जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या, व्यापक प्रतिरोध की ऐतिहासिक परम्परा और कुछ सबक

अमेरिका के वर्तमान विरोध-प्रदर्शन क़रीब 300 से अधिक शहरों में आयोजित किये गए. ये प्रदर्शन पूरे देश में फैले हैं जो एक प्रकार की अनोखी बात है.

WrittenBy:उमंग कुमार
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अमेरिकी इतिहास में देखें तो उसके दक्षिणी भाग ने अश्वेतों की ग़ुलामी की पीठ पर अपनी कपास-आधारित अर्थव्यवस्था क़रीब डेढ़-सौ साल चलाई. फिर कुछ बदलाव की हवा चली, ग़ुलामी के प्रति उत्तरी अमरीका वालों ने काफ़ी प्रतिरोध जताया. दक्षिण से बड़ी तादाद में काले ग़ुलाम उत्तर की ओर भागने लगे.

उनके निकास व पलायन की जो पूरी व्यवस्था थी, दक्षिण से उत्तर तक, उसे ‘अंडरग्राउंड रेल रोड’ यानी भूमिगत रेलवे का नाम दिया गया. यह कोई रेलवे प्रणाली नहीं थी बल्कि ज़मीनी सतह पर पलायन की व्यवस्था थी, जिसमें सुरक्षित-पड़ाव इत्यादि थे.

इस प्रयास में बहुत सारे गोरे सहयोगकर्ता भी थे, ख़ासकर वे जिन्हें ऐबोलिशनिस्ट (यानी दासता-उन्मूलनवादी) कहा जाता था. उत्तर और दक्षिण में इन मामलों को लेकर बात यहां तक पहुंच गयी कि दोनों भागों में एक गृहयुद्ध (सिविल वार) हो गया जिसमें 1865 में उत्तरी भाग ने विजय पायी.

इसके बावजूद काले अमेरिकियों लोगों को कोई ख़ास सुविधाएं या लाभ नहीं प्राप्त हुआ. उनकी आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था ज्यों की त्यों रही.

बीसवीं सदी के आरम्भ में कई और भेदभाव वाले नियम एवं क़ानूनों का एक आधिकारिक वातावरण खड़ा कर दिया गया. इन क़ानूनों को ‘जिम क्रो’ क़ानून व्यवस्था कहा गया. इससे काले अमरीकियों के प्रति पक्षपात और तीव्र हो गया. इस दौरान लिंचिंग का प्रयोग करके सार्वजनिक रूप से काले लोगों का क़त्ल होने लगा. इस भेदभाव के विरोध में संघर्ष निरंतर चलता रहा. ख़ासकर शिक्षा के मामले में काले विद्यार्थियों के लिए विशिष्ट स्कूल-कॉलेज खुलते रहे. बुकर टी. वॉशिंगटन जैसे महानुभावों का इसमें बड़ा हाथ था.

अमेरिका बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ‘जिम क्रो’ नियमों से बंधित था.अलग अलग बाथरूम, पानी पीने के अलग नलके, होटल और भोजनालयों में अलग दरवाज़े, बसों और रेलगाड़ियों में काले-गोरे लोगों के बैठने के लिए अलग क्षेत्र.

1955 में, दिसम्बर की पहली तारीख़ को, अमेरिका के दक्षिणी राज्य अलाबामा के मॉन्टगोमरी शहर में एक काली महिलाकर्मी, रोज़ा पार्क्स ने वहां की लोकल बस में अपनी सीट से हटने से इंकार कर दिया. उन्हें एक गोरे यात्री ने पीछे बैठने के लिए कहा था, जो क्षेत्र काले वर्ण के लिए चिन्हित था, परंतु मिस पार्क्स ने इंकार कर दिया. उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया लेकिन विरोध में उस शहर में बसों के बहिष्कार (बायकाट) का आह्वान हो गया.

इस बहिष्कार की प्रथम दिन की सफलता को उस शाम मॉन्टगोमरी शहर में एक नौजवान पादरी ने संबोधित किया था- मार्टिन लूथर किंग, जूनियर.

