इलेक्टोरल बांड: वित्त विधेयक बनाकर इसे राज्यसभा की निगहबानी से कैसे बचाया अरुण जेटली ने

चुनावी फंडिंग से जुड़ा यह कानून लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं है, इसके बावजूद इसे राज्यसभा की सहमति के बगैर पास किया गया, जहां भारतीय जनता पार्टी अल्पमत में थी.

WrittenBy:नितिन सेठी
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कानून मंत्रालय ने मोदी सरकार द्वारा जल्दबाजी में विवादास्पद इलेक्टोरल बॉन्ड से संबंधित लिये गये फैसले और इलेक्टोरल फंडिंग से जुड़े अन्य कानूनों में संसदीय प्रक्रिया के तहत किये गये बदलावों को आधिकारिक रूप से सहमति दी थी. मंत्रालय की तरफ़ से यह सब गड़बड़ियां की गई. हमें मिले दस्तावेज़ों में इस बात के पूरे साक्ष्य हैं कि मोदी सरकार द्वारा इस पर राज्यसभा को बाइपास करना असंवैधानिक, गैरकानूनी था.

इसमें शेल कंपनियों तक को गुप्त रूप से राजनैतिक दलों को असीमित चुनावी चंदा देने की छूट दे दी गई. यह और चिंताजनक बात है कि सरकार की तरफ़ से यह ग़ैरकानूनी रास्ता अपनाने के पहले अंदरूनी तौर पर क्या विचार-विमर्श किया गया कि इसका कोई आधिकारिक लेखा-जोखा सार्वजनिक रूप से मुहैया नहीं है. चर्चा को ‘अनौपचारिक चर्चा’ का नाम दिया गया जिसमें अज्ञात लोग शामिल रहे. यह सब कुछ पूरी तरह से ग़ैरकानूनी है क्योंकि यह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की अवहेलना है और सरकार के कामकाज की नियमावली का उल्लंघन है.

कानून मंत्रालय द्वारा जारी किये गये दो पन्ने का एक दस्ब्तावेज हमें मिला है जिससे हमें पता चलता है कि कानून मंत्रालय ने सरकार के असंवैधानिक क़दम को सहमति देने के अपने फैसले को सरकार को दबे स्वर में यह सुझाव देते हुए न्यायसंगत ठहराया कि भविष्य में इस मामले को नज़ीर के तौर पर न देखा जाए.

2017 में तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बजट पेश करने के दौरान अपने भाषण में पहली बार इलेक्टोरल बांड योजना की चर्चा की थी, जिसमें कारपोरेट घरानों, ट्रस्टों, एनजीओ व किसी भी व्यक्ति द्वारा राजनैतिक दलों को असीमित धनराशि गुप्त रूप से देने की छूट दी गई थी.

योजना को अमली जामा पहनाने के लिये तमाम कानूनी फेरबदल की ज़रूरत थी. सबसे विवादास्पद बदलाव कंपनी अधिनियम के अंतर्गत आने वाले ख़ास प्रावधान को ख़त्म करना रहा जिससे केवल लाभ में चल रही कंपनियों को ही राजनैतिक दलों को चुनावी चंदा देने की आज़ादी मिलती थी, शेल कपनियों (जो काग़ज़ों पर चलती हैं, पैसे का भौतिक लेन-देन नहीं करती) को यह अधिकार नहीं था. इस प्रावधान के तहत कंपनियां एक निश्चित सीमा तक ही चंदा दे सकती थी. साथ ही यह बाध्यता थी कि चुनावी चंदा किस दल को दिया गया, इस बात की जानकारी भी देनी होगी.

राज्यसभा में अल्पमत में होने की वजह से सत्तारूढ़ दल भाजपा को इस बात का अंदाज़ा था कि ऊपरी सदन में इस योजना को ज़रूरी समर्थन मिलने में मुश्किलें आ सकती हैं.

