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महात्मा गांधी: एक प्रिंटर और प्रकाशक

गांधीजी ने इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, नवजीवन और हरिजन का संपादन किया. वे इन प्रकाशनों को अपने खुद के प्रिंटिग प्रेस में छापते थे. उन्हें इस बात का आभास था कि यदि वे अपने प्रकाशनों को किसी दूसरे के प्रेस में छापेंगे तो वे अपने विचारों को स्वतंत्रतापूर्वक अभिव्यक्त नहीं कर पाएंगे. जिस समय उन्होंने इंडियन ओपिनियन की कमान अपने हाथ में ली, उसकी स्थिति खराब थी. गांधी अपना प्रिंटिंग प्रेस शहर से हटाकर फिनिक्स स्थित बस्ती में स्थापित करना चाहते थे. उनके दोस्तों की राय थी कि यह गलत कदम है. गांधी ने अपना प्रिंटिंग मशीन और दूसरे उपकरण एक साफ-सुथरे शेड में स्थापित किया. एक पुराना इंजन इसे चलाने के लिए इस्तेमाल होता था. उनका दफ्तर एक अलग कमरे में था. वहां कोई भी वेतनभोगी कर्मचारी या चपरासी नहीं था. इंडियन ओपिनियन शनिवार को बाजार में जाता था. शुक्रवार की दोपहर तक सभी लेख कंपोज़ हो जाते थे. बस्ती में रहने वाले बच्चे और युवा कंपोज़िंग, प्रिंटिंग, कटाई, पेपर फोल्डिंग, बंडल बनाने, पता लिखने में गांधीजी की मदद करते थे. इन्हें समय से रेलवे स्टेशन पर पहुंचना होता था. वे आमतौर पर आधी रात तक काम करते थे. जब कभी काम का बोझ ज्यादा होता था तब गांधीजी अपने सहयोगियों के साथ पूरी रात जगते रहते थे. कभी-कभी बस्ती की महिलाएं और कस्तूरबा गांधी भी उनकी मदद करती थी.

फिनिक्स बस्ती में इंडियन ओपिनियन की छपाई के पहले ही दिन तेल से चलने वाला इंजन बिगड़ गया. तब हाथ से चलने वाली मशीन को गांधी समेत तमाम लोगों ने चलाकर समय रहते सभी प्रिंट निकाले और समय से उन्हें भेज दिया. इस व्यवस्था ने गांधी को प्रिंटिंग व्यवसाय को समझने में काफी मदद की. वो लेख लिखते थे, टाइपिंग करते थे और प्रूफ चेक करते थे. कई युवा उनके यहां प्रशिक्षु के रूप में काम करने लगे. एक बार प्रिंटिंग से लेकर प्रकाशन तक सारा काम युवा प्रशिक्षुओं ने किया. शुरुआत में इंडियन ओपिनियन चार भाषाओं में छपता था, अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल. संपादकों और कंपोजरों की कमी के चलते बाद में इसे दो भाषाओं, अंग्रेजी और गुजराती में सीमित कर दिया गया. गांधीजी भारत आने के बाद एक बार अड्यार गए. यहां एनी बेसेंट ने नोटिस किया कि गांधी के पास प्रिंटिंग और प्रