ने उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और फिर सीआइए का निदेशक बनाया था. रीगन प्रशासन के दूसरे कार्यकाल में हुए ईरान-कोंट्रा स्कैंडल में गेट्स की भूमिका पर सवाल उठे थे. चूंकि वे सीआइए के उप-प्रमुख थे, सो ऐसा माना जाता है कि ईरान को चोरी-छुपे हथियार बेच कर निकारागुआ की समाजवादी सरकार के ख़िलाफ़ लड़ रहे कोंट्रा छापामारों को धन देने के प्रकरण की उन्हें जानकारी थी.

सीआईए उप-प्रमुख रहते हुए 1984 में ही वे निकारागुआ की सरकार गिराने के लिए सीधे सैनिक हमले और बमबारी करने के पक्ष में थे. अगस्त, 1993 में आयी आधिकारिक स्वतंत्र जांच में इसकी पुष्टि हुई थी, पर इसे मुक़दमा चलाने लायक नहीं माना गया था. जब अमेरिका ने ईरान को हथियार बेचा था, तब आधिकारिक रूप से राष्ट्रपति जिमी कार्टर के शासनकाल में लगी ईरान को हथियार देने पर पाबंदी लागू थी. इस कांड में जांच हुई थी, जिसमें कई अधिकारियों को सज़ा भी मिली थी, पर उन्हें राष्ट्रपति बुश सीनियर के दौर में माफ़ी दे दी गयी.

जॉर्ज बुश सीनियर इस कांड के दौरान उपराष्ट्रपति थे. इस कांड को इसलिए भी याद रखा जाना चाहिए कि निक्सन-किसिंजर दौर में ईरान के पहलवी शासन को भरपूर हथियार दिया गया था. वह ज़ख़ीरा इस्लामिक क्रांति के बाद अयातुल्लाह ख़ुमैनी के हाथ लगा और ईरान एक बड़ी सैनिक ताक़त बन गया. जब कोंट्रा कांड में अमेरिका ईरान को हथियार दे रहा था, तब वह इराक़ी तानाशाह सद्दाम हुसैन को भी हथियार बेच रहा था. तब ईरान और इराक़ 1980 से 1988 तक आपसी युद्ध में भी थे. इसमें भी किसिंजर की भूमिका थी, जिस पर आगे बात की जायेगी.

कोंट्रा मामले का एक पहलू यह भी है कि कोंट्र लड़ाकों और उनके क्षेत्र में मानवीय सहायता के नाम पर सीआइए ने कथित रूप से कोकीन के व्यापार में साझेदारी की थी. अमेरिका में नशे की लत बढ़ाने में इस गठजोड़ का बड़ा हाथ माना जाता है. इस मामले पर तमाम जांच कमेटियां बैठ चुकी हैं और खोजी पत्रकारों ने कई रिपोर्टें भी छापी हैं.

बहरहाल, कोंट्रा कांड की जांच आने तक गेट्स सीआइए प्रमुख के पद से हट चुके थे क्योंकि जनवरी में डेमोक्रेटिक पार्टी के बिल क्लिंटन राष्ट्रपति बन चुके थे. बुश जूनियर के दूसरे कार्यकाल में गेट्स को डोनाल्ड रम्ज़फ़ेल्ड के हटने के बाद रक्षा सचिव बनाया गया. उनके दौर में इराक़ में अमेरिकी सैनिकों की संख्या बढ़ायी गयी और फिर घटायी गयी. बराक ओबामा इराक़ से सेनाओं के हटाने के वादे पर चुनाव जीत कर आये थे, सो गेट्स को उन्होंने रक्षा सचिव के पद पर दो साल बहाल रखा था. लेकिन ओबामा प्रशासन में रहते हुए गेट्स ने अफ़ग़ानिस्तान में सैनिकों की तादाद बढ़ायी थी. ओसामा बिन लादेन को मारने की कार्रवाई के दौरान गेट्स रक्षा सचिव थे. अमेरिकी इतिहास में गेट्स एकमात्र ऐसे रक्षा सचिव रहे हैं, जिन्होंने अलग-अलग दलों के राष्ट्रपतियों के साथ बतौर रक्षा सचिव काम किया है.