आरटीआई कार्यकर्ता व एनसीपीआरआई के सदस्य सौरव दास को सूचना अधिकार अधिनियम के तहत मिले दस्तावेज़ों से यह ज़ाहिर होता है कि कैसे तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाते हुए योजना के बेहद विवादास्पद पहलुओं को धन विधेयक की श्रेणी में डाल दिया. संविधान के आर्टिकल 110 के अनुसार धन विधेयक को राज्यसभा में पारित कराने की कोई मजबूरी नही नहीं.

इन दस्तावेज़ों से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि अरुण जेटली के कार्यकाल में कारपोरेट कार्य मंत्रालय ने धन विधेयक के तौर पर इसकी वैधता की जांच के संदर्भ में कानून मंत्रालय की राय मांगी. कानून मंत्रालय ने एक तरफ़ जोर देते हुए कहा था कि यह धन विधेयक के तौर पर पेश नहीं किया जा सकता, लेकिन बाद में रहस्यमयी ढंग से इसे अपनी सहमति भी दे दी.

नतीजतन यह जानते हुए भी कि चुनावी फंडिंग से जुड़ा कानून लोकतंत्र की सेहत के लिए अच्छा नहीं है, इसे राज्यसभा की सहमति के बगैर पास किया गया. जहां भारतीय जनता पार्टी अल्पमत में थी.

कानून मंत्रालय व कारपोरेट मंत्रालय को हमने कई सवाल भेजा लेकिन उन सवालों का कोई जवाब नहीं आया. मंत्रालय की तरफ़ जवाब आने की स्थिति में इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

पढ़ें: मोदी सरकार ने कैसे रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया के अधिकारों का हनन किया, चुनाव आयोग को गुमराह किया, कैसे इलेक्टोरल बॉन्ड के संदर्भ में अपना ही स्टैंड बदल दिया, और स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से ज़ोर-जबरदस्ती करते हुए भारतीय राजनीति में काले धन के मुक्त प्रवाह के दरवाज़े खोल दिए

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अरुण जेटली की भूमिका

2017 में अरुण जेटली दो मंत्रालयों का कार्यभार संभाल रहे थे. एक तरफ़ वे वित्तमंत्री थे साथ ही कारपोरेट कार्य मंत्रालय की कमान भी उनके हाथ में थी. इलेक्टोरल बॉन्ड योजना के विवादास्पद पहलुओं को पर्दे में रखते हुए बिल पास कराने के संदर्भ में ऐसा आधिकारिक दख़ल होना उनकी योजना के लिए मुफ़ीद रहा.

संसद में बजट व वित्त विधेयक के पेश किये जाने के कुछ हफ़्ते बाद, जिसमें इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की चर्चा की गई थी, 8 मार्च 2017 को कंपनी अधिनियम 2013 में संशोधन पर चर्चा के लिए अरुण जेटली ने बतौर कारपोरेट कार्य मंत्री मंत्रालय के अधिकारियों की बैठक बुलाई. इनमें से कुछ संशोधनों के सदर्भ में, मसलन कंपनियों में स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका आदि, प्लानिंग अभी बाकी थी. ‘हमें मिले दस्तावेज़ इस बात से पर्दा हटा देते हैं कि उनमें से किसी का भी कारपोरेट घरानों द्वारा राजनैतिक दलों को दी जाने वाली फंडिंग से संबंधित नियमावली से ठीक-ठीक सरोकार नहीं था.

फिर भी ठीक तकरीबन हफ़्ते भर बाद 16 मार्च को एक फाइल नोटिंग में मामले पर टिप्पणी दी गई कि विधेयक में एक और संशोधन किया जाएगा ताकि शेल कंपनियां भी राजनैतिक दलों को गुप्त रूप से फंडिंग कर सकें. जबकि 8 मार्च 2017 को पहली बैठक के एजेंडे में यह बात नहीं थी.

