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बाबुओं की भरमार लेकिन विशेषज्ञ एक नहीं

डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) ने विभिन्न विभागों में दस वरिष्ठ पदों के लिए रविवार को एक विज्ञापन निकाला. प्रतिभाशाली व्यक्तियों को संयुक्त सचिव के पद पर नियुक्त किये जाने की योजना है. इन बहालियों का आधार प्रतिभागियों की विशिष्ट क्षेत्रों में योग्यता होगी. विज्ञापन के मुताबिक, प्रतिभागियों के पास किसी भी सामांतर स्तर की निजी कंपनी, कंसल्टेंसी, राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय संस्थान के साथ पंद्रह साल का अनुभव होना चाहिए. मुख्य तौर पर यह एक निमंत्रण है जिसके जरिए निजी क्षेत्र में कार्यरत लोगों को सराकारी नौकरी मिल सकेगी, वह भी बिना यूपीएससी की परीक्षा पास किए.

प्रथमदृष्टया, यह एक शानदार कदम दिखाई पड़ता है. आखिरकार हम लोग सुस्त सरकारी तंत्र में कुछ सुधार देख सकेंगे. जिस तरह से सरकारी नीतियों पर काम होता है, उस लिहाज से यह शानदार आइडिया लगता है. लेकिन अगर इसे सही से लागू नहीं किया जा सका तो इसके दूरगामी नुकसान होने की संभावना भी है.

नौकरशाह ही सरकारों को चलाते हैं जबकि नेताओं का कार्यकाल बदलता रहता है. दरअसल, एक तरीके से नौकरशाह ही सरकार हैं. लेकिन यह सर्वविदित है कि नौकरशाही अपने भीतर कोई भी बदलाव आसानी से स्वीकार करने को तैयार नहीं है. वे इस सुधार से प्रसन्न होंगे, इसके आसार नहीं हैं.

यह पहली बार नहीं है कि इस तरह की लैटरल इंट्री की जा रही है. यूपीए सरकार ने इसी तरह नंनद निलेकणी को यूआईडीएआई का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था. मोदी सरकार ने भी आयुर्वेदिक डॉक्टर और गुजरात आयुर्वेद यूनिवर्सिटी के कुलपति वैद्य राजेश कोटेचा को आयुष मंत्रालय में विशेष सचिव नियुक्त किया था.

निलेकणी को नियुक्त ही इसीलिए किया गया था क्योंकि आधार उनके दिमाग की उपज थी और इसमें उनकी विशेषज्ञता थी. यूपीए सरकार ने बिना किसी वैधानिक सहायता के आधार प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाया था. उसके अध्यक्ष निलेकणी थे और उन्होंने विपक्ष के विरोध के बावजूद अपना काम जारी रखा. भाजपा के सत्ता में आने के बाद, उनके सारे विरोध हवा हो गए. आधार बिल को मनी बिल बनाकर पास कर दिया गया और इसे बहुत ही आक्रामक तरीके से हर क्षेत्र में लागू किया जाने लगा.

अब दिक्कत सबसे बड़ी यह है कि यहां डाटा लीक और डाटाबेस अवैध रूप से बेचे जा रहे हैं. इसके साथ ही, आधार के शिल्पकार, जो पहले यूआईडीएआई के समर्थक थे अब गायब हो गए हैं और उन्होंने अपना धंधा शुरू कर लिया है. इस नए धंधे में वे आधार के तत्वों का इस्तेमाल कर रहे हैं. दरअसल, डोमेन की विशेषज्ञता का इस्तेमाल एक छोटी सी त्रुटिपूर्ण सरकारी नीति थी. हालांकि यह नीति अब दुधारू गाय में तब्दील हो चुकी है.

दूसरी तरफ, वैद्य राजेश कोटेचा संघ से संबंधित हैं. मोदी से उनकी पहली मुलाकात 1988 में हुई थी. तब कोटेचा भाजपा के जनरल सेक्रेटरी थे. मोदी उनके क्लिनिक का उद्घाटन करने आए थे. कोटेचा संघ विचारक नानाजी देशमुख को अपना गुरू मानते हैं और वह संघ से संबंधित संगठन विजनाना भारती के ट्रस्टी भी हैं. उनकी पृष्ठभूमि और वर्तमान प्रधानमंत्री से उनके मधुर रिश्तों के मद्देनज़र, उन्हें मंत्रालय में सचिव पद पर नियुक्त करना विवादास्पद रहा.

आप यह कह सकते हैं कि जिन विशेषज्ञों को बहाल किया जा रहा है, वे किसी एक खास विषय के धुरंधर होंगे. वह एक विशिष्ट पद के लिए योग्य होंगे. बिल्कुल ऐसा हो सकता है लेकिन यहां प्रश्न है ‘अवसरों की समानता’ का जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता.

