सुधीर चौधरी की नादान पत्रकारिता का डीएनए

17 फ़रवरी को सुधीर चौधरी ने "जामिया के मासूम, भोले-भाले छात्रों का विश्लेषण" किया पर असली भोले तो वे खुद हैं.

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"आज कल जो न्यूज़ आप देखते हैं कई बार उसमें काफी मिलावट करके आपके सामने पेश की जाती है. और ये जो आज हमने आपको वीडियो दिखाया है ये एक ऐसी ख़बर है जिसमें लोगों ने अपने अपने एजेंडे के हिसाब से जम कर मिलावट की है. और सच्चाई का सिर्फ एक पक्ष आपके सामने रखा है. कुल मिलाकर इस मामले पर सबने सेलेक्टिव सच का प्रयोग किया है. ये सेलेक्टिव सच बहुत खतरनाक है. और इससे हर हालत में आपको बचना चाहिए."

आपको लगेगा की ये बात मैं सुधीर जी जैसे टीवी एंकर की तरफ इशारा करते हुए बोल रहा हूं. पर नहीं. ये मशवरा सुधीर जी ने खुद बीते सोमवार को ज़ी न्यूज़ के अपने कार्यक्रम डीएनए पर दिया. अगर आपको सुधीर जी की 'पत्रकारिता' डीकंस्ट्रक्ट करनी है तो यह उदहारण कई मायनों में बेहद सटीक है. सुधीर जी गांव के उस ताऊ की तरह हैं जिनके विचार तो उच्चकोटी के हैं पर जब बात उसे लागू करने की आती है तो वो हवाबाज़ी का सहारा ले उसी सार का इस्तेमाल अपनी कटुता और कट्टरता को फैलाने के लिए करते हैं.

कैसे?

जामिया हिंसा को अब करीबन दो महीनों से ऊपर हो गए हैं. पर पिछले शनिवार को इससे जुड़े कुछ नए वीडियो वायरल हुए जिससे ये सिद्ध हुआ कि ना सिर्फ दिल्ली पुलिस और सीआरपीएफ के लोग 15 दिसम्बर को जामिया लाइब्रेरी में घुसे बल्कि उन्होंने छात्रों पर बर्बरता से लाठी बरसाने में कोई संकोच नहीं दिखाया. यह वीडियो अब तक पुलिस के सामने आए बयानों पर कई सवाल उठाता है.

दिल्ली पुलिस के कारनामों का पानी सर से इतना ऊपर निकल चुका है कि देश के गृहमंत्री अमित शाह, जिन्हें दिल्ली पुलिस रिपोर्ट करती है, ने भी दिल्ली पुलिस को संयम से पेश आने की हिदायत दे दी. पर हमारे सुधीर जी की 'पत्रकारिता' भेंड़चाल की मोहताज नहीं. कुतर्क, चालाकी, और एंटी इस्टैब्लिशमेंट व्याकरण के भरोसे उन्होंने जामिया हिंसा की ऐसी छवि गढ़ दी कि शो के खत्म होने तक एक साधारण टीवी दर्शक यह सोचने पर मजबूर हो गया की पुलिस ने जामिया में 15 दिसंबरकी शाम जो किया वो सही और आवश्यक था.

नकाबपोश = पत्थरबाज = 12 वीं शताब्दी में इख्तियारुद्दीन बख्तियार खिलजी की सेना का नालंदा पर आक्रमण

"लाइब्रेरी में नकाब पहन के कौन सा छात्र आता है? और नकाब पहन के कौन सी पढ़ाई होती है?" सुधीर जी काफी जिज्ञासु पत्रकार हैं. वो सटीक और सिर्फ लाजिम सवाल पूछते हैं. उनका तर्क साधारण है कि पढ़ाई तो नाक-कान ढंक कर होती नहीं लिहाजा वीडियो में सारे नकाबपोश उपद्रवी पत्थरबाज होंगे.

सुधीर जी की नादानी भी तो देखिए की वे बिलकुल भूल गए की कॉलेज के अंदर और बाहर पुलिस आंसू गैस के गोले बरसा रही थी. खुद दिल्ली पुलिस ने माना है की टियर गैस का प्रभाव लाइब्रेरी के अंदर तक था. वीडियो में खुद पुलिसकर्मी भी टियर गैस से बचने के लिए अपने चेहरे पर रुमाल बांधे हुए दिखते हैं. बेचारे नादान सुधीर जी.