उसमें यह भी जोड़ा गया कि तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए इस बात का निर्णय लिया गया कि कंपनी अधिनियम 2013 के अनुच्छेद 182 ( जिसमें राजनैतिक चंदे के संदर्भ में प्रतिबंधों व बाध्यताओं का प्रावधान है) में संशोधन किया जा सकता है, साथ ही अन्य तमाम चीज़ों को मद्देनज़र रखते हुए सरकार की तरफ़ से इलेक्टोरल फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिये ज़रूरी कार्यवाही की जा रही है.

अनुच्छेद 182 में प्रस्तावित संशोधनों में से दो महत्वपूर्ण हैं: नियमावली में आए बदलाव से अब कारपोरेट फंडिंग की कोई अधिकतम सीमा नहीं रह जाएगी. जबकि फंडिंग से जुड़ा पुराना प्रावधान कहता था कि पिछले तीन सालों के नेट प्रॉफिट का 7.5% धनराशि (अधिकतम) ही चंदा के तौर पर देय थी. वहीं दूसरे संशोधन के बाद कारपोरेट घरानों की वह बाध्यता ख़त्म हो जाएगी जिसकी वजह से उन्हें फंड किये गये राजनैतिक दल का नाम उजागर करना पड़ता था.

फाइल नोटिंग में इस बात का कोई ज़िक्र नहीं है कि यह प्रस्ताव कौन लाया, लेकिन यह ज़रूर कहा गया कि यह 8 मार्च को अरुण जेटली के साथ हुई बैठक के बाद वित्त मंत्रालय के राजस्व विभाग के अधिकारियों व कारपोरेट कार्य मंत्रालय के प्रतिनिधियों के बीच हुई ‘अनौपचारिक बैठक थी.

लिखित टिप्पणी में इस बात का भी ज़िक्र नहीं है कि वह ख़ास व्यक्ति कौन है जिसने अनौपचारिक बैठक की. लेकिन इस बात का ज़िक्र ज़रूर है कि एक ‘अनौपचारिक बैठक’ में वित्त विधेयक 2017; जो उस साल 1 फ़रवरी को संसद में पेश किया गया था लेकिन लोकसभा में उसे पास होना बाकी था.

कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय जो की पीएम नरेंद्र मोदी के अधीन आता है, सरकार की कामकाजी गतिविधियों की निगरानी करता है. इसकी नियमावली के तहत एक ही या अलग-अलग विभागों के दो या दो से अधिक अधिकारियों की बैठक या फ़ोन पर की गई चर्चाओं समेत सारी बहस-चर्चाओं का दस्तावेज़ीकरण किया जाता है. सर्विस कंडक्ट रुल के तहत अधिकारियों द्वारा मौखिक आदेशों का पालन वर्जित है. सुप्रीम कोर्ट ने मौखिक आदेशों व बहस-चर्चाओं को ग़ैरकानूनी करार दिया है. टीएसआर सुब्रमण्यम बनाम भारत सरकार केस 2013 के अपने निर्णय में शीर्ष अदालत ने आदेश दिया: ‘प्रशासनिक अधिकारी मौखिक दिशा-निर्देशों आदेशों, सुझावों, प्रस्तावों आदि के आधार पर काम नहीं कर सकते और उन्हें वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों, राजनीतिक प्रतिनिधियों आदि की तरफ़ से या बिजनेस या किसी अन्य निहित स्वार्थ की वजह से असंवैधानिक व अनापेक्षित दबावों से मुक्त रखा जाना चाहिए.’

इसलिए सरकार के अधिकारियों की ‘अनौपचारिक चर्चाएं’ अवैध हैं. क़ायदे से तो हर तरह की आधिकारिक चर्चा व निर्णयात्मक प्रस्तावों के मिनट्स अनिवार्य तौर पर तैयार किये जाने चाहिए. इस मामले में यह नहीं किया गया. अगर कानून का यह सीधा उल्लंघन चिंताजनक था, तो जो कुछ भी इस ‘अनौपचारिक चर्चा’ में प्रस्तावित था, उसके पीछे की मूल भावना भी दागदार ही है.

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कैसे इसे विधेयक बनाया गया

जब सरकार किसी कानून में संशोधन करती है, उस ‘संशोधन बिल’ का ड्राफ्ट तैयार करना होता है जिसमें प्रस्तावित बदलावों की विस्तृत चर्चा होती है. विभिन्न मंत्रालयों के नौकरशाह बदलावों पर मंत्रणा करते हैं, साथ ही आम नागरिकों के सुझाव भी आमंत्रित किये जाते हैं. संशोधन का प्रस्ताव इसके बाद चर्चा और वोटिंग के लिए लोकसभा व राज्यसभा में पेश किया जाता है.

गौरतलब है कि कंपनी अधिनियम 2013 के अनुच्छेद 182 में भारतीय चुनावों में कारपोरेट फंडिंग से संबंधित प्रावधान हैं, इसमें किसी भी तरह के संशोधन के लिए सरकार को यही रास्ता अख्तियार करना चाहिए था. लेकिन मोदी सरकार ने कुछ अलग सोचते हुए यह निर्णय लिया कि लोक महत्व के इस अभूतपूर्व मुद्दे पर अज्ञात लोगों के बीच हुई ‘अनौपचारिक चर्चा’ ही पर्याप्त होगी.

इस संदर्भ में सरकार ने प्रस्तावित बदलावों को वित्त विधेयक बनाकर राज्यसभा को इस पर बहस-चर्चा करने के अधिकार से ही मुक्त कर दिया.

भारतीय संविधान के आर्टिकल 110 के अनुसार धन विधेयक का संबंध सरकारी जमा-खर्चे, कर, लेनदारी आदि से है जिनका सीधा असर देश के राजकोष पर पड़ता है.

क्या कंपनी अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन बिल के अनुरूप हैं?

16 मार्च, 2017 को जारी किये गये नोट में कारपोरेट कार्य मंत्रालय ने घुमावदार व उलझाऊ तर्क दिया: ‘ध्यान देने वाली बात है कि अनुच्छेद 182 के तहत जितनी भी कंपनियां राजनैतिक दलों को चंदा देती हैं उन्हें इनकम टैक्स एक्ट की धारा 80जीजीबी के तहत कर अदायगी में छूट दी जाएगी. फंडिंग से 7.5% धनराशि वाली लिमिट हटा देने का सरकार के टैक्स रेवेन्यु पर असर पड़ने की संभावना है.’

राजनैतिक चंदों को टैक्स में छूट मिलती रही है. इसलिए अगर सरकार चंदों से कानून का नियंत्रण हटा लेती है तो कंपनियां ज़्यादा से ज़्यादा चंदा दे पाएंगी लिहाज़ा उन्हें कर अदायगी में उतनी ही छूट हासिल होगी. इससे सरकार के राजस्व पर प्रभाव पड़ेगा और इसके परिणामस्वरुप कंपनी अधिनियम में किये जा रहे संशोधन धन विधेयक के दायरे में आ सकेंगे

अगर यह अपने आप में हदों का विस्तार था तो भी उस नोट में इस बात की पुष्टि करने की ज़हमत नहीं उठाई गई कि गोपनीय फंडिंग को छूट देने वाला यह संशोधन सरकारी राजस्व को कैसे प्रभावित करता है कि वह धन विधेयक के दायरे में आ जाता है.

कानून मंत्रालय की सलाह

16 मार्च, 2017 को कारपोरेट कार्य मंत्रालय की तरफ़ से कानून मंत्रालय को एक आधिकारिक पत्र भेजा गया. पत्र में यह पूछा गया कि क्या कंपनी अधिनियम के अनुच्छेद 182 में वित्त विधेयक 2017 में संशोधन करते हुए बदलाव संभव है.