कोंडोलीज़ा राइस और जॉन हॉवर्ड

प्रधानमंत्री मोदी के साथ उस तस्वीर में मौजूद कोंडोलीज़ा राइस बुश प्रशासन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश सचिव रही थीं. इसी दौरान इराक़ के पास महाविध्वंसक हथियार होने के झूठ के आधार पर इराक़ पर हमला किया गया और बरसों तक उस पर दख़ल जमा कर रखा गया. उस हमले में लाखों की संख्या में इराक़ी मारे गए और घायल हुए. हज़ारों अमेरिकी सैनिक भी मारे गए.

ऐसा ही अफ़ग़ानिस्तान के साथ हुआ. इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर हमले में अमेरिका को सैनिक मदद देने वालों में ऑस्ट्रेलिया के तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉन हॉवर्ड भी थे. उन्होंने 2008 में अमेरिकी चुनाव के दौरान इराक़ से पूरी तरह से सेना हटाने की बराक ओमाबा की मांग का भी विरोध किया था. ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के प्रति सरकार के नकारात्मक रवैए, मानवाधिकारों के उल्लंघन और बच्चों के शारीरिक शोषण व उन्हें ज़बरिया परिवार से अलग करने की नीतियों के लिए जॉन हॉवर्ड आलोचना के घेरे में रहे हैं. इन वजहों से उनके ऊपर नस्लभेदी होने के आरोप भी लग चुके हैं. वे भी उस तस्वीर में देखे जा सकते हैं.

टोनी ब्लेयर

इराक़ पर हमले के लिए युद्ध अपराधी मानी जानेवाली तिकड़ी (जॉर्ज बुश, जॉन हॉवर्ड और टोनी ब्लेयर) के तीसरे सदस्य पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर तस्वीर में भारतीय प्रधानमंत्री का हाथ पकड़े देखे जा सकते हैं. साल 2016 में अपनी रिपोर्ट में जॉन चिलकॉट ने साफ़ इंगित किया है कि इराक़ हमले को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री ब्लेयर ने शांतिपूर्ण विकल्पों को नहीं आज़माया था. उन्होंने जान-बूझकर सद्दाम हुसैन के ख़तरे को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था, जबकि तात्कालिक ख़तरे की कोई वजह ही नहीं थी.

ब्लेयर ने बुश से किसी भी हालत में साथ देने का वादा किया था. इस वादे को निभाने के लिए संसद और जनता से वे सब झूठ बोले गए, जो बुश प्रशासन अमेरिका में बोल रहा था. ब्लेयर हमले की तैयारी और बाद के अंदेशों को लेकर भी लापरवाह थे. यह जांच 2009 में तत्कालीन प्रधानमंत्री गॉर्डन ब्राउन के निर्देश पर हुई थी और उन्होंने ही इसके सदस्यों का चयन किया था. ब्रिटिश सरकार ने अनेक बहानों से इस जांच में देरी का प्रयास भी किया था. इतना ही नहीं, युद्ध से पहले बुश और ब्लेयर के पत्राचार के दस्तावेज भी नहीं दिए गए थे.

इस रिपोर्ट के बाद इराक़ के पूर्व सेना प्रमुख ने ब्रिटिश उच्च न्यायालय में ब्लेयर पर युद्ध अपराधी होने का मामला चलाने की अपील की थी, पर जजों ने यह कहकर अपील को ठुकरा दिया था कि इसका कोई निष्कर्ष नहीं निकलेगा तथा पूर्व मंत्रियों पर अभियोग चलाने के लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी. इसके बाद हुए प्रतिष्ठित सर्वे एजेंसी यूगोव के एक सर्वे में पाया गया था कि क़रीब एक-तिहाई ब्रिटिश नागरिक मानते हैं कि ब्लेयर ने इराक़ मसले पर देश को अंधेरे में रखा था. इनमें से आधे लोगों का मानना है कि उन्होंने जान-बूझकर ऐसा किया था.

रिपोर्ट आने के बाद कंज़रवेटिव पार्टी से तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने अपनी पार्टी की भूमिका के लिए माफ़ी मांगने से इनकार कर दिया था और यह भी साफ़ नहीं किया कि यह युद्ध एक ग़लती था. अमेरिका ने भी प्रतिक्रिया देने से मना कर दिया था. लेकिन ब्लेयर की पार्टी लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने इराक़ के लोगों, ब्रिटिश सैनिकों व उनके परिवारजनों तथा ब्रिटिश नागरिकों से पार्टी की ओर से माफ़ी मांगी थी तथा इस युद्ध को एक तबाही की संज्ञा देते हुए हमला बताया था. ब्लेयर ने रिपोर्ट की बहुत सारी आलोचनाओं को माना, लेकिन झूठ बोलने और धोखे में रखने के आरोपों को ख़ारिज़ कर दिया. वे अब भी मानते हैं कि सद्दाम हुसैन को हटाना सही फ़ैसला था.

इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में जनसंहार

वर्ष 2013 में अमेरिका, कनाडा और इराक़ के तीन विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों ने एक अध्ययन में बताया था कि मार्च, 2003 से जून, 2011 (अमेरिकी सेनाओं के हटने के छह माह पूर्व) तक युद्ध से जुड़ी मौतों की संख्या 4.61 लाख थी. इनमें से 60 फ़ीसदी मौतें सीधे हिंसा में तथा बाक़ी मकान आदि ढहने, उपचार न होने आदि कारकों से हुई थीं.

पिछले साल आयी ब्राउन यूनिवर्सिटी के कोस्ट्स ऑफ़ वार प्रोजेक्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च, 2003 से अक्टूबर, 2018 के बीच इराक़ में 4,550 और अफ़ग़ानिस्तान में 2,401 अमेरिकी सैनिकों की मौत हो चुकी है. इसके अलावा 21 असैन्य कर्मचारी भी मारे गए हैं. इस अवधि में दोनों देशों में 7,820 अमेरिकी ठेकेदार मारे गए हैं. दोनों देशों की अपनी सेना और पुलिस की मौतों का आंकड़ा 1.09 लाख से अधिक है.

अमेरिका का साथ दे रहे देशों के मृत सैनिकों की संख्या 1,464 है. इस रिपोर्ट के अनुसार, हमलों व युद्धों में मारे गए नागरिकों की संख्या 2.44 लाख से 2.66 लाख के आसपास है. मारे गए विरोधी लड़ाकों की तादाद 77 हज़ार से 82 हज़ार के बीच है. इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में 15 सालों में क़रीब 300 पत्रकार व मीडियाकर्मी भी मारे गए हैं. मानवीय मदद कर रहे 470 के आसपास कार्यकर्ता भी अपनी जान गंवा चुके हैं. कुल मौतों का हिसाब लगायें, तो यह चार-साढ़े चार लाख के लगभग है.

हेनरी किसिंजर

तस्वीर में प्रधानमंत्री का एक हाथ पकड़े कुर्सी पर बैठे व्यक्ति ने दूसरे महायुद्ध के बाद दुनिया को अस्त-व्यस्त करने में अकेले जितना योगदान किया है, उतना दर्ज़नों सनकी शासकों, हमलावरों, लड़ाकू गिरोहों और आतंकी सरगनाओं ने मिलकर भी शायद नहीं किया होगा. मध्य-पूर्व से लेकर लैटिन अमेरिका तक में आज की अस्थिरता का एकमात्र सूत्रधार किसिंजर की कारस्तानियां हैं.

राष्ट्रपति निक्सन के दौर में ईरानी शाह को ख़ुश करने और अपने पाले में बनाए रखने के लिए किसिंजर ने उन्हें अमेरिकी हथियार निर्माताओं से कुछ भी ख़रीदने की छूट दे दी. ईरानी सेना के प्रशिक्षण के लिए अमेरिकी जानकार मुहैया कराया. साल 1976 में किसिंजर का कार्यकाल पूरा होने तक ईरान न सिर्फ़ अमेरिकी हथियारों का सबसे बड़ा ख़रीदार बन चुका था, बल्कि वहां सबसे ज़्यादा तादाद में अमेरिकी सैन्य सलाहकार भी भरे हुए थे. ईरानी सेना दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी सेना बन चुकी थी और उस क्षेत्र में वायु सेना व नौसेना में उसका कोई मुक़ाबला नहीं था. यह ख़रीदारी बाद में भी चलती रही. साल 1979 में यह सब अयातुल्लाह ख़ुमैनी के हाथ आ गया.

जब अगले साल ईरान और इराक़ में लड़ाई शुरू हुई, तो किसिंजर ने रीगन को सलाह दी कि यह लड़ाई अमेरिका के लिए फ़ायदेमंद है. यह युद्ध आठ सालों तक चला था. इससे पहले सत्तर के दशक के मध्य में इज़रायल और अरब देशों के बीच सुलह कराकर तथा इराक़ और ईरान में संतुलन बनाकर निश्चिन्त हुए किसिंजर ने इराक़ी कुर्दों के सिर से अमेरिका का हाथ हटा लिया. ऐसा ही हाल में डोनाल्ड ट्रंप ने सीरिया में कुर्दों के साथ किया है और तुर्की उनके ऊपर हमलावर है. तब इराक़ ने हज़ारों कुर्दों को मारा था और उनके इलाक़े में इराक़ियों को बसा दिया था. उससे पहले किसिंजर इराक़ पर दबाव बनाने के लिए कुर्दों का इस्तेमाल करते थे और अभी हाल तक अमेरिका इस्लामिक स्टेट को हराने के लिए कुर्दों का साथ ले रहा था. उसी समय किसिंजर ने अमेरिकी विदेश नीति में इज़रायल की पूरी पक्षधरता की परंपरा डाली थी.

