बर्बरता का सामूहिक जश्न बेहद आत्मघाती होता है

हैदराबाद में जो हुआ, वह हमें सभ्यता के सफ़र में आगे बढ़ाने की जगह पीछे छींचने जैसा है जहां बर्बरता का जश्न मनाया जाता था.

WrittenBy:राहुल कोटियाल
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हैदराबाद में बीते पखवाड़े जो कुख्यात घटना हुई, उसे मोटे तौर पर देखें तो घटनाक्रम कुछ यूं बनता है: एक महिला ग़ायब होती है. महिला के परिजन प्राथमिकी दर्ज कराने पुलिस के पास पहुंचते हैं, लेकिन पुलिस आनाकानी करती है. कई घंटों तक प्राथमिक सूचना रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जाती.

इसके अगले दिन उस महिला का जला हुआ शव एक पुल के नीचे बरामद होता है. सामने आता है कि महिला के साथ सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसे ज़िंदा जला दिया गया था. अब पुलिस के हाथ-पांव फूलने लगते हैं. क्योंकि अगर उसने समय पर रिपोर्ट लिखकर खोज-बीन शुरू की होती तो शायद महिला को बचाया भी जा सकता था.

महिला की इस बर्बर हत्या के चलते देश में जगह-जगह विरोध प्रदर्शन शुरू होते हैं. हैदराबाद में तो ये प्रदर्शन हिंसक तक होने लगते हैं. पुलिस की लापरवाही पर सवाल उठाते हुए लोग पुलिस के ख़िलाफ़ जमकर नारेबाज़ी करने लगते हैं और उनसे जवाब तलब करते हैं. दबाव बढ़ता है तो सम्बंधित पुलिस अधिकारियों पर एक जांच बैठाई जाती है और घटना के चार दिन बाद ही तीन पुलिस वालों को सस्पेंड कर दिया जाता.

इसी बीच चार लोगों को गिरफ़्तार किया जाता है. पुलिस दावा करती है कि इस बलात्कार और हत्या के सभी आरोपित पुलिस की हिरासत में आ चुके हैं. लेकिन लोगों का ग़ुस्सा इसके बाद भी शांत नहीं होता. प्रदर्शन जारी रहते हैं और आक्रोशित भीड़ आरोपितों को जान से मार डालने पर उतारू होती है. इस बीच एक बेहद दिलचस्प घटना होती है. अंग्रेज़ी अख़बार डेक्कन क्रॉनिकल में एक ख़बर छपती है.

इसमें लिखा होता है कि दिसम्बर 2008 में भी राज्य का माहौल ठीक ऐसा ही था जैसा इन दिनों बन पड़ा है. तब इंजीनियरिंग की दो छात्राओं पर वारंगल ज़िले में एसिड से हमला हुआ था. इस हमले के आरोप में तीन लड़कों को घटना के 48 घंटों के भीतर ही गिरफ़्तार कर लिया गया था. आक्रोशित भीड़ इन तीनों का एंकाउंटर करने की मांग कर रही थी.
डेक्कन क्रॉनिकल की इस ख़बर में आगे लिखा था, ‘गिरफ़्तारी के कुछ घंटे बाद ही पुलिस इन आरोपितों को सबूत जुटाने के लिए घटना स्थल पर लेकर पहुंची. पुलिस के अनुसार आरोपितों ने देसी हथियार और मौक़े पर छिपा कर रखे गए एसिड से पुलिस पर हमला करने का प्रयास किया. अपने बचाव में पुलिस ने तीनों आरोपितों को गोली मार दी जिसमें तीनों की मौत हो गई. वारंगल ज़िले के युवा पुलिस अधीक्षक वीसी सज्जनार – जिनकी टीम ने तीन आरोपितों को मारा था – युवाओं के हीरो बन गए और लोगों ने उन्हें मालाएं पहनाई, फूल भेंट किए और कंधों पर उठा लिया.’

30 नवंबर को प्रकाशित हुई इस ख़बर में यह भी लिखा था कि ‘आज 11 साल बाद, वीसी सज्जनार – जो अब एक वरिष्ठ आईपीएस हैं और साइबराबाद के कमिश्नर भी है – एक बार फिर ख़ुद को 2008 जैसी स्थिति में पाते हैं. क्योंकि आज फिर से लोगों में वैसा ही आक्रोश है और चारों आरोपितों को घटना के 48 घंटों के भीतर ही गिरफ़्तार भी कर लिया गया है.’ इस ख़बर में पुलिस के सूत्रों के हवाले से यह तक लिखा गया था कि पुलिस ऐसा कोई क़दम उठाने पर भी विचार कर रही है जिससे लोगों का आक्रोश शांत किया जा सके और एंकाउंटर भी एक विकल्प हो सकता है.

