जजों पर सरकारी कृपा बरसती रही है पर जो नेहरु ने किया वो कोई और नहीं कर सका

मोदी ने गोगोई को राज्यसभा में लाकर इंदिरा गांधी काल की याद दिला दी, पर क्या वो नेहरु जैसा करने का साहस जुटा सकते हैं.

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उधर भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राज्यसभा नामित हुए, इधर मीडिया में बवाल कट गया. एक धड़ा ये कहने लगा कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को रिटायरमेंट के बाद किसी राजनैतिक पार्टी या पद से जुड़ने से पहले कुछ समय का ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ लेना चाहिए. तो कुछ लोगों को इसमें कोई आपत्ति नज़र नहीं आई. ऐसा नहीं है कि गोगोई पहले मुख्य न्यायाधीश हैं जो तथाकथित केंद्र सरकार के कृपापात्र हुए हैं. उनके पहले जस्टिस बहरुल इस्लाम और जस्टिस रंगनाथ मिश्र पर सरकारी कृपा हो चुकी है.

इंदिरा गांधी की सरकार में जज बहरुल इस्लाम का मामला दिलचस्प है. वकील बहरुल इस्लाम इंडियन नेशनल कांग्रेस के सदस्य थे. असम हाईकोर्ट का जज बनने के लिए उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. जब हाईकोर्ट से रिटायर हुए तो अचानक ही सुप्रीम कोर्ट के जज बना दिए गए. अपने कार्यकाल के दौरान बहरुल बिहार के मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र को विवादस्पद अर्बन कोआपरेटिव बैंक घोटाले में क्लीन चिट देकर सुर्ख़ियों में आए थे. जब वो रिटायर हुए तो तुरंत ही राज्यसभा भेज दिए गए. कहा जाता है कि चीफ़ जस्टिस रंगनाथ मिश्र को 1984 के सिख विरोधी दंगों में कांग्रेस नेताओं को क्लीन चिट देने का इनाम राज्यसभा की सदस्यता थी.

इन तमाम सच्चाइयों के बावजूद यह सच अकाट्य है कि गोगोई ने जो क़दम उठाया है वह भारत की न्यायपालिका और एक संस्थान के तौर पर इसकी विश्वसनीयता पर एक स्थायी दाग की तरह रहेगा. किसी भी तरह का किंतु-परंतु इस सच्चाई को खारिज नहीं कर सकता. विशेषकर अयोध्या, राफेल, सीबीआई, सबरीमाला और असम एनआरसी जैसे नितांत संवेदनशील राजनीतिक मुद्दों पर दिए गए फैसले की रोशनी में रिटायरमेंट के महज चार महीने के भीतर राज्यसभा में मनोनीत करने के निहितार्थ निकाले ही जाएंगे. कोई और करे न करे अब तो खुद उनकी जमात के लोग, तमाम सुप्रीम कोर्ट के जजों ने ही उनकी प्रतिष्ठा और निष्ठा पर उंगली उठा दी है.

ये लेख रंजन गोगोई के बहाने इतिहास के पन्ने का पुनर्पाठ करने के लिए लिखा गया है. ये याद दिलाने के लिए लिखा गया है कि आज़ाद भारत में एक दफ़ा ऐसा भी हुआ था जब एक मुख्य न्यायाधीश ने सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा फ़ैसला दिया,और उसी सरकार ने उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया. ऐसा करने की काबिलियत और माद्दा सिर्फ़ जवाहर लाल नेहरु ही में था, और वो जज थे मुंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश मोहम्मद करीम छागला.

वकील मोहम्मद करीम छागला 1941 में बॉम्बे हाईकोर्ट के जज बने और 15 अगस्त, 1947 को पहले भारतीय मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हुए. तब तक सुप्रीम कोर्ट की स्थापना नहीं हुई थी. सुप्रीम कोर्ट संविधान के लागू होने के बाद स्थापित हुआ था. लिहाज़ा, बॉम्बे, मद्रास, और कलकत्ता (कोलकाता) हाई कोर्ट सर्वोच्च स्थान पाते थे और उनसे भी ऊपर लंदन में प्रिवी काउंसिल थी.

