किसान और सबसे लायक बेटे के कारनामें

किसानों से धर्मनिरपेक्ष आचरण की उम्मीद करना और सरकार के हर कदम में धार्मिक प्रतीकों की राजनीति का गुणगान करना गोदी मीडिया की षडयंत्रकारी चाल है.

WrittenBy:अनिल यादव
Date:
Article image
  • Share this article on whatsapp

भाजपा के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है और आरएसएस ने आजादी के 55 साल बाद तक अपने नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया क्योंकि उनके पूज्य गोलवरकर-सावरकर जैसे नेताओं का मानना था कि किसी झंडे में तीन रंगो का होना अशुभ है और हिंदुस्थान (हिंदुस्तान नहीं) का झंडा हिंदुओं का भगवा ही हो सकता है. इस सदी के पहले साल में तीन युवकों ने आरएसएस के रेशमी बाग (नागपुर) मुख्यालय में 26 जनवरी को घुसकर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रयास किया था. उसके अगले साल से तिरंगा फहराने के लिए आरएसएस को बाध्य होना पड़ा. इन तीन युवकों बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी पर बारह साल मुकदमा चला जिसमें वे बाइज्जत बरी हुए थे. इसे आरएसएस के दायरे में केस नंबर-176 के नाम से जाना जाता है. बहरहाल लालकिले पर राष्ट्रध्वज का अपमान हुआ ही नहीं था.

दो महीने से ठंड में सरकार की उपेक्षा से मर रहे किसान आंदोलनकारियों से धर्मनिरपेक्ष आचरण की उम्मीद करना और सरकार द्वारा हर चीज में धार्मिक प्रतीकों को लाकर भावनात्मक राजनीति (अगर राममंदिर के लिए प्रधानमंत्री के भूमिपूजन को भूल जाएं तो भी इस साल की गणतंत्र दिवस परेड में ही कई धार्मिक रंगत वाली झांकियां शामिल थीं) करने का गुणगान करना गोदी मीडिया की षड्यंत्रकारी चाल है जिसे समझने की जरूरत है. किसान हर फसल के दाने बोने से पहले और काटने के बाद किसी न किसी लोकदेवता की पूजा करता ही है. इस आंदोलन में स्वाभाविक तौर पर 'जो बोले सो निहाल' समेत अनेक धार्मिक नारे प्रमुख हैं. इसे संदर्भों से काटकर किसानों को खालिस्तानी और गणतंत्र दिवस परेड की धार्मिक झांकियों को सरकार की उपलब्धि नहीं बताया जा सकता.

यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राजकाज में धर्म का दखल न होने दे लेकिन जिन लोगों की आंखों में अन्य धर्मों को खदेड़ कर सिर्फ अपने धर्म का राष्ट्र बनाने का सपना बसाया गया है, उन्हें किसान चेतना और सरकारी तंत्र का दुरूपयोग कर की जा रही धर्म की सस्ती राजनीति का अंतर समझा पाना मुश्किल है. उनके लिए झंडे के भाव से अधिक उसकी लंबाई, चौड़ाई और उसका लोगों पर पड़ने वाला बाध्यकारी प्रभाव (जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते हुए बना था) ही प्रमुख है.

जो किसानों को हिंसक और अराजक दिखाने में लगे हैं उन्हें 2016 की फरवरी में हरियाणा के जाटों के आरक्षण आंदोलन को याद करना चाहिए. उसमें 30 लोग मारे गए थे, 350 से अधिक घायल हुए थे, और अरबों की संपत्ति का नुकसान हुआ था. 26 जनवरी के दिन दिल्ली में बैठे किसानों की जो तादाद थी, (अपुष्ट आंकड़े लाखों में हैं) अगर वह बड़े पैमाने पर संयमी और आत्मनियंत्रित न होता तो जो भयानक नतीजे हो सकते थे उसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. पिछले दो महीने में सरकार के अहंकार और जनता के बजाय कॉरपोरेट घरानों के प्रति पक्षधरता के कारण सौ अधिक किसान मरे हैं, क्या यह बिना हथियार उठाए जान लेने वाली कुटिल हिंसा नहीं है. इससे उपजे गुस्से को जाहिर करने के बजाय अब तक किसानों ने जिस संयम का परिचय दिया है क्या वह राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की मिसाल नहीं है. क्या इस संघर्ष में नए बनते देश को दिखाना मीडिया का काम नहीं होना चाहिए.

बहरहाल गोदी मीडिया सभी छोटे बड़े आंदोलनों को देशद्रोही बनाने की कल्पनाओं को वीडियो में रुपांतरित कर सरकार की सेवा में लगा हुआ है, देखना है कि किसान कैसे इसका सामना करते हैं क्योंकि सबसे अधिक खतरे में वही हैं. जो इस प्रचार में बहकर उनकी लानत मलानत कर रहे हैं उनका नंबर फिर कभी आएगा. शुभ यह है कि जो आंदोलनकारी कभी मीडियाकर्मियों की इज्जत करते थे, अपनी प्रेसविज्ञप्तियां छपवाने के लिए चक्कर लगाते थे अब इस नए गोदी मीडिया की राजनीति में केंद्रीय विध्वंसक भूमिका को पहचानने लगे हैं. कल कोई रास्ता भी निकलेगा.

