अयोध्या: फैसले के बाद का फैसला 

यह फैसला पूरी तरह मान्य है फिर भी यह कहा जा सकता है कि अदालत ने विवाद के पीछे छिपी राजनीतिक कुटिलता की अनदेखी की.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

जब आप वायलिन से कुदाल का काम लेने लगें तब राग-रागनियों की बारीकी का रोना कैसे रो सकते हैं? इसलिए अयोध्या के मामले में, देश के कानूनी इतिहास की दूसरी सबसे लंबी सुनवाई के बाद आया फैसला हमसे न्याय के बारे में कुछ नहीं कहता है बल्कि इतना ही बताता है कि साक्ष्य, सूत्र, भावनाओं के आधार पर उसने किसे कहां, कितनी जमीन और जगह देना न्यायप्रद लगा, तो हमें शिकायत नहीं करनी चाहिए. क्यों, कहां, कैसे और किस तरह आदि-आदि सवाल अब न पूछे जाएं और न उनका कोई उत्तर खोजा जाए. बस उतना और वही जाना व माना जाए जो सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से कहा है. 134 साल पुराना जख्म आप जब भी छूते, होना तो यही था- कहीं खून बहता, कहीं आह उठती, कहीं सपने टूटते तो कहीं जीत का भाव जागता; और लंबे समय तक सालने वाला पराजय घनीभूत हो जाता. 

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

इसलिए हमें आज सर्वोच्च न्यायालय की बात मान ही लेनी चाहिए, क्योंकि हमने उससे वह काम लिया है जो काम उसका कभी भी और किसी हालत में नहीं था. हमारी जिद और हमारे उन्माद ने एक संयमित, सजग और संस्कारी समाज की पहचान खो दी है. एक तरफ हमारा सामाजिक नेतृत्व इतना प्रभावी बना नहीं कि वह लोगों को रास्ता दिखा सके, दूसरी तरफ हमारा राजनीतिक नेतृत्व अत्यंत बौना, स्वार्थी व सांप्रदायिक साबित हुआ. फिर बची रही हमारी न्याय-व्यवस्था! संवैधानिक व्यवस्था और संवैधानिक नैतिकता, दोनों कहती है कि सामाजिक विवेक जगाना और बनाना किसी भी मुल्क के सामाजिक व राजनीतिक नेतृत्व का काम है, अदालत का नहीं. लेकिन यहां तो समाज ने अपनी अयोग्यता और राजनीति ने अपनी अक्षमता को स्वीकारते हुए अदालत को विवश कर दिया कि वह इस मामले को सुलझाए. 

हमें अपनी न्याय-व्यवस्था का आभारी होना चाहिए कि उसने इस चुनौती को स्वीकार किया और कई स्तरों पर इसका हल निकालने की कोशिश की. अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष संविधान पीठ का गठन किया, लगातार इस मामले की सुनवाई की, सभी पक्षों को अपनी बात व साक्ष्य रखने का पूरा मौका दिया और फिर फैसले तक पहुंची. लेकिन बस, इसके आगे कई सवाल ऐसे खड़े होते हैं कि जो अदालत को ही कठघरे में खड़ा करते हैं. हम फैसले को पूरी तरह मान्य करते हैं, न्यायाधीशों का सम्मान भी करते हैं लेकिन यह कहने से खुद को रोक नहीं पाते हैं कि मी लॉर्ड, या तो आपने विवाद की आत्मा नहीं पहचानी या फिर इसके पीछे छिपी राजनीति की कुटिलता की अनदेखी की.

यह बेहद जरूरी था कि इस जहरीले विवाद का अंत हो. सामाजिक विवेक से होता, राजनीतिक सहमति से होता, निष्पक्ष मध्यस्थता से होता या देश के गांधीजनों ने जो एक दिशा देश के सामने रखी थी कि जहां का मसला: वहां का फैसला वैसा कोई रास्ता खोजा गया होता तो इस विवाद में से भारतीय समाज और हमारा लोकतंत्र ज्यादा प्रौढ़ बन कर निकला होता. वैसा हो नहीं सका. 

जो हुआ वह ऐसा हुआ जैसे सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की तुला किनारे रख दी और सबको समझा-बुझा कर बीच का रास्ता निकाल दिया. नहीं तो यह कैसे हुआ कि न्यायालय जिसे जमीन की मालिकी का मामला बता रहा था उसमें धार्मिक विश्वास, पुराण-कथाएं, आस्था आदि का भी समावेश हो गया? संभव है कि जब मामला खुला तब सर्वोच्च न्यायालय को समझ में आया कि यह जमीन की मालिकी का सामान्य मामला नहीं है, भारतीय समाज के कई नाजुक धागों को छूने का मामला है. यह समझ में आया तो अच्छा ही हुआ. 

लेकिन फिर उसका कोई प्रभाव फैसले पर क्यों नहीं हुआ? अदालत ने राम की जन्मभूमि के स्थल को कानूनी मान्यता दे दी, तो किस आधार पर? अगर वह आधार धार्मिक है तो वह कानूनी तराजू पर कैसे तोला गया? सर्वोच्च न्यायाधीश रंजन गोगई ने ही तो कहा था कि हम आस्था व मान्यता के आधार पर नहीं, साक्ष्य के आधार पर फैसला करेंगे, तो रामजन्मभूमि के मामले में ऐसा कौन-सा साक्ष्य पेश किया गया कि जो ऐसा कानूनसम्मत था कि अदालत ने उसे ज्यों-का-त्यों स्वीकार लिया

आपने फैसले में कहा तो यही न कि हिंदुओं ने अपना मामला ज्यादा अच्छी तरह पेश किया, तो क्या वाकचातुरी या वेद-पुराण ऐसे विवाद में न्याय का पलड़ा अपनी तरफ झुका सकते हैं? न्यायालय के कहने का मतलब यह भी तो है न कि दूसरे पक्ष को अपना मामला पेश करना नहीं आया? अगर ऐसा था तब तो न्यायालय के लिए और भी जरूरी था कि वह दूसरे पक्ष को और तैयारी का मौका देता? फैसला सुनाना नहीं, सत्य तक पहुंचना अदालत का काम है. के. परासरन साहब का पांडित्य अपनी जगह है लेकिन क्या वह कानून की जरूरतें पूरी करता है

हमें तो अदालत से न्याय से अधिक या न्याय से कम कुछ भी नहीं चाहिए. फिर हमें समझाएं मी लार्ड कि बकौल आपके 1934 में मस्जिद के गुंबद को नुकसान पहुंचाना, 22 दिसंबर 1949 की रात में गर्भगृह में चोरी-चोरी मूर्तियों को ले जा कर रख देना और फिर मुसलमानों का वहां प्रवेश निषेध कर देना तथा, 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद को ध्वस्त कर देना कानून का गंभीर उल्लंघन था. 

कानून तोड़ना अपराध है, तो ये सभी आपराधिक कृत्य थे. क्या कोई ऐेसा गैर-कानूनी आपराधिक कृत्य हो सकता है जिसे अदालत में पेश किया जाए, अदालत उस अपराध को मान्य भी करे फिर भी उसकी सजा न देमी लॉर्ड, आपके फैसले में इन तीन गंभीर व अनैतिक अपराधों की क्या सजा दी गई? आपकी ही अदालत में सालों से बाबरी मस्जिद ध्वंस का मुकदमा चल रहा है.

क्या यह ज्यादा न्यायपूर्ण न होता कि आप अपना फैसला वही सुनाते जो आपने अभी सुनाया है लेकिन यह भी कहते कि इस फैसले को तभी लागू किया जा सकता है जब ध्वंस के मुकदमे का फैसला हो और उसके अपराधी सुनिश्चित किए जाएं? और यह भी कि उस मुकदमे की सुनवाई एक पखवारे में पूरी की जाए ताकि यह ताजा फैसला लंबे समय तक लटका न रहे? और शायद यह भी कि उस मुकदमे में जो अपराधी साबित होंगे वे हमेशा के लिए किसी भी प्रातिनिधिक पद के अयोग्य माने जाएंगे

आखिर ऐसा न्याय कैसे हो सकता है जो अपराधी-पक्ष को छूता ही नहीं है? और आपको खूब पता है कि आज की सरकार उनकी ही है जो इस अपराध में अपादमस्तक डूबे हैं. फिर उन्हीं लोगों की सरकार को आपने यह अधिकार भी दे दिया कि वे ही ट्रस्ट भी बनाएं, उसके सदस्य भी चुनें, मंदिर निर्माण की पूरी प्रक्रिया भी निर्धारित करें और निर्माण भी करें. यह सजा है या इनाम?