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ज़ी न्यूज़ एक बड़ा चैनल है. देश का स्व-घोषित सबसे पुराना समाचार चैनल. लेकिन शायद ज़ी ने जिज्ञासु सुधीरजी के साथ काम करने के लिए टीम नहीं दी. अगर दी होती तो वो भी बीबीसी की तरह उस छात्र को ढूंढ़ निकालते और उसका आंखों देखा बयान ले लेते. कुछ नहीं तो बीबीसी की रिपोर्ट ही पढ़ लेते ये समझने के लिए की छात्र ने क्यों किताब बंद रखी थी और क्यों नकाब पहन रखा था. आखिरकार बीबीसी की रिपोर्ट एक दिन पहले 16 फरवरी को ही आ गयी थी. बेचारे सुधीर जी.

एक अच्छे पत्रकार की यह खूबी होती है की उसकी इतिहास पर मजबूत पकड़ हो. तो सुधीर जी का दायित्व है की वो जामिया के पत्थरबाज़ों के बारे में बात करते हुए बख्तियार खिलजी को जरुर याद करें. क्यूंकि अब तो हिंसा फैलाने वालों की पहचान सिर्फ कपड़ों से नहीं उनके नाम से भी हो सकती है.

"हम इन वीडियो की सत्यता की जांच नहीं कर सकते"

सच्चा पत्रकार अपनी जिम्मेदारी बखूब समझता है. इसलिए सुधीर जी अपने दर्शकों को भटकाते नहीं है. वो डिस्क्लेमर दे देते हैं. ये अलग बात है की वो वीडियो की सत्यता बिना जाने ये बताना जरूरी समझते हैं कि सारे नकाबपोश प्रदर्शनकारी हैं और शायद बसों में आग लगाने वाले भी, जिनका पीछा करते हुए पुलिस जामिया के अंदर आई थी. सीसीटीवी फुटेज में कोई ऑडियो नहीं है पर तब भी वो बता रहे हैं की असल में जामिया की लाइब्रेरी में "पढ़ाई नहीं षडयंत्र" हो रहे हैं और कैसे लाइब्रेरी "बारूद का ढेर" बन गई है. इसे कहते हैं तजुर्बा. सुधीर जी जैसे अनुभवी पत्रकार की पैनी नज़र से ही यह तर्क संभव था.

"अब आप खुद सोचिए पुलिस ने जो किया वो क्या गलत किया? इन छात्रों के साथ और क्या सलूक किया जाना चाहिए?"

सुधीर जी की जिज्ञासा कतई क्षणिक नहीं है. वो इसका आह्वान पुलिस की जवाबदेही पर हर सवाल को ख़त्म करने के लिए करते हैं. ये सिद्ध करने के बाद कि कैसे नकाबपोश छात्र असल में प्रदर्शनकारी हैं वो एक अच्छे डिबेटर की तरह अपनी बात को लॉजिकल कन्क्लूज़न पे ले जाते हैं. एक कर्मठ पत्रकार की तरह उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता की कैसे यह वीडियो दिल्ली पुलिस के ऊपर कई सवाल उठाता है- दिल्ली पुलिस ने क्यों पहले झूठ बोला की वो लाइब्रेरी के अंदर नहीं गई? अगर नकाबपोश ही पत्थरबाज और आक्रामक प्रदर्शनकारी थे तो दिल्ली पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया? हाथ जोड़ते हुए छात्रों पर पुलिस ने लाठिया क्यों बरसाई? क्या ऐसे छात्र जिनकी आंख की रौशनी चली गई है या जिनके पैर टूट गए हैं, उनपे पुलिस की कोई जवाबदेही नहीं बनती है?

"अगर प्रधानमंत्री के आवास के सामने प्रदर्शन करने बैठ जाएं... या लुटियन जोन जहां बड़े-बड़े नेता रहते हैं, उनके घर के सामने अगर ये बैठ जाएं, तो आप मिनटों में उठवा देंगे. अगर कोई प्रदर्शनकारी कोर्ट के जज के घर सामने प्रदर्शन करना चाहे तो क्या वो कर पायेगा?... जो फैसला ले सकते हैं वो लोगों का दर्द नहीं समझ सकते हैं. क्योंकि वो लुटियन जोन में रहते हैं जहां कोई धरना, प्रदर्शन या ट्रैफिक जाम नहीं हो सकता."