भाजपा के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब अल्पसंख्यक तुष्टिकरण है और आरएसएस ने आजादी के 55 साल बाद तक अपने नागपुर मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया क्योंकि उनके पूज्य गोलवरकर-सावरकर जैसे नेताओं का मानना था कि किसी झंडे में तीन रंगो का होना अशुभ है और हिंदुस्थान (हिंदुस्तान नहीं) का झंडा हिंदुओं का भगवा ही हो सकता है. इस सदी के पहले साल में तीन युवकों ने आरएसएस के रेशमी बाग (नागपुर) मुख्यालय में 26 जनवरी को घुसकर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रयास किया था. उसके अगले साल से तिरंगा फहराने के लिए आरएसएस को बाध्य होना पड़ा. इन तीन युवकों बाबा मेंढे, रमेश कलम्बे और दिलीप चटवानी पर बारह साल मुकदमा चला जिसमें वे बाइज्जत बरी हुए थे. इसे आरएसएस के दायरे में केस नंबर-176 के नाम से जाना जाता है. बहरहाल लालकिले पर राष्ट्रध्वज का अपमान हुआ ही नहीं था.

दो महीने से ठंड में सरकार की उपेक्षा से मर रहे किसान आंदोलनकारियों से धर्मनिरपेक्ष आचरण की उम्मीद करना और सरकार द्वारा हर चीज में धार्मिक प्रतीकों को लाकर भावनात्मक राजनीति (अगर राममंदिर के लिए प्रधानमंत्री के भूमिपूजन को भूल जाएं तो भी इस साल की गणतंत्र दिवस परेड में ही कई धार्मिक रंगत वाली झांकियां शामिल थीं) करने का गुणगान करना गोदी मीडिया की षड्यंत्रकारी चाल है जिसे समझने की जरूरत है. किसान हर फसल के दाने बोने से पहले और काटने के बाद किसी न किसी लोकदेवता की पूजा करता ही है. इस आंदोलन में स्वाभाविक तौर पर 'जो बोले सो निहाल' समेत अनेक धार्मिक नारे प्रमुख हैं. इसे संदर्भों से काटकर किसानों को खालिस्तानी और गणतंत्र दिवस परेड की धार्मिक झांकियों को सरकार की उपलब्धि नहीं बताया जा सकता.

यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राजकाज में धर्म का दखल न होने दे लेकिन जिन लोगों की आंखों में अन्य धर्मों को खदेड़ कर सिर्फ अपने धर्म का राष्ट्र बनाने का सपना बसाया गया है, उन्हें किसान चेतना और सरकारी तंत्र का दुरूपयोग कर की जा रही धर्म की सस्ती राजनीति का अंतर समझा पाना मुश्किल है. उनके लिए झंडे के भाव से अधिक उसकी लंबाई, चौड़ाई और उसका लोगों पर पड़ने वाला बाध्यकारी प्रभाव (जो अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ते हुए बना था) ही प्रमुख है.

जो किसानों को हिंसक और अराजक दिखाने में लगे हैं उन्हें 2016 की फरवरी में हरियाणा के जाटों के आरक्षण आंदोलन को याद करना चाहिए. उसमें 30 लोग मारे गए थे, 350 से अधिक घायल हुए थे, और अरबों की संपत्ति का नुकसान हुआ था. 26 जनवरी के दिन दिल्ली में बैठे किसानों की जो तादाद थी, (अपुष्ट आंकड़े लाखों में हैं) अगर वह बड़े पैमाने पर संयमी और आत्मनियंत्रित न होता तो जो भयानक नतीजे हो सकते थे उसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है. पिछले दो महीने में सरकार के अहंकार और जनता के बजाय कॉरपोरेट घरानों के प्रति पक्षधरता के कारण सौ अधिक किसान मरे हैं, क्या यह बिना हथियार उठाए जान लेने वाली कुटिल हिंसा नहीं है. इससे उपजे गुस्से को जाहिर करने के बजाय अब तक किसानों ने जिस संयम का परिचय दिया है क्या वह राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने की मिसाल नहीं है. क्या इस संघर्ष में नए बनते देश को दिखाना मीडिया का काम नहीं होना चाहिए.

बहरहाल गोदी मीडिया सभी छोटे बड़े आंदोलनों को देशद्रोही बनाने की कल्पनाओं को वीडियो में रुपांतरित कर सरकार की सेवा में लगा हुआ है, देखना है कि किसान कैसे इसका सामना करते हैं क्योंकि सबसे अधिक खतरे में वही हैं. जो इस प्रचार में बहकर उनकी लानत मलानत कर रहे हैं उनका नंबर फिर कभी आएगा. शुभ यह है कि जो आंदोलनकारी कभी मीडियाकर्मियों की इज्जत करते थे, अपनी प्रेसविज्ञप्तियां छपवाने के लिए चक्कर लगाते थे अब इस नए गोदी मीडिया की राजनीति में केंद्रीय विध्वंसक भूमिका को पहचानने लगे हैं. कल कोई रास्ता भी निकलेगा.

subscription-appeal-image

Power NL-TNM Election Fund

General elections are around the corner, and Newslaundry and The News Minute have ambitious plans together to focus on the issues that really matter to the voter. From political funding to battleground states, media coverage to 10 years of Modi, choose a project you would like to support and power our journalism.

Ground reportage is central to public interest journalism. Only readers like you can make it possible. Will you?

Support now

You may also like