आप भटक गये श्रीमान्! जमीन की मालिकी तय करने के बजाए आप इतिहास पढ़ने और लिखने में लग गये. देखिए न, आपने राम को- भगवान को- इंसान जैसी कानूनी हैसियत दे दी. कोई कहे कि यह ईश्वर का अपमान है, तो आप क्या बचाव करेंगे

ईश्वर हमारी वह ईजाद है जो हमारी हर इंसानी पकड़ से बाहर है. फिर वह कानून की इंसानी हद में कैसे बांध दिया गया? और अगर यह मान लिया जाए कि आपके फैसले के बाद से भगवान इंसान बन गया है तो फिर सीलिंग के तमाम कानूनों को धोखा देने के लिए मंदिरों-मस्जिदों-गिरजा-गुरुद्वारों आदि ने जो सैकड़ों एकड़ जमीनें भगवानों के नाम लिख दी हैं उनका क्या होगा

भगवान यदि इंसान हैं तो इंसान तो जमीन की कानूनी मालिकी रख ही सकता है. फिर भू-अधिकार के उन तमाम संघर्षों का क्या होगा जो भगवानों के नाम से की जा रही ऐसी धोखाधड़ी के खिलाफ लड़ी गईं, लड़ी जा रही हैं, लड़ी जाएंगी? उनका सारा संघर्ष ईश्वर के खिलाफ बगावत बन जाएगा न. 

किसी भी कानूनी फैसले की उत्कृष्टता की कसौटी यह है कि उससे अपराधी के मन में प्रायश्चित या पश्चाताप का भाव पैदा हो और दूसरे पक्ष में उदारता का भाव जागे. क्या आपके इस फैसले से ऐसा कुछ हुआ? हिंदुत्व के दावेदार कह रहे हैं कि उनका लक्ष्य उन्हें हासिल हो गया, बस अब मंदिर बनाना है. इस अपराध के सर्जक लालकृष्ण आडवाणी कह रहे हैं कि उन्हें गर्व है कि वे बाबरी मस्जिद ध्वंस आंदोलन में शामिल हुए, उमा भारती विजय का समारोह आडवाणी के घर मत्था टेककर मना रही हैं. अपराध-बोध का लेशमात्र भी कहीं नहीं है. 

दूसरी तरफ मुसलमान समुदाय में गहरी हताशा व पराजय का भाव घनीभूत है. अभी वह सदमे में है, कल इससे बाहर आएगा, और फिर उसकी अभिव्यक्ति कैसी होगी, कहना कठिन है. हमें उनका साधुवाद करना चाहिए कि उन्होंने अभी इस फैसले का प्रत्यक्ष या परोक्ष विरोध न करने का निर्णय किया है. लेकिन अंदर की चोट बहुत गहरे फूटती है. 

जरा सोचिए कि आपका फैसला यदि मस्जिद के पक्ष में गया होता तो आज देश में क्या नजारा होता. सड़कों पर और मंदिरों में और हिंदुत्व के तमाम गढ़ों में क्या हो रहा होता और देश भर की मस्जिदों पर क्या गुजर रही होती? संसद में अपने अपार बहुमत की तलवार से आपका फैसला अब तक काट डाला गया होता और संसद वही फैसला करती जो आपने किया. जातीय श्रेष्ठता के दर्शन में विश्वास करने वाली राजनीति का यह चेहरा आप कैसे भूल गये?

आपने ठीक ही कहा था कि अदालतें इतिहास की गलतियों को सुधारने का काम नहीं कर सकती हैं. लेकिन आप यह भूल गये कि अदालतें ऐतिहासिक गलतियां भी नहीं कर सकती हैं.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like