कह सकते हैं कि भारतीय न्यायपालिका में छागला एक तरफ़ हैं और बाकी दूसरी तरफ. किसी अन्य न्यायाधीश का भारत के सामाजिक, राजनैतिक और संवैधानिक परिदृश्य में उतना प्रभाव नज़र नहीं आता, जितना उनका. एमसी छागला रिटायरमेंट के बाद अंतराष्ट्रीय अदालत के जज नियुक्त हुए. फिर भारतीय राजदूत और उच्चायुक्त और इसके बाद केंद्रीय मंत्री. आखिर में सब छोड़-छाड़कर जीवन के अंतिम दिनों में वे फिर से वकालत करने लगे.

ये क़िस्सा तब का है जब वो बॉम्बे हाईकोर्ट के चीफ़ जस्टिस थे. साल 1958 में भारतीय जीवन बीमा निगम में देश का पहला वित्तीय घाटा हुआ था. हुआ ये था कि कलकत्ता के एक व्यापारी और सटोरिये हरीदास मूंदड़ा ने सरकारी तंत्र का लाभ उठाकर भारतीय जीवन बीमा निगम को अपनी (मूंदड़ा) कंपनियों के शेयर्स ख़रीदने पर मजबूर किया. वो सारी कंपनियां डूब गईं जिससे एलआईसी को करोड़ों का नुकसान हुआ. तब नेहरु देश के प्रधानमंत्री थे और टीटी कृष्णामचारी वित्त मंत्री थे. संसद में इसका खुलासा उनके दामाद और इंदिरा गांधी के पति फ़िरोज़ गांधी ने किया था.

इस मामले की सुनवाई जस्टिस छागला की सिंगल बेंच में हुई. चूंकि मामला बेहद संवेदनशील था, इसलिए छागला हर प्रकार की पारदर्शिता रखना चाहते थे. उन्होंने पहले खुले में सुनवाई करने का फ़ैसला लिया. जब मुंबई प्रशासन ने असमर्थता ज़ाहिर कि तो उन्होंने कोर्ट रूम के बाहर बड़े-बड़े लाउडस्पीकर लगवा दिए ताकि जो लोग अंदर बैठकर कार्यवाही देख न रहे थे वो कम-से-कम इसे सुन सकते थे. बताते हैं कि बड़ी तादाद में लोग यह सुनवाई देखने और सुनने जुटते थे. जब लाउडस्पीकर स्पीकर में अधिकारियों, मंत्रियों और अन्य लोगों को जज साहब की फ़टकार सुनायी देती तो लोग तालियां पीटते.

जस्टिस छागला ने महज़ 24 दिनों में सुनवाई पूरी कर दी. अपनी रिपोर्ट में उन्होंने हरिदास मूंदड़ा को जालसाज़ी के लिए ज़िम्मेदार माना. उसे दो साल की जेल की सज़ा सुनायी गयी. जस्टिस छागला ने वित्तमंत्री टीटी कृष्णामचारी, वित्त सचिव एचएम पटेल और एलआईसी के कुछ अफ़सरों पर भी मुकदमा चलाने का निर्देश दिया. नेहरू ने तत्काल ही कृष्णामचारी से इस्तीफ़ा मांग लिया. इस घोटाले की वजह से सरकार की बेहद किरकिरी हुई और छागला और कांग्रेसियों का छत्तीस का आंकड़ा हो गया. खैर, वो रिटायर हुए और इंटरनेशनल कोर्ट के जज बने.

छागला की काबिलियत और नेहरु के निष्पक्ष होने का जलवा देखिए कि नेहरु ने उन्हें अमेरिका का राजदूत और फिर इंग्लैंड में भारत का उच्चायुक्त नियुक्त करवाया. 1963 में जब वो इंग्लैंड से वापस आए, तो नेहरु ने उनसे पूछा कि उनका आगे क्या करने का इरादा है. इसके पहले वो कुछ कहते, नेहरु बोले कि क्या वो उनके मंत्रिमंडल में शामिल होना चाहेंगे? छागला अवाक रहे गए! उनके सामने वो प्रधानमंत्री था जिसके वित्त मंत्री को उनकी वजह से इस्तीफ़ा देना पड़ा था.

