भारत में मानसिक स्वास्थ्य की भयावह स्थिति

फिल्म स्टार सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद देश में अवसाद और मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति पर बहस शुरू हो गई है.

WrittenBy:स्वर्णा झा
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भारत में मानसिक स्वास्थ्य की क्या स्थिति है उससे बहुतेरे जागरुक लोग अवगत है. लांसेट साइकाइट्री, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर हर वर्ष रिपोर्ट जारी करता है. दिसम्बर 2019 में लांसेट द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में भारत में 1990 से लेकर 2017 तक मानसिक स्वास्थ्य को लेकर क्या स्थिति रही है, उसका विश्लेषण किया गया है.

लांसेट के आंकड़ों के अनुसार 2017 तक भारत में हर 7 में से एक व्यक्ति किसी न किसी तरह के मानसिक रोग से पीड़ित है. भारत में 197.3 मिलियन लोग किसी तरह के मानसिक रोग से पीड़ित है जिसमें 45.7 मिलियन लोग अवसाद और 44.9 मिलियन लोग एंग्जायटी से ग्रसित है.

भारत में मानसिक रोगों में सबसे ज्यादा भागीदारी अवसाद की है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के रिपोर्ट की मानें तो भारत अवसाद के मरीजों के मामले में दुनिया के अग्रणी देशों में है.

2017 तक भारत में मानसिक रोगों में अवसाद की भागीदारी 33.8℅ है, वहीं एंग्जायटी की भागीदारी 19.0% , मनोविदलता (स्किजोफ्रीनिया) की भागीदारी 9.8%, बाइपोलर की 6.9%, ऑस्टिसम डिसऑर्डर की 3.2%, ईटिंग डिसऑर्डर की 2.2%, और अन्य मानसिक रोगों की भागीदारी 8.0% तक रही है.

भारत में मानसिक स्वास्थ्य के आंकड़ों से हम सब परिचित है. ये एक ऐसा विषय है जो जितना जरूरी है उतना ही इसे नज़रअंदाज किया जाता है. सिर्फ समाज ही नहीं बल्कि स्वास्थ्य व्यवस्था भी इसे नज़रअंदाज करती है.

डब्ल्यूएचओ ने मेन्टल हेल्थ को लेकर सर्वे/प्रोग्राम शुरू किया जिसमें दुनिया भर के देश अपने देश के मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित सभी डाटा विश्व स्वास्थ्य संगठन को प्रदान करेंगे. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मेन्टल हेल्थ एटलस 2017 की रिपोर्ट जारी की थी जिसके आंकड़े भारत में मानसिक स्वास्थ्य की क्या स्थिति है, उसे बखूबी बयान करते हैं.

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में मेन्टल हेल्थ प्रोफेशनल्स (सरकारी और गैर-सरकारी) की कुल संख्या 25,312 है. पूरे भारत में बच्चों के कुल 49 मनोचिकित्सक (सरकारी और गैर-सरकारी) उपलब्ध है. प्रति एक लाख रोगियों पर मात्र 0.29 मनोचिकित्सक, 0.8 नर्स, 0.07 मनोवैज्ञानिक, 0.06 सोशल वर्कर्स, 0.03% व्यवासायिक चिकित्सक, 0.17 स्पीच थेरेपिस्ट उपलब्ध हैं. कुल मेन्टल हॉस्पिटल की बात की जाए, तो भारत में केवल 136 मेन्टल हॉस्पिटल हैं.389 आम हस्पतालों में मनोचिकित्सक विभाग हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तो ये भी कह दिया कि अगर मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया गया तो 2030 तक मानसिक स्वास्थ्य एपिडेमिक बन जाएगा. जो सभी देश और देशवासियों के लिए घातक होगा. ऐसे में भारत के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आये ऐसे आंकड़े और चिंताजनक हैं.

सरकारी दावों की असली हकीकत

सरकार द्वारा मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कई कदम उठाए गए.1982 में लाया गया मेन्टल हेल्थ प्रोग्राम हो जिसमे 1996 में सुधार लाते हुए जिला मेन्टल हेल्थ प्रोग्राम को जोड़ा गया. केंद्र सरकार द्वारा 2014 में मेन्टल हेल्थ पॉलिसी लाई गई. अप्रैल 2017 में मेन्टल हेल्थ एक्ट को लाया गया.

आयुष्मान भारत को 2018 में आरंभ किया गया जिसका उद्देश्य था कि हर किसी को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं प्राप्त हो जिसके लिए गरीब परिवारों को इस योजना के तहत बीमा राशि प्रदान की जाती है. इस योजना में मानसिक रोग भी शामिल है अगर कोई गरीब जो मानसिक रोग से पीड़ित है और उसके पास इलाज के लिए पैसे नहीं है तो वो इस योजना के तहत अपना इलाज करवा सकता है.

ये वो योजनाएं हैं जो पन्नों पर लिखित रूप से मौजूद हैं. ज़मीनी हकीकत तो कुछ और बयान करती है. सरकार द्वारा लाई गई योजना केवल पन्नों पर दिखाने मात्र के लिए हैं. अभी भी समाज के साथ-साथ सरकार मानसिक रोग को गंभीरता से नहीं ले रही है.बीते वर्षो के केंद्रीय स्वास्थ्य बजट इस बात को साबित करते है. इस वर्ष फरवरी के महीने में केंद्र सरकार ने जो बजट (वित्त वर्ष 2020-21) पेश किया, उसमें स्वास्थ्य बजट में 7% की वृद्धि तो हुई है पर मानसिक स्वास्थ्य पर 0.05% ही खर्च किया जाएगा.