कानून मंत्रालय ने ठीक अगले ही दिन दो पन्ने का लिखित जवाब दिया. यह जवाब उप कानूनी सलाहकार आरजेआर कासीभाटला ने तैयार किया जिस पर जॉइंट सेक्रेटरी एसआर मिश्रा समेत सभी वरिष्ठ अधिकारियों के हस्ताक्षर थे.

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ये कहता है: ‘तमाम तथ्यों व मौजूदा संवैधानिक स्थिति के तहत चूंकि अनुच्छेद 182 (जिसके संदर्भ में बदलाव प्रस्तावित है) के तहत आने वाले प्रावधानों का आर्टिकल 110(1) की उपधाराओं (ए से जी) से सीधा संबंध नहीं है, इसलिए इसे धन विधेयक के तौर पर सीधे-सीधे पेश नहीं किया जा सकता.’

‘हालांकि जैसा कि ऊपर तीसरे पैराग्राफ में कहा गया है कि प्रस्तावित संशोधन चूंकि इनकम टैक्स अधिनियम 1961 की नियमावली और राजस्व की समेकित निधि को प्रभावित करते हैं, इसलिए वित्त विधेयक 2017 में आधिकारिक तौर पर संशोधन करते हुए ये प्रस्तावित बदलाव किये जा सकते हैं.’

लेकिन भले ही कानून मंत्रालय ने इस अपना आशीर्वाद दिया हो लेकिन उसे भी इस बात का अहसास था कि यह असंवैधानिक व ग़ैरकानूनी है. उसने अपनी बात के अंत में कहा कि भविष्य में इससे बचना चाहिए.

‘इस तरह की ग़ैरकानूनी प्रक्रिया आम हो जाए, इससे बचने के लिए भविष्य में मौजूदा कानूनों व कानूनी प्रक्रियाओं को व्यावहारिक तौर पर अपनाया जाना ही बेहतर होगा,’ नोट में कहा गया.

कानून मंत्रालय की ये सलाह तत्काल ही नौकरशाही के शीर्ष स्तर पर पहुंच गई. ठीक उसी दिन हर अधिकारी ने वित्त विधेयक में संशोधन वाले कंपनी अधिनियम के अनुच्छेद 182 को बदलने की सहमति दे दी. बतौर कारपोरेट कार्य मंत्री अरुण जेटली भी उसी दिन इससे सहमत हो गये और इस बात को सुनिश्चित करते हुए वित्त मंत्रालय को एक आधिकारिक पत्र भेजा गया, जहां वित्त मंत्री अरुण जेटली हाथ में हरी झंडी लिये पहले से ही पत्र की ताक में खड़े थे.

चार दिन बाद, 21 मार्च 2017 को अरुण जेटली ने संशोधन का प्रस्ताव रखा. संशोधन में वे सारे बदलाव आ गये जो सरकार कंपनी अधिनियम में करना चाहती थी.

31 मार्च 2017 को लोकसभा में वित्त विधेयक पारित हुआ. कंपनी अधिनियम 2013 के अनुच्छेद 182 में राज्यसभा की सहमति के बगैर संशोधन किया गया. कारपोरेट घराने अब राजनैतिक दलों को गुप्त रूप से चंदा दे सकते थे, भले ही इसमें उनका सीधे-सीधे कोई फ़ायदा न हो. अब ऐसा करने में पहचान ज़ाहिर होने का कोई ख़तरा न था. अब उन्हें किसी नियामक को अपने खातों की सालाना जानकारी देने की बाध्यता न थी, साथ ही यह बाध्यता भी नहीं रही कि इस बात की जानकारी दी जाए कि किस राजनैतिक दल को, कितना फंड दिया गया.