जब किसिंजर ईरान को हथियार दे रहे थे, तो सऊदी अरब कैसे पीछे रहता! उसने भी ताबड़तोड़ अपनी सैन्य क्षमता का विस्तार करना शुरू कर दिया. वहां भी हज़ारों अमेरिकी सैनिक सलाहकार के रूप में पदस्थापित हुए. इन सब गतिविधियों पर लिखते हुए इतिहासकार ग्रेग ग्रैंडिन लॉस एंजिलिस टाइम्स का हवाला देते हुए रेखांकित करते हैं कि उसी समय ‘पेट्रोडॉलर’ शब्द निवेशक बैंकों ने इस्तेमाल करना शुरू किया था. इस पेट्रोडॉलर से अमेरिका ने अपनी आर्थिकी को संवारना शुरू किया था.

किसिंजर मध्य-पूर्व में तेल पर दख़ल को अपनी प्राथमिकता बना चुके थे. इन पैंतरों के साथ किसिंजर ने ईरान के शाह को अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के प्रभाव को कम करने के काम में भी लगा दिया. उसी समय ईरानी ख़ुफ़िया पुलिस और पाकिस्तानी आइएसआइ के साथ मिलकर बाहर से इस्लामिक लड़ाकों की घुसपैठ कराने की योजना भी तैयार हो रही थी. ग्रैंडिन ने याद दिलाया है कि किसिंजर 1955 में ही लिख चुके थे कि अफ़ग़ानिस्तान की सुरक्षा पाकिस्तान की मज़बूती पर निर्भर करती है. लेख के शुरू में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का उल्लेख आया है. इसी अफ़ग़ानिस्तान के मद्देनज़र किसिंजर पाकिस्तान द्वारा हो रहे बंगालियों के दमन को समर्थन दे रहे थे.

जब भारत दबाव में नहीं आया, तो निक्सन और किसिंजर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और भारतीयों को भला-बुरा कहने लगे थे. यहां तक कि बांग्लादेश युद्ध में अमेरिका, पाकिस्तान का साथ देने का मन बना चुका था, पर मदद कर नहीं सका. इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि किसिंजर के विरोध के बावजूद अमेरिकी विदेश विभाग ने बंगालियों पर अत्याचार और जनसंहार के कारण पाकिस्तान को सैन्य मदद आधिकारिक रूप से रोक दी थी, लेकिन किसिंजर चोरी-छुपे याहिया खान की तानाशाही को ईरान के रास्ते साजो-सामान देते रहे थे. ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के सत्ता में आने के बाद किसिंजर की सलाह पर फ़ोर्ड प्रशासन ने मदद को बहाल कर दिया था. तब किसिंजर ने बंगालियों के दमन के दौरान भुट्टो के समर्थन की प्रशंसा भी की थी.

साल 2005 में किसिंजर ने अपने अपशब्दों पर खेद जताया था, पर यह भी कह दिया था कि उन बातों को तत्कालीन शीत युद्ध (सोवियत-अमेरिकी तनाव) की पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा था कि इसे निक्सन दौर के माहौल के साथ भी देखना चाहिए. निक्सन अपने अभद्र और अहंकारी भाषा के लिए भी जाने जाते हैं. लेकिन जब हम किसिंजर की स्वार्थी और बेईमान कूटनीति को देखते हैं, तो साफ़ इंगित होता है कि अपशब्दों का प्रयोग असल में उनकी हेठी और बेचैनी का मिला-जुला परिणाम था.