इस ख़बर के प्रकाशित होने के छह दिन बाद ठीक वही हुआ जो जिसकी आशंका जताई गई थी. ये हुआ भी ठीक वैसे ही जैसे 2008 में हुआ था. कमान सम्भालने वाले पुलिस अधिकारी भी वही थे और घटनाक्रम भी ठीक वैसा ही. आरोपितों को सबूत जुटाने के लिए घटना स्थल पर ले जाया गया, कहा गया कि अभियुक्त हथियार छीन कर भागने की कोशिश कर रहे थे लिहाज़ा पुलिस ने जवाबी कार्रवाई करते हुए चारों अभियुक्तों को मार गिराया. इस बार भी वीसी सज्जनार एंकाउंटर होते ही जनता के हीरो बन गए. जो भीड़ अब तक पुलिस पर उसकी लापरवाही के लिए पत्थर बरसा रही थी, इन चार हत्याओं के बाद वही भीड़ पुलिस पर फूल बरसाने लगी.

ये तमाम तथ्य इशारा करते हैं कि हालिया एंकाउंटर फ़र्ज़ी था और आक्रोशित जन भावनाओं को शांत करने के लिए उठाया गया एक शातिर क़दम था. लेकिन सबसे चिंता की बात ये है कि न सिर्फ़ आम जनता बल्कि संवैधानिक पदों पर बैठे कई लोग भी इस घटनाक्रम को जायज़ ठहराते हुए नज़र आ रहे हैं. ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें देखा गया है कि किसी भी अपराध में आरोपित बनाए गए लोगों को जब सारा देश दोषी मान चुका होता है, उसके बाद भी विस्तृत जांच में सामने आता है कि वे आरोपित निर्दोष थे.
आरोपित को दोषी मान लेने की भूल तो कई बार न्यायालय तक से हो जाती है और ऊपरी अदालत में अपील का प्रावधान इसीलिए हमारे क़ानूनों में बनाया गया है. राजीव गांधी की हत्या के मामले को ही देखें तो इस मामले में निचली अदालत ने सभी 26 आरोपितों को दोषी मानते हुए सभी को फांसी की सजा सुना दी थी. लेकिन ऊपरी अदालत में जब ये मामला पहुंचा तो न्यायालय ने निचली अदालत के फ़ैसले को ‘न्यायिक नरसंहार’ कहा और 26 में से 19 लोगों को बाक़ायदा रिहाई दे दी.

ऐसा ही उदाहरण कुख्यात आरुषि-हेमराज हत्याकांड का भी है. मीडिया में चर्चाओं के कारण सारा देश मान चुका था कि आरुषि और हेमराज की हत्या आरुषि के माता-पिता ने ही की है. लोगों में यह विश्वास इतना गहरा गया था कि एक छात्र ने तो आरुषि के पिता पर धारदार चाकू से हमला करके उन्हें लहूलुहान कर दिया था. इस मामले में भी निचली अदालत ने आरोपितों को सजा सुनाई थी लेकिन उच्च न्यायालय ने निचली अदालत को ग़लत पाया और आज दोनों ही आरोपित न्यायालय से बरी किए जा चुके हैं.
ये मामले तो ऐसे हैं जहां अदालत तक जन भावनाओं से प्रेरित होकर फ़ैसले करते दिखी. वो अदालत जिसकी महारत ही फ़ैसले करने में होती है और जिसे बनाया ही ऐसा गया है कि वह किसी भी तरह के दबाव से मुक्त होकर फ़ैसले ले सके. फिर पुलिस तो चौतरफ़ा दबाव में काम करने वाली संस्था है. वह अगर ‘न्याय करने’ या ‘फ़ैसले लेने’ का बीड़ा उठा ले तो स्थिति का भयावह हो जाना स्वाभाविक ही है. इतना भयावह कि न्याय की न्यूनतम गुंजाइश तक समाप्त हो जाए. क्योंकि हैदराबाद जैसे मामलों में अब यह कभी सुनिश्चित नहीं हो सकता कि आरोपी ही दोषी थे.

प्राकृतिक न्याय का मूल सिद्धांत ही ये कहता है कि ‘किसी भी व्यक्ति को बिना उसका पक्ष जाने सजा नहीं दी जा सकती.’ इसमें ये तर्क नहीं लाया जा सकता कि ऐसे बर्बर कृत्य के लिए आरोपित क्या ही बचाव दे सकता था? यही कारण है कि कसाब जैसे आतंकवादी को सारी दुनिया ने बर्बर हत्याएं करते देखा लेकिन उसके बाद भी भारतीय न्याय व्यवस्था ने उसे अपना पक्ष रखने का मौक़ा दिया और उसके लिए वक़ील की व्यवस्था भी सुनिश्चित की.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारी न्याय व्यवस्था में कई ख़ामियां है. अदालतों में इतने मामले लम्बित हैं कि अगर कोई भी नया मामला दर्ज न हो तब भी पुराने मामले निपटाने में दशकों लग जाएँगे. लेकिन इन कमियों का विकल्प वह कभी नहीं हो सकता जो हैदराबाद में हुआ. अराजक तत्व हर समाज में होते हैं, लेकिन इनसे निपटने के लिए पूरे समाज और उसकी व्यवस्था को ही अराजक बना देना कोई विकल्प नहीं हो सकता. हैदराबाद में जो हुआ, वह हमें सभ्यता के सफ़र में आगे बढ़ाने की जगह पीछे छींचने जैसा है जहां बर्बरता का जश्न मनाया जाता था.