इसके बाद से किंग अमेरिका के सिविल राइट्स मूवमेंट के नायक और मार्गदर्शक बने और उनका एक अहिंसा-प्रधान संघर्ष काले वर्ग को उसके नागरिक अधिकार दिलाने के प्रयास में रहा. 1957 में किंग के नेतृत्व में सदर्न क्रिश्चिन लीडर्शिप कॉन्फ़्रेन्स (एससीएलसी/SCLC) संगठन की स्थापना हुई. इसी के अंतर्गत किंग ने सिविल राइट्स का काम आगे बढ़ाया. एससीएलसी के एक संस्थापक बेयार्ड रस्टिन भी थे जो अहिंसा में विश्वास रखते थे और उन्होंने 1948 में भारत का भी दौरा किया था.

1960 के दौरान अमरीका में किंग के सिविल राइट्स मूवमेंट के साथ साथ ब्लैक पावर– काले शक्ति– की एक धारा भी शुरू हुई जो किंग के अहिंसावादी कार्य से पृथक कुछ रफ़्तार और उग्रता से इंसाफ़ के कार्य को आगे बढ़ाना चाहती थी.

ब्लैक पावर के युग में अमेरिका के एक और प्रभावशाली लीडर, माल्कम एक्स ने संघर्ष के रंगमंच पर अपनी बात रखी जो किंग की अहिंसा प्रधान शैली से भिन्न थी. माल्कम इंसाफ़ के उद्देश्य को किसी भी ज़रिये से प्राप्त करने में विश्वास रखते थे.

1960 के दशक में ब्लैक पावर का एक अद्वितीय नमूना कैलिफोर्निया राज्य में ब्लैक पैन्थर्स संगठन की स्थापना हुई. यह संगठन अपने मोहल्ले में होनेवाले पुलिस के नस्लवादी बर्ताव का सामना करने के लिए गठित हुआ था. ब्लैक पैन्थर्स ने कैलिफोर्निया के एक क़ानून का फ़ायदा उठाया और उन्होंने भी खुले-आम हथियार रखना शुरू कर दिया.

शुरू से ही पुलिस से उनकी मुठभेड़ रही और सरकारों की नज़र उन पर. फिर भी ब्लैक पैन्थर्स ने एक सशक्त संगठन खड़ा किया और एक प्रकार से एक समानांतर सरकार की स्थापना करने का ढांचा बनाया. उन्होंने अपने आज़ादी की रणनीति में काले समाज की रोज़मर्रा की ज़रूरतों को भी शामिल किया. उन्होंने “लिबरेशन स्कूल” [मुक्ति स्कूल] चलाये और मुफ़्त नाश्ते [फ़्री ब्रेकफास्ट] के प्रोग्राम भी चलाये.

ब्लैक पैन्थर्स को सत्ता का पूरा दबाव सहना पड़ा और उनके नेतृत्व का बहुत उत्पीड़न हुआ और उस आंदोलन की रफ़्तार ढीली पड़ गयी. उन्होंने दुनिया में कई आंदोलनों को प्रेरित किया. भारत के संदर्भ में उन्होंने दलित पैन्थर्स को प्रेरित किया.

उस संस्था के एक प्रकार से बिखराव के बाद एक विप्लवी और क्रांतिकारी ताक़त क्षीण हो गई. काले वर्ग के साथ भेद-भाव, पुलिस से टकराव और सामाजिक-आर्थिक रूप से उनका हाशिए का जीवन प्रायः पहले जैसे ही चलता रहा.

2013 में फ़्लोरिडा राज्य में 17 वर्ष के काले नवयुवक ट्रेवो मार्टिन की एक सिक्योरिटी गार्ड ने हत्या कर दी उसे कोई गुनहगार या एक अनाधिकृत व्यक्ति समझ कर. कोर्ट केस के बाद जब उसके हत्यारे को रिहाई मिल गयी तो लोगों में बहुत असंतोष उमड़ा.

