बिहार में पढ़ने वाले बच्चे जेएनयू, जामिया और डीयू को क्यों नहीं समझ पा रहे हैं?

पिछले दशकों में बिहार की उच्च शिक्षा बर्बाद हो गई है. स्कूली शिक्षा तो पहले भी बदतर थी.

WrittenBy:दीपक कुमार
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

कुछ दिन पहले मैं पटना के एक मॉल में कपड़ा खरीदने गया था. जहां दो लड़के आपस में मोबाइल नंबर एक्सचेंज कर रहे थे. शायद दोनों दोस्त थे जो बहुत दिनों बाद मिले थे. एक ने व्यंग्य के लहजे में ही अपने दोस्त से कहा कि तुम्हारा नंबर नाम के साथ जेएनयू लगाकर सेव कर लेता हूं. इस पर दूसरे ने कहा कि मैं फिर तुम्हारा नंबर जामिया के नाम से सेव कर लूंगा. दोनों के हाव-स्वभाव से लगा कि जेएनयू और जामिया का नाम उनके लिए गाली के समान है.

subscription-appeal-image

Support Independent Media

The media must be free and fair, uninfluenced by corporate or state interests. That's why you, the public, need to pay to keep news free.

Contribute

यदि आप बिहार में हैं तो आपको सौ छात्रों के बीच एक सर्वे कराकर देख लेना चाहिए. नहीं संभव हो तो कुछ से बात करके ही देखिए. मुझे यह करने की जरूरत इसलिए नहीं पड़ती क्योंकि मेरे एक रिश्तेदार ने छात्रों के लिए मेस खोला हैं. जहां रोजाना दो-तीन सौ बच्चे खाने आते हैं. मैं कुछ समय निकालकर उनके बीच चला जाता हूं. मुझे देश के हर मामले पर छात्रों की मोटा-मोटी धारणा का पता चल जाता है. जेएनयू हिंसा के बाद पटना यूनिवर्सिटी में भी प्रोटेस्ट हुआ था. लेकिन छात्र बहुत ही कम संख्या में जुटे थे. जुटे भी तो वो संवेदनशीलता नहीं दिखी.

आख़िर बिहार के बच्चे इन मुद्दों पर एकजुट क्यों नहीं हो पा रहे हैं? या उनके भीतर इस मुद्दे को लेकर कोई व्यापक समझ क्यों नहीं बन पा रही है? क्या उनके लिए इन सब चीज़ों के कुछ मायने नहीं है? आपातकाल के समय सबसे आग रहकर आंदोलन करने वाला बिहार इस मौके पर इतना शिथिल क्यों हैं? इस सवाल का जवाब ढूंढ़ना एक गहरे कुंए में उतरने जैसा है. लेकिन एक जवाब सबसे आसान है, पिछले दशकों में बिहार की उच्च शिक्षा बर्बाद हो गई है. स्कूली शिक्षा तो पहले भी बदतर थी लेकिन कॉलेज बच्चों को सम्भाल लेते थे.

आइआइटी की तैयारी करते हुए मैं अपने कोचिंग गुरुओं से साइंस कॉलेज की महिमा बहुत ध्यान से सुना करता था. मैं ही नहीं आप भी सुना करते होंगे. एचसी वर्मा से लेकर केसी सिन्हा की बात होती होगी. लेकिन उस समय एक बात बहुत अखरती थी कि कॉलेज की कल्पना के लिए मुझे बाप की जवानी की कल्पना करनी पड़ती थी. क्योंकि साइंस पढ़ने के लिए कॉलेज की कल्पना मैं कर नहीं सकता था. मुझे सीधे आइआइटी को ही सपनों में उतारना था.

ट्यूशन करते-करते पिछवाड़े में साइकिल सीट की टैटू बन गई थी. सारा जोश तो इसी में खत्म हो जाता था पढ़ाई क्या ही कर पाता. खैर, जहां तक उच्च शिक्षा के बर्बाद होने का प्रश्न है तो इसे साज़िशन बर्बाद किया गया है. विकास पुरुष के राज में कॉलेज की दशा बद से बदतर हो गई है, जबकि कोचिंग कारोबार लाखों-हजारों करोड़ का हो गया. आप आस-पास नज़र दौड़ाएंगे तो बहुत ही कम बच्चे होंगे जो कॉलेज जाते दिखेंगे. कॉलेज में एडमिशन लेकर वे ट्यूशन करने चले जाते हैं.

एक और चीज़ बिहार के बच्चों में आम तौर पर दिखेगा कि अधिकतर बच्चे साइंस ले लेते हैं. मेरे आठ भाइयों में अधिकतर साइंस के छात्र हैं. पर उन्होंने कभी कॉलेज ही नहीं देखा. फिर भी वो केमेस्ट्री-फिजिक्स से ग्रेजुएट हो चुके हैं. कैसे हुए यह सभी को मालूम है. ले-देकर एक पटना यूनवर्सिटी है जहां बच्चे पढ़ने जाते हैं, वहां टीचिंग सेक्शन के 810 पदों में 500 और नॉन टीचिंग सेक्शन में 1,300 से ज्यादा पद खाली हैं. इन रिक्त पदों को देखते हुए हम बच्चे से जवान हो गए. अब आगे चलकर इन्हीं रिक्त पदों के लिए अप्लाई करते हुए भी दिखेंगे.

यह कल्पना से परे है कि पिछले दशक में बिहार के लाखों बच्चे बिना शिक्षक, प्रयोगशाला और किताब के साइंस में ग्रेजुएट हो गए. यह विश्व की अपवाद जगहों में होगा शायद. कॉलेज कल्पनाओं को विस्तार देता है और आलोचनात्मक दृष्टिकोण पैदा करता है. लेकिन बिहार की एक पीढ़ी को साज़िश करके इससे दूर कर दिया गया है. वो बस अपने बाप की जवानी में ही कॉलेज की कल्पना कर सकते हैं. उन शिक्षकों की कल्पना कर सकते हैं जिनके लिखे ग्रंथ कॉलेज की लाइब्रेरियों में सड़ रहे हैं. जिसको झांकने वाला अब कोई नहीं बचा है.

नौजवानों की यह पीढ़ी चाहकर भी जेएनयू-डीयू के स्तर को नहीं समझ सकती. इसे व्हॉट्सएप यूनिवर्सिटी में पढ़ने के लिए मजबूर किया गया है. वो उसी नजरिए से जेएनयू-डीयू को देखेगा. आप लाख चाहकर भी उसे समझा नहीं सकते. ये बच्चे दशकों से खोदे जा रहे उस कुंए में डूब चुके हैं जहां ज्ञान और विवेक की रस्सी नहीं पहुंच सकती.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like