वित्तिय वर्ष 2018 में स्वास्थ्य बजट से मानसिक स्वास्थ्य बजट को 50 करोड़ से घटाकर 40 करोड़ कर दिया गया (द हिन्दू).2017 में आए मेन्टल हेल्थ एक्ट के अनुसार प्रति वर्ष मानसिक स्वास्थ्य पर 94,073 करोड़ खर्च किया जाना था (इंडियन जर्नल ऑफ साइकाइट्री). जिसका एक चौथाई भाग भी मानसिक स्वास्थ्य पर खर्च नहीं किया जा रहा है.

ये आंकड़े बहुत से सवालों को जन्म देते हैं. क्या सरकार मानसिक स्वास्थ्य को लेकर केवल योजनाएं ही बना रही है? क्योंकि ज़मीनी स्तर पर निधिकरण की वजह से योजनाएं पूर्णरूप से लागू ही नहीं हो पा रही हैं.

दूसरे देशों के मुकाबले भारत की स्थिति बेहद खराब

दुनिया के बाकी देशों से तुलना की जाए तो भारत मानसिक स्वास्थ्य की गंभीरता को समझने में आज भी बहुत पीछे है. बड़े-बड़े विकसित और विकासशील देश मानसिक स्वास्थ्य की गंभीरता को समझ चुके है इसलिए वो उस पर विशेष रूप से ध्यान दे रहे हैं.

वित्तिय सत्र 2019-20 में ऑस्ट्रेलिया ने अपने हेल्थ बजट (104 बिलियन) में से $736.6 मिलियन मेन्टल हेल्थ को दिया (ऑस्ट्रेलियन गवर्मेंट डेवलोपमेन्ट ऑफ हेल्थ). अमेरिका ने भी 2019-20 में मेन्टल हेल्थ पर विशेष ध्यान रखते हुए योजनाओं के साथ मेन्टल हेल्थ बजट को बढ़ाया. इग्लैंड ने 2019-20 के सत्र में मानसिक स्वास्थ्य के बजट को बढ़ाकर £12-13 बिलियन कर दिया (मेन्टल हेल्थ डैशबोर्ड इंग्लैंड).

वहीं इटली, जर्मनी, हंगरी, न्यूजीलैंड, नीदरलैंड ,जापान जैसे देश स्वास्थ्य बजट में मेन्टल हेल्थ पर विशेष रूप से ध्यान देने लगे हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार टर्की और बेल्जियम में मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के हालात सबसे अच्छे हैं. इन आंकड़ों से ये बात तो साफ है कि विश्व के बहुत से देश मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से ले रहे हैं और उस पर काम कर रहे हैं जिसमें भारत अभी बहुत पीछे है.

2018 में आई लांसेट कमीशन मेन्टल हेल्थ रिपोर्ट ये बताता है कि भारत में 80% मानसिक रोगियों को उपचार ही नहीं मिलता है जो बहुत आम है क्योंकि जब सुविधाएं ही नहीं होगी तो उपचार कैसे होगा?

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि अगर हालात ऐसे ही रहे तो वर्ष 2012 से लेकर 2030 तक भारत को मानसिक स्वास्थ्य के कारण 1.03 ट्रिलियन का नुकसान हो सकता है. मानसिक स्वास्थ्य का विषय केवल रोग मात्र का नहीं है अगर इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो इससे अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुंच सकता है.

आज के समय में समाज और हमारे आस पास के लोगों को ये बात समझना बहुत आवश्यक है कि मानसिक स्वास्थ्य कितना महत्वपूर्ण विषय है और उस पर ध्यान देना उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है. लोगो को ऐसा लगता है कि उन्होंने ऐसा कुछ महसूस नहीं किया तो ऐसा कोई रोग का कोई अस्तित्व ही नहीं है. इस सोच से बाहर आना बहुत आवश्यक है क्योंकि अगर इससे बाहर नहीं आएंगे तो मानसिक रोग से पीड़ित लोगों की सहायता कैसे की जाएगी.

मानसिक रोग से पीड़ित लोग इसलिए अपने विकार के साथ सामने नहीं आते है क्योंकि उनके मन में ये डर रहता है कि ये समाज उन्हें इस हालत में स्वीकार नहीं करेगा. ये विचार पीड़ितों के मन में इसलिए होता है क्योंकि ये समाज उन्हें इसी ढंग से उनके साथ पेश आता है. तो उनका ऐसा सोचना स्वाभाविक है.

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में जो नज़रअन्दाज़गी है वो बहुत बड़ा कारण है जिसकी वजह से ये रोग ठीक नहीं हो पाता. पहले तो पीड़ित लोग डर से ये बात अपने परिजनों और समाज से छुपाते है क्योंकि वे जानते है ज्यादातर लोग उनको या तो पागल घोषित कर देंगे या उनकी परीस्थिति का मज़ाक बनाया जाएगा. कुछ लोग हिम्मत करके बताते भी है और खुल कर सामने भी आते है जिनके परिजन उनका सहयोग करते है उनको संसाधनों के अभाव के कारण उचित उपचार नहीं मिल पाता.

तो हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जो व्यवहार किया जाता है चाहे वो समाज के द्वारा हो या सरकार के द्वारा हो वो उचित नहीं है क्योंकि ये इतनी बड़ी समस्या है अगर इसका सही ढंग से हल नहीं निकाला गया तो भविष्य में जाकर ये भयावह रूप ले लेगा. और हम न जाने कितने अपनो को खो देंगे.

ये सभी आंकड़े बस इसलिए दिखाए गए जिससे लोग समझे ये समस्या गंभीर है. आज जैसे घटना भविष्य में भी होगी हम 2-3 दिन शोक मनाकर भूल जाते है, पर ये भूलने वाला विषय नहीं है. और अब समय आ गया है कि इस समस्या का रूट कॉज निकालकर इसका समाधान निकाला जाए.

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