जाहिर है की सुधीर चौधरी सुप्रीम कोर्ट के शाहीन बाग पर दिए गए बयान से सौ प्रतिशत संतुष्ट नहीं हैं. अब सुप्रीम कोर्ट के जज उनकी तरह देशहित को सबसे पहले तो रखते नहीं हैं. पर इसका भी सरल मतलब उन्होंने ने दर्शकों को बताया है की क्यों बुद्धिजीवी, नेता और सुप्रीम कोर्ट के जज शाहीनबाग प्रदर्शन को हटाना नहीं चाहते. जवाब: क्यूंकि वो सुधीर जी जैसे ज़मीन से जुड़े हुए नहीं हैं. उनकी तरह अगर बाकी लोग भी रोज़ाना सूट टाई लगाकर स्टूडियो में भाषण देते तो उन्हें भी जनता का दर्द समझ आता. लुटियन दिल्ली में रहने और पलने वाले लोग क्या जाने जमीनी हक़ीक़त?

सेलेक्टिव सच

सुधीर जी जानते हैं कि आजकल कैसे लोग झूठी ख़बर, आधा सच दिखाकर लोगों को भ्रमित करते हैं और प्रोपगैंडा फैलाते हैं. उन्होंने एक पूरा एपिसोड भी किया है फेक न्यूज़ पर. इसलिए तो डीएनए मैं वो सरलता से विषय समझाते हैं और दर्शकों को जागरूक रहने को कहते हैं. इस एपिसोड में भी उन्होंने टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया युग में सलेक्टिव सच की बात की और बताया की कैसे उन्होंने ने हर पक्ष का दावा रखा है?

उन्होंने गूगल मैप्स का प्रयोग करके ये तो दिखा दिया की किस तरह शाहीनबाग के इर्द गिर्द सड़कें जाम हैं, उन्होंने शाहीनबाग से सुप्रीम कोर्ट, मुख्यमंत्री आवास की दूरी भी बता दी पर ये नहीं बताया की किस तरह उत्तर प्रदेश और दिल्ली पुलिस ने उस इलाके को जोड़ने वाली वैकल्पिक सड़कों को भी ब्लॉक करके रखा है. वैसे भी ये सब काम डिज़ाइनर पत्रकारों के हैं.

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वो अलग बात है की उन्होंने एक पूरा एपिसोड जाया कर दिया ये सिद्ध करने में कि जामिया वीडियो के नकाबपोश ही प्रदर्शनकारी हैं पर एक भी बाईट जामिया स्टूडेंट से न तो लिया न किसी से खुद बात की. इसे कहते हैं सुधीर छाप संतुलन.

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आपको लगेगा की ये बात मैं सुधीर जी जैसे टीवी एंकर की तरफ इशारा करते हुए बोल रहा हूं. पर नहीं. ये मशवरा सुधीर जी ने खुद बीते सोमवार को ज़ी न्यूज़ के अपने कार्यक्रम डीएनए पर दिया. अगर आपको सुधीर जी की 'पत्रकारिता' डीकंस्ट्रक्ट करनी है तो यह उदहारण कई मायनों में बेहद सटीक है. सुधीर जी गांव के उस ताऊ की तरह हैं जिनके विचार तो उच्चकोटी के हैं पर जब बात उसे लागू करने की आती है तो वो हवाबाज़ी का सहारा ले उसी सार का इस्तेमाल अपनी कटुता और कट्टरता को फैलाने के लिए करते हैं.

कैसे?

जामिया हिंसा को अब करीबन दो महीनों से ऊपर हो गए हैं. पर पिछले शनिवार को इससे जुड़े कुछ नए वीडियो वायरल हुए जिससे ये सिद्ध हुआ कि ना सिर्फ दिल्ली पुलिस और सीआरपीएफ के लोग 15 दिसम्बर को जामिया लाइब्रेरी में घुसे बल्कि उन्होंने छात्रों पर बर्बरता से लाठी बरसाने में कोई संकोच नहीं दिखाया. यह वीडियो अब तक पुलिस के सामने आए बयानों पर कई सवाल उठाता है.