भारत के संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुसार:

जब एक व्यक्ति, खासकर जान-पहचान वाला व्यक्ति जब किसी सरकारी काम के लिए चुना जाता है, वहां ‘अवसरों की समानता’ का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता है.

इसलिए लैटरल एंट्री के संबंध में एक वैध और बड़ा कारण यही है कि सरकार अपनी विचारधारा के लोगों को इन पदों पर नियुक्त कर देगी. यह भी डर है कि कॉरपोरेट सरकार पर अपने लोगों को इन पदों पर नियुक्त करने के लिए दबाव बनाएगा. इनके जरिए कॉरपोरेट अपने व्यापारिक हितों को साधने का काम करेगा.

अब इसे डोमेन विशेषज्ञ के नजरिए से समझने का प्रयास कीजिए.

वर्षों से नौकरशाहों को किसी एक खास क्षेत्र की विशेषज्ञता हासिल करने नहीं दी गई है. एक बार उन्होंने यूपीएससी पास कर ली फिर वे मंत्रियों के आदेशानुसार एक विभाग से दूसरे विभाग में ट्रांसफर होते रहते हैं. स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालय बनवाने की जिम्मेदारी लेना वाला अधिकारी हो सकता है छह महीने बाद हाउसिंग फ्लैट बनवाने के काम में लगा होगा. नौकरशाहों को किस काम पर लगाया जाएगा, इस निर्णय का कोई आधार नहीं होता. और हां इससे रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ता कि शैक्षिक योग्यता क्या है और वे यूपीएससी की परीक्षा पास कर आए हैं.

ऐसी स्थिति में सिर्फ उनकी वरिष्ठता और किसी खास नेता से उनकी घनिष्ठता ही उनके एक विभाग से दूसरे विभाग में ट्रांसफर किए जाने का आधार बनता है. नौकरशाह चाहकर भी विशेषज्ञता हासिल नहीं कर सकते. दरअसल लैटरल एंट्री व्यवस्था इसी परेशानी से पार पाने के लिए लाई गई है.

इसका तर्क यही है कि हमारी नौकरशाही व्यवस्था खामी भरी और अप्रभावी है, इसलिए हमें विशेषज्ञों की आवश्यकता है. डीओपीटी का विज्ञापन कम से कम 15 वर्षों के अनुभव और 40 अधिकतम उम्र की मांग करता है. एक कोशिश यह भी होगी कि लैटरल एंट्री के जरिए विशेषज्ञों को बहाल करने से मंत्रालयों के बीच प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी. नतीजतन वर्तमान नौकरशाह अपनी उपयोगिता साबित करने को बाध्य होंगे.

खराब काम करने के बावजूद नौकरशाहों को बाहर नहीं निकाला जा सकता. संविधान का अनुच्छेद 311 उनकी सुरक्षा करता है. इसके अंतर्गत कोई भी नेता उन्हें नौकरी से निकालने का दबाव नहीं बना सकता. लेकिन इसका यह भी मतलब है कि नौकरशाहों को खराब काम करने के बाद सजा नहीं मिलती. सिर्फ उनका ट्रांसफर किया जा सकता है. उन्हें शंट करने के उद्देश्य से दुर्गम जगहों पर ट्रांसफर कर दिया जाता है. यह लैटरल इंट्री की बहालियों में नहीं हो सकेगा.

इन 10 उम्मीदवारों का अनुबंध 3 वर्षों का है. उनके काम के आधार पर उनका कार्यकाल 5 वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है. अनुबंध खत्म करने का अधिकार दोनों ही पक्षों के पास होगा. उन्हें तीन महीने पूर्व सूचना देनी होगी. मैं कहता हूं यह दोनों पक्षों के लिए अच्छा है. अगर ये उम्मीदवार एक खास विचारधारा से भी ताल्लुक रखते होंगे, अच्छा काम करने की भी अपने नतीजे हो सकते हैं.

जहां तक नौकरशाही में सुधार का प्रश्न है, यह कठिन काम है. हमलोग आज भी अंग्रेजों द्वारा बनाई गई व्यवस्था के अनुरूप रहने को अभिशप्त हैं. अंग्रेज चले जरूर गए, वे हमें प्रशासनिक व्यवस्था दे गए जिसे लगभग न के बराबर बदलावों के साथ हम आज भी ढो रहे हैं. शायद अब बदलाव का वक्त आ गया है.

सरकार के निर्णय संबंधी मसलों पर निजी क्षेत्र से जुड़े लोगों की बहाली का विरोध होगा लेकिन जब योग्य लोगों की कमी होगी और जब नीतियों को लागू करने में विशेषज्ञों की कमी महसूस की जाएगी- ऐसी स्थिति में सरकार के पास निजी क्षेत्र के लोगों के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है.

यह कितना प्रभावी होगा, यह समय ही बताएगा. हम सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं कि ये दस बहालियां भी आधार की तरह न हो जाएं, “अच्छी नीयत, खराब क्रियान्वयन.