किसिंजर ने ईरानी एजेंटों, सीआइए और आइएसआइ की मदद से 1973, 74 और 75 में चरमपंथियों द्वारा अफ़ग़ानिस्तान में तख़्तापलट की असफल कोशिशें भी की थी. 1973 में चिली में साल्वादोर आयेंदे की निर्वाचित सरकार को गिराने में किसिंजर को कामयाबी मिली थी. इस तख़्तापलट के बाद जनरल पिनोशे की भयानक तानाशाही 1990 तक चलती रही. दो साल बाद किसिंजर ने इंडोनेशियाई तानाशाह सुहार्तो को ईस्ट तिमोर पर कब्जे में मदद दी. इस हमले में हज़ारों लोग मारे गए और बरसों तक क़त्ले-आम चलता रहा था. साल 1976 में अर्जेंटीना में इसाबेल पेरोन की चुनी हुई सरकार का सेना द्वारा तख़्तापलट कर दिया गया था. यह भी किसिंजर की शह पर हुआ था. वहां भी भयानक दमन का दौर रहा.

इससे पहले 1969 और 1970 में किसिंजर के आदेश पर कंबोडिया में लगभग चार हज़ार बार बम गिराए गए थे. साल 1969 से 1973 के बीच कंबोडिया पर पांच लाख टन बम बरसाए गए थे. इन हमलों में कम-से-कम एक लाख लोग मारे गए. निक्सन उत्तरी वियतनाम में युद्ध ख़त्म करने के मुद्दे पर चुनाव जीतकर आए थे. पर हमले रुकने की बजाए और बढ़ गए. बाद में वाटरगेट कांड का ख़ुलासा कर निक्सन को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर करने वाले वाशिंगटन पोस्ट के दो पत्रकारों- बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन- के मुताबिक वियतनाम में बमों के हमलों से बने गढ्ढों का आकार देखकर किसिंजर को बड़ी ख़ुशी होती थी.

किसिंजर की कहानी में बार-बार यह दिखता है कि इस आदमी को ख़ून-ख़राबे से लगाव है, जबकि वे और उनका परिवार 1938 में यहूदियों के ख़िलाफ़ नाज़ी दमन से बचने के लिए जर्मनी छोड़ने के लिए मजबूर हुआ था. दूसरे महायुद्ध में किसिंजर ने ख़ुद जर्मनी में नाज़ियों के भयावह क़हर को देखा था. जब सीरिया और मिस्र की संयुक्त सेनाओं और इज़रायल के बीच 1973 में युद्ध हुआ, तो किसिंजर ने इसकी जानकारी राष्ट्रपति निक्सन को साढ़े तीन घंटे बाद दी. उन्हें लग रहा था कि निक्सन इस युद्ध में जल्दी दख़ल दे देंगे.

इसी तरह से 1974 में जब तुर्की ने साइप्रस पर हमला किया, तो किसिंजर का मानना था कि हमला ठीक है और पहले तुर्की को ज़्यादा ज़मीन क़ब्ज़ा कर लेना चाहिए, फिर यूनान से बात करनी चाहिए. इससे पहले किसिंजर को यह भी पता था कि साइप्रस में यूनानी सेना समर्थित तत्व तख़्तापलट करने की योजना बना रहे हैं, पर इस प्रकरण में उनका रवैया बहुत शातिर लापरवाही का था.

उस समय यूनान में किसिंजर को खलनायक और हत्यारे की तरह देखा जाता था. किसिंजर की इच्छा साइप्रस का विभाजन करने की थी. क्रिस्टोफ़र हिचेंस ने किसिंजर के कारमानों के बारे में लिखा है कि यह सूची तब तक चलती रह सकती है, जब तक कि आदमी उल्टी न कर दे.

यह बहुत अफ़सोस की बात है कि किसिंजर ने एक फ़र्ज़ी शांति समझौते के लिए नोबेल पुरस्कार भी ले लिया था. हालांकि वियतनाम में अमेरिकी पराजय के बाद उन्होंने इसे लौटाने की कोशिश की थी. सत्ता से बाहर होने के बाद भी किसिंजर और तस्वीर में मौजूद अन्य ‘प्रलय के घुड़सवार’ थिंक टैंकों, निदेशक मंडलों, सलाहकार समितियों तथा लॉबिंग के माध्यम से दुनिया की राजनीति और आर्थिकी को प्रभावित करते रहते हैं. इनका मुख्य फ़ोकस निवेश, हथियार और नव-उदारवादी नीतियों की पैरोकारी है. किताबों, लेखों और भाषणों का इनका कारोबार भी बहुत बड़ा है. इनसे कमाई भी होती है और इनके विचारों का प्रसार भी होता है. नोआम चोम्स्की ठीक ही कहते हैं, “ताक़तवर के लिए अपराध वह है, जो दूसरे लोग करते हैं.”

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