उसी नवीन जागरूकता से ब्लैक लाइव्ज़ मैटर्ज़ (बीएलएम) का प्रवाह आरम्भ हुआ.

यह शुरू हुआ एक सोशल मीडिया के हैशटैग के रूप में लेकिन शीघ्र ही कई आंचलिक स्तर के संगठन बनने शुरू हो गये. अनेक शहरों में बीएलएम के “चैप्टर” खुल गए.

यहां एक बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण होगा कि अमेरिका के ज़्यादातर शहरों में, जहां अच्छी खासी काले लोगों की जनसंख्या है, वहां किसी न किसी प्रकार के संगठन हैं जो कि उस समुदाय के लोकल मुद्दों से जूझते हैं. इसमें चर्च से सम्बंध रखने वाले सामाजिक-चेतना के ग्रुप, युवकों के लिए विभिन्न एजुकेशनल प्रोग्राम कराने वाले, इलाक़े में क़ानून व्यवस्था इत्यादि पर ध्यान आकर्षित करने वाले ग्रुप– इस प्रकार की कई संस्थाएं एक सामाजिक संघर्ष के बुनियाद के रूप में मौजूद हैं. फिर भी ये सारी शक्तियां कभी एकजुट नहीं हो पाती थीं.

2014 में दो ऐसे हादसे हुए– पुलिस की ज़्यादती की वजह से– जिनके कारण एक बार फिर अमेरिका में रोष जागा. जुलाई में न्यूयॉर्क में एक नवयुवक एरिक गार्नर को खुली सिगरेट बेचने के जुर्म में खुली सड़क पर पुलिस ने दम-घोटने वाले पेंच में जकड़ दिया जिससे उनके प्राण पखेरू उड़ गये. उसके बाद अगस्त में फ़र्गुसन नामक शहर में एक और नवयुवक माइकल ब्राउन पर एक दुकान से चोरी की आशंका में गोली चलायी गयी जिससे उनकी मौत हो गयी.

इन दो घटनाओं के प्रति भीषण आक्रोश का ज्वालामुखी फ़र्गुसन में फटा जिसमें भारी विरोध हुआ. देश भर में इसका असर हुआ और फ़र्गुसन एक ऐतिहासिक चिह्न बना, पुलिस बर्बरता के विरोध की लड़ाई में.

फ़र्गुसन की घटना के बावजूद मामला फिर ढीला सा पड़ गया. काले जनता अनेक दमन से लगातार पीड़ित रही और ख़ासकर पुलिस का दमन व उसकी बर्बरता जारी रही. साथ ही साथ एक बहुत बड़ी तादाद में काले वर्ग को छोटी-छोटी बातों पर कारागार में भरना चलता रहा जिससे काले नौजवान कारागार और रिहाई के खेल में ही भटकते रहे.

जॉर्ज फ़्लॉयड की हत्या कोविड-19 की जद्दोजेहद के ठीक बीच में हुई. अमेरिका इस चिंता से जूझ रहा था कि काले जनसंख्या भारी संख्या में और विषम रूप से महामारी का शिकार बन रही थी. बहुत से बुद्धिजीवी यह आशा जता रहे थे कि काले वर्ग पर इस असर के बावजूद यह दौर एक नयी दुनिया के बीज बो सकता है. लेकिन, मानो एकाएक, कुछ ऐसी ख़बरें आयीं जिन्होंने इस स्वप्न को भंग कर दिया.

दक्षिणी राज्य जॉर्जिया में एक काले जॉगर की गोरे नागरिकों ने हत्या कर दी यह सोच कर की वो कोई चोर-उचक्का होगा; फिर एक नर्स ब्रियना टेलर की ड्रग्स के संदेह में हत्या कर दी गयी; कुछ ही दिनों बाद ख़बर आयी कि न्यूयॉर्क शहर में एक काले पुरुष से एक पार्क में भयभीत हो एक गोरी महिला ने पुलिस को सहायता के लिए फ़ोन कर दिया. अगर यह सब नस्लवाद की घटनाएं चौंकाने वाली नहीं थीं तो जॉर्ज फ्लॉयड की नृशंस हत्या ने तो हद ही पार कर दी. एक तरह से कोविड-19 से उभरी काले अवस्था का एक कटु सत्य – और फिर एक प्रायः धूमिल सी याद पुलिस बर्बरता और सामाजिक नस्लवाद की– इन सब घटनाओं ने सब्र का बांध तोड़ दिया.