दिल्ली पुलिस के कारनामों का पानी सर से इतना ऊपर निकल चुका है कि देश के गृहमंत्री अमित शाह, जिन्हें दिल्ली पुलिस रिपोर्ट करती है, ने भी दिल्ली पुलिस को संयम से पेश आने की हिदायत दे दी. पर हमारे सुधीर जी की 'पत्रकारिता' भेंड़चाल की मोहताज नहीं. कुतर्क, चालाकी, और एंटी इस्टैब्लिशमेंट व्याकरण के भरोसे उन्होंने जामिया हिंसा की ऐसी छवि गढ़ दी कि शो के खत्म होने तक एक साधारण टीवी दर्शक यह सोचने पर मजबूर हो गया की पुलिस ने जामिया में 15 दिसंबरकी शाम जो किया वो सही और आवश्यक था.

नकाबपोश = पत्थरबाज = 12 वीं शताब्दी में इख्तियारुद्दीन बख्तियार खिलजी की सेना का नालंदा पर आक्रमण

"लाइब्रेरी में नकाब पहन के कौन सा छात्र आता है? और नकाब पहन के कौन सी पढ़ाई होती है?" सुधीर जी काफी जिज्ञासु पत्रकार हैं. वो सटीक और सिर्फ लाजिम सवाल पूछते हैं. उनका तर्क साधारण है कि पढ़ाई तो नाक-कान ढंक कर होती नहीं लिहाजा वीडियो में सारे नकाबपोश उपद्रवी पत्थरबाज होंगे.

सुधीर जी की नादानी भी तो देखिए की वे बिलकुल भूल गए की कॉलेज के अंदर और बाहर पुलिस आंसू गैस के गोले बरसा रही थी. खुद दिल्ली पुलिस ने माना है की टियर गैस का प्रभाव लाइब्रेरी के अंदर तक था. वीडियो में खुद पुलिसकर्मी भी टियर गैस से बचने के लिए अपने चेहरे पर रुमाल बांधे हुए दिखते हैं. बेचारे नादान सुधीर जी.

ज़ी न्यूज़ एक बड़ा चैनल है. देश का स्व-घोषित सबसे पुराना समाचार चैनल. लेकिन शायद ज़ी ने जिज्ञासु सुधीरजी के साथ काम करने के लिए टीम नहीं दी. अगर दी होती तो वो भी बीबीसी की तरह उस छात्र को ढूंढ़ निकालते और उसका आंखों देखा बयान ले लेते. कुछ नहीं तो बीबीसी की रिपोर्ट ही पढ़ लेते ये समझने के लिए की छात्र ने क्यों किताब बंद रखी थी और क्यों नकाब पहन रखा था. आखिरकार बीबीसी की रिपोर्ट एक दिन पहले 16 फरवरी को ही आ गयी थी. बेचारे सुधीर जी.

एक अच्छे पत्रकार की यह खूबी होती है की उसकी इतिहास पर मजबूत पकड़ हो. तो सुधीर जी का दायित्व है की वो जामिया के पत्थरबाज़ों के बारे में बात करते हुए बख्तियार खिलजी को जरुर याद करें. क्यूंकि अब तो हिंसा फैलाने वालों की पहचान सिर्फ कपड़ों से नहीं उनके नाम से भी हो सकती है.

"हम इन वीडियो की सत्यता की जांच नहीं कर सकते"

सच्चा पत्रकार अपनी जिम्मेदारी बखूब समझता है. इसलिए सुधीर जी अपने दर्शकों को भटकाते नहीं है. वो डिस्क्लेमर दे देते हैं. ये अलग बात है की वो वीडियो की सत्यता बिना जाने ये बताना जरूरी समझते हैं कि सारे नकाबपोश प्रदर्शनकारी हैं और शायद बसों में आग लगाने वाले भी, जिनका पीछा करते हुए पुलिस जामिया के अंदर आई थी. सीसीटीवी फुटेज में कोई ऑडियो नहीं है पर तब भी वो बता रहे हैं की असल में जामिया की लाइब्रेरी में "पढ़ाई नहीं षडयंत्र" हो रहे हैं और कैसे लाइब्रेरी "बारूद का ढेर" बन गई है. इसे कहते हैं तजुर्बा. सुधीर जी जैसे अनुभवी पत्रकार की पैनी नज़र से ही यह तर्क संभव था.

"अब आप खुद सोचिए पुलिस ने जो किया वो क्या गलत किया? इन छात्रों के साथ और क्या सलूक किया जाना चाहिए?"