आरटीआई कार्यकर्ता सौरव दास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यालय से भी इस संबंध में जानकारी हासिल करने का प्रयास किया कि शेल कंपनियों द्वारा असीमित धनराशि की फंडिंग का दरवाज़ा खोलने वाले कंपनी अधिनियम-2013 में प्रस्तावित संशोधनों पर चर्चा व इसके पारित होने की पूरी प्रक्रिया क्या थी. सौरव ने इस संदर्भ में सारी फ़ाइल टिप्पणियों, मिनट्स, आधिकारिक पत्रों, आदि दस्तावेज़ों की मांग की. उन्होंने ऐसा किया क्योंकि संशोधनों के संबंध में हुई अंतर मंत्रालयी चर्चाओं पर प्रधानमंत्री की रायशुमारी की जाती है.

प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ़ से विरोधाभासी बातें करते हुए किसी भी तरह की कोई जानकारी देने से मना कर दिया गया. कार्यालय की तरफ़ से पहले कहा गया: ‘निवेदक की अर्ज़ी में बहुत फैलाव, सवालों में बिखराव व उलझाव है. इससे यह बात स्पष्ट तौर पर सामने नहीं आती की आवेदक को कौन सी ख़ास जानकारी चाहिए.’

जबकि सौरव दास के सवाल सीधे और स्पष्ट थे, ख़ास तौर पर कंपनी अधिनियम 2013 में वित्त विधेयक 2017 के ज़रिए सरकार द्वारा किये गये संशोधन से जुड़े.

प्रधानमंत्री कार्यालय ने जवाब न देने का एक और कारण यह बताया कि इस तरह से सूचनाएं साझा करने में पब्लिक अथॉरिटी के संसाधनों का दुरूपयोग होगा.

इससे यह बात साफ़ हो जाती है कि प्रधानमंत्री कार्यालय जानता है कि उसके पास जानकारी व प्रमाण मौजूद हैं लेकिन उसे लगता है कि नागरिकों को सूचना के अधिकार के तहत जानकारी साझा करने से संसाधनों का दुरूपयोग हो जाएगा. प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से दी गई ये दोनों दलीलें एक साथ सही न हो सकती.

सौरव दास ने कारपोरेट कार्य मंत्रालय से भी सूचना के अधिकार के तहत यह जानने का प्रयास किया कि क्या किसी कंपनी ने आधिकारिक रूप से यह मांग की थी कि राजनैतिक दलों को फंड देने के संदर्भ में कानून में संशोधन किया जाए ताकि वे गुप्त रूप से फंडिंग कर सकें. उनका यह सवाल तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली के उस दावे से पैदा हुआ, जिसमें उन्होंने कहा था कि फंड देने वालों की यह चाह थी कि फंडिंग गुपचुप तरीक़े से हो. कारपोरेट कार्य मंत्रालय ने दास को जवाब दिया कि उनके पास ऐसा कोई दस्तावेज़ नहीं है कि जिससे यह बात साबित हो कि किसी कंपनी ने ऐसे बदलावों की मांग की थी. हमने ने कुछ वक़्त पहले ही यह खुलासा किया था कि वित्त मंत्रालय ने भी यही कहा है कि इलेक्टोरल फंडिंग के संदर्भ में बदलावों के लिए उनसे किसी ने भी संपर्क नहीं किया था.

न केवल गोपनीय फंडिंग व फंडिंग की राह आसन करने से जुड़े संशोधनों को बल्कि वित्त विधेयक की आड़ में तमाम कानूनों में किये गये इन बदलावों को 2017 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. इलेक्टोरल बॉन्ड की कानूनी व संवैधानिक वैधता और इस योजना के क्रियान्वयन को भी शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई है. 2017 में ही दायर तमाम जनहित याचिकाओं पर सुनवाई लंबित है, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आना बाकी है.

दिल्ली विधानसभा चुनावों में अब जबकि कुछ दिन रह गये हैं, 11 जनवरी को सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री का चौदहवां चरण शुरू किया है.

(इस रिपोर्ट का अंग्रेजी संस्करण आप हफिंगटन पोस्ट इंडिया पर पढ़ सकते हैं)

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