अभी तक यह तो सामने आ रहा है कि जो प्रतिरोध अमेरिका में हो रहे हैं वे व्यापक हैं– छोटे छोटे शहरों में, दूर प्रांतों में और खासकर दक्षिणी और मध्य अमेरिका में भी प्रदर्शन हुए हैं– ना कि केवल न्यूयॉर्क, वाशिंगटन, लॉस एंजिलिस जैसे शहरों में. साथ ही साथ यह भी देखा जा रहा है कि काले प्रदर्शनकारियों के साथ गोरे समर्थक भी भारी संख्या में शामिल हैं.

एक तरह से यह घड़ी, यह अवस्था अद्वितीय है संघर्ष संरचना, गठन और क्रियान्वन की दृष्टि से. एक पुरानी लड़ाई में एक नयी ऊर्जा दिखायी दे रही है. जिसे आततायी वर्ग समझा जाता था वह बड़ी संख्या में शरीक़ हो रहा है इस नये आंदोलन में, लेकिन अभी कुछ भी दृढ़ रूप से कहना मुश्किल है कि भविष्य में यह आंदोलन क्या रूप लेगा. अभी काले एक्टिविस्ट संगठनों में यह आशंका है कि गोरे वर्ग गहराई तक इन मुद्दों को एक बार फिर नहीं समझेगा और प्रदर्शन धीमे होने पर सब वापस चले जाएंगे. या फिर जो नये गोरे लोग काले आंदोलनों में औपचारिक रूप से शामिल होना चाहेंगे, उन्हें किस तरह से आंदोलनों से जोड़ा जाय. “व्हाइट ऐलाई” यानि की गोरे सहयोगी की बहुत चर्चा चल रही है इस वक़्त.

काले वर्ग ने हर बार यही देखा है कि उसका हर आंदोलन कुछ समय बाद विफल साहो जाता है – अक्सर सरकारें फूट डालती हैं या बल-प्रयोग से उन आंदोलनोंको तोड़ देती हैं या फिर एक प्रताड़ित जनता आंदोलन को कायम नहीं रख पातीहै – विश्वास और धैर्य खो बैठती है.

ध्यान देने वाली बात है कि अमरीका ने भारत और अफ्रीका के एंटी-कोलोनियल संघर्ष सहित दुनिया भर से प्रेरणा ली है और ठीक उसी प्रकार से हमारे यहां के विभिन्न संघर्षों ने अमरीकी काले और अन्य अल्पसंख्यकों के आंदोलनों से भी बहुत कुछ सीखा है. कुछ साल पहले अमरीकी आदिवासियों–नेटिव अमेरिकन्स – के एक पाइपलाइन के संघर्ष में भारतीय आदिवासियों ने समर्थन ज़ाहिर किया था. महात्मा फुले और डॉ. आंबेडकर दोनों ने काले आंदोलनों पर खास ध्यान दिया था. अब भी भारत का दलित समाज वहां के काले संघर्ष से बहुत प्रभावित है.

भारतीय लेबर मूवमेंट भी इस बात पर ध्यान रखता है कि किस तरह से एक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में वहां के श्रमिक अपना संघर्ष आगे बढ़ाते हैं. नस्लवाद का संघर्ष पक्षपात, ऊँच-नीच, आर्थिक उत्पीड़न इत्यादि समस्त मुद्दों की लड़ाई है. इसलिए इस बार अमरीका के नस्लवाद विरोधी आंदोलन का रुख और इसकी दिशा दुनिया भर के संघर्षशील वर्गों के लिए बहुत मायने रखती है.

(यह लेख जनपथ डॉट कॉम से साभार है)

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