सुधीर जी की जिज्ञासा कतई क्षणिक नहीं है. वो इसका आह्वान पुलिस की जवाबदेही पर हर सवाल को ख़त्म करने के लिए करते हैं. ये सिद्ध करने के बाद कि कैसे नकाबपोश छात्र असल में प्रदर्शनकारी हैं वो एक अच्छे डिबेटर की तरह अपनी बात को लॉजिकल कन्क्लूज़न पे ले जाते हैं. एक कर्मठ पत्रकार की तरह उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता की कैसे यह वीडियो दिल्ली पुलिस के ऊपर कई सवाल उठाता है- दिल्ली पुलिस ने क्यों पहले झूठ बोला की वो लाइब्रेरी के अंदर नहीं गई? अगर नकाबपोश ही पत्थरबाज और आक्रामक प्रदर्शनकारी थे तो दिल्ली पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार क्यों नहीं किया? हाथ जोड़ते हुए छात्रों पर पुलिस ने लाठिया क्यों बरसाई? क्या ऐसे छात्र जिनकी आंख की रौशनी चली गई है या जिनके पैर टूट गए हैं, उनपे पुलिस की कोई जवाबदेही नहीं बनती है?

"अगर प्रधानमंत्री के आवास के सामने प्रदर्शन करने बैठ जाएं... या लुटियन जोन जहां बड़े-बड़े नेता रहते हैं, उनके घर के सामने अगर ये बैठ जाएं, तो आप मिनटों में उठवा देंगे. अगर कोई प्रदर्शनकारी कोर्ट के जज के घर सामने प्रदर्शन करना चाहे तो क्या वो कर पायेगा?... जो फैसला ले सकते हैं वो लोगों का दर्द नहीं समझ सकते हैं. क्योंकि वो लुटियन जोन में रहते हैं जहां कोई धरना, प्रदर्शन या ट्रैफिक जाम नहीं हो सकता."

जाहिर है की सुधीर चौधरी सुप्रीम कोर्ट के शाहीन बाग पर दिए गए बयान से सौ प्रतिशत संतुष्ट नहीं हैं. अब सुप्रीम कोर्ट के जज उनकी तरह देशहित को सबसे पहले तो रखते नहीं हैं. पर इसका भी सरल मतलब उन्होंने ने दर्शकों को बताया है की क्यों बुद्धिजीवी, नेता और सुप्रीम कोर्ट के जज शाहीनबाग प्रदर्शन को हटाना नहीं चाहते. जवाब: क्यूंकि वो सुधीर जी जैसे ज़मीन से जुड़े हुए नहीं हैं. उनकी तरह अगर बाकी लोग भी रोज़ाना सूट टाई लगाकर स्टूडियो में भाषण देते तो उन्हें भी जनता का दर्द समझ आता. लुटियन दिल्ली में रहने और पलने वाले लोग क्या जाने जमीनी हक़ीक़त?

सेलेक्टिव सच

सुधीर जी जानते हैं कि आजकल कैसे लोग झूठी ख़बर, आधा सच दिखाकर लोगों को भ्रमित करते हैं और प्रोपगैंडा फैलाते हैं. उन्होंने एक पूरा एपिसोड भी किया है फेक न्यूज़ पर. इसलिए तो डीएनए मैं वो सरलता से विषय समझाते हैं और दर्शकों को जागरूक रहने को कहते हैं. इस एपिसोड में भी उन्होंने टेक्नोलॉजी और सोशल मीडिया युग में सलेक्टिव सच की बात की और बताया की कैसे उन्होंने ने हर पक्ष का दावा रखा है?

उन्होंने गूगल मैप्स का प्रयोग करके ये तो दिखा दिया की किस तरह शाहीनबाग के इर्द गिर्द सड़कें जाम हैं, उन्होंने शाहीनबाग से सुप्रीम कोर्ट, मुख्यमंत्री आवास की दूरी भी बता दी पर ये नहीं बताया की किस तरह उत्तर प्रदेश और दिल्ली पुलिस ने उस इलाके को जोड़ने वाली वैकल्पिक सड़कों को भी ब्लॉक करके रखा है. वैसे भी ये सब काम डिज़ाइनर पत्रकारों के हैं.

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वो अलग बात है की उन्होंने एक पूरा एपिसोड जाया कर दिया ये सिद्ध करने में कि जामिया वीडियो के नकाबपोश ही प्रदर्शनकारी हैं पर एक भी बाईट जामिया स्टूडेंट से न तो लिया न किसी से खुद बात की. इसे कहते हैं सुधीर छाप संतुलन.

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