अपनी जीवनी ‘रोज़ेज़ इन दिसम्बर’ में छागला लिखते हैं कि उन्होंने नेहरु से कहा अगर आप ये सोच रहे हैं कि उन्हें एक क़ाबिल मुसलमान अपने मंत्रिमंडल में चाहिए, तो वो शामिल नहीं होंगे. हां, अगर आपको (नेहरु) को मेरी काबिलयत और बेदाग़ रिकॉर्ड के लिए चुना जाए तो ज़रूर सोचेंगे. बात आई-गई हो गई और छागला भी भूल गए. कुछ दिनों बाद नेहरु ने उन्हें फ़ोन करके मंत्रिमंडल में शामिल करने के फ़ैसले से अवगत कराया.

जैसा ऊपर लिखा गया है कि कांग्रेस छागला से बैर ठान कर बैठी थी. जब नेहरु ने कांग्रेस पार्टी के अधिवेशन में मोहम्मद करीम छागला का नाम प्रस्तावित किया तो नेतागण हत्थे से उखड़ गए. नेहरु ने सबको छागला की काबिलियत का हवाला देते हुए शांत और राज़ी किया और इस तरह छागला शिक्षा मंत्री बनाये गए.

‘रोज़ेज़ इन दिसम्बर’ में छागला लिखते हैं कि एक रोज़ उनके चैम्बर में कांग्रेसी नेता महावीर त्यागी उनसे मिलने आये और कहा कि वो उनके मंत्री बनाये जाने के सख्त ख़िलाफ़ थे पर जब उन्होंने मुझे संसद में बोलते हुए सुना तो महसूस हुआ कि मेरी (महावीर त्यागी) सोच ग़लत थी. त्यागी ने उन्हें बताया कि उन्होंने ख़त लिखकर नेहरु को छागला को न शामिल करने की सलाह दी थी. और नेहरु ने भी जवाबी ख़त में छागला की तमाम ख़ूबियों का ज़िक्र करते हुए कहा- ‘छागला के नाम पर आपत्ति ग़लत है. छागला का देशप्रेम और खुले विचार सर्वविदित हैं. बतौर अमेरिका में भारतीय राजदूत और लंदन में उच्चायुक्त के तौर पर उन्होंने देश का मान बढ़ाया है. वे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें कोई भी काम दिया जाए वे उसमें सफल होंगे.’ नेहरु ने ख़त में आगे लिखा- ‘गांधीजी भी छागला को उच्च विचारों वाला व्यक्ति मानते थे.’

नेहरु ख़त में आगे कहते हैं- ‘मैं अपने जीवन काल में ऐसे कम ही लोगों से मिला हूं जो छागला जैसे धर्म निरपेक्षवादी हैं. जब मैंने (नेहरु) राष्ट्रपति को बताया कि मैं उन्हें (छागला) मंत्रिमंडल में शामिल करना चाहता हूं तो उन्होंने स्वयं उनकी तारीफ़ की.’

न अब छागला जैसे न्यायाधीश हैं और न ही जवाहर लाल जैसे प्रधानमंत्री. दरअसल, इंदिरा गांधी के बाद काफ़ी कुछ बदल गया. आपातकाल के दौरान जब सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ जज हंसराज खन्ना की जगह उनसे कनिष्ठ जज को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया तो हंगामा हो गया. इंदिरा सरकार की पैरवी करते हुए तत्कालीन कांग्रेस नेता मोहन कुमार मंगलम ने बयान दिया कि ऐसे पदों पर जज की काबिलियत और वरिष्ठता के अलावा उनका नज़रिया और विचारधारा भी अहम होता है. हर दौर में ऐसा होता आया है, और आगे भी होगा.आइये, गोगोई साहब के राज्यसभा में नामित होने पर उन्हें बधाई दें और उम्मीद करें कि वो सरकार के कृपापात्र बने रहें क्यूंकि न तो मोदी नेहरु बन पायेंगे और न गोगोई छागला बन सकते हैं.

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