लगातार बढ़ती बलात्कार की घटनाओं पर एक आम भारतीय का आक्रोशित होना स्वाभाविक है. लेकिन अहम सवाल ये है कि हम इस आक्रोश का इस्तेमाल समाज को किस दिशा में बढ़ाने में करते हैं? हैदराबाद जैसी दिशा में जहां पुलिस पहले भी क़ानून का पालन करने में आनाकानी करती रही और फिर आक्रोशित भीड़ को शांत करने के लिए दोबारा क़ानून को ताक पर रख बैठी? या उस दिशा में जहां ‘क़ानून का राज’ मज़बूत हो और लोगों में पुलिस का नहीं बल्कि क़ानून का डर हो.

समाज की सामूहिक चेतना का एक बेहतरीन उदाहरण हम नॉर्वे में हुई एक घटना में देख सकते हैं. साल 2011 में नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में आंदर्स बेहरिंग ब्रेविक नाम के एक व्यक्ति ने लगभग सौ लोगों की हत्या कर दी थी. ब्रेविक ने पहले तो एक बम धमाका किया और उसके बाद अंधाधुंध गोलीबारी करके क़रीब सौ लोगों की जान ले ली. ये मामला जब आख़िरी सुनवाई के लिए अदालत में आया तो सारी दुनिया की निगाहें इस मामले पर टिकी हुई थी. नॉर्वे में एक तबक़ा ऐसा भी था जो ब्रेविक को मौत की सजा देने की माँग कर रहा था. लेकिन नॉर्वे में साल 1979 में ही मौत की सजा ख़त्म की जा चुकी थी. हालाँकि तब कुछ अपवादों की गुंजाइश छोड़ी गई थी लेकिन नॉर्वे का मानना है कि राज्य अगर किसी हत्यारे को मौत की सजा देता है तो वह नैतिक रूप से उस हत्यारे जितना ही गिर जाता है.

अदालत में सुनवाई के दौरान ब्रेविक ने कहा कि उसे अपने किए का बिलकुल भी पछतावा नहीं है बल्कि अगर मरने वालों की संख्या और भी ज़्यादा होती तो वह ज़्यादा ख़ुश होता. सुनवाई के बाद अदालत ने ब्रेविक को 21 साल की सजा सुनाई जो वहां के क़ानून में अधिकतम सजा थी. इस पर दुनिया भर से प्रतिक्रियाएँ आई. कई लोगों ने इस फ़ैसले की आलोचना की और ब्रेविक को मौत की सजा न देने पर हैरानी जताई. लेकिन नॉर्वे के लोग जिन्होंने इस हमले में अपने परिजनों को खोया था, वे इस फ़ैसले के बाद एक-दूसरे के गले मिले. उनका मानना था कि न्याय की जीत हुई है और एक व्यक्ति की दरिंदगी उनके पूरे समाज को वापस बर्बरता की ओर नहीं ले जा सकती.

हालाँकि ये भी सच है कि नॉर्वे ने इतनी परिपक्वता दिखाई तो इसका एक कारण ये भी है कि उनका समाज अपराधों को नियंत्रित करने के मामले में भी बहुत आगे है. साथ ही ऐसी घटनाओं पर ज़िम्मेदारी तय करने के मामले में भी. इसी मामले की ही बात करें तो इस घटना के बाद नॉर्वे में मंत्री से लेकर पुलिस के सर्वोच्च अधिकारी और ख़ुफ़िया विभाग के मुखिया तक को इस्तीफ़ा देना पड़ा था. लेकिन इसके बावजूद भी अपने सामूहिक आक्रोश को नियंत्रित रखने और सही दिशा में इस्तेमाल करने की ऐसी मिसाल अनुकरणीय है.
हमारे सामने दोनों ही विकल्प खुले हैं. तय हमें करना है कि हम हैदराबाद की घटना का विरोध करते हुए नॉर्वे जैसा समाज बनाना चाहते हैं या इस घटना का समर्थन करके तालिबान जैसा. लेकिन ये तय करते हुए हमें याद रखना होगा कि बर्बरता का जश्न हमेशा ही आत्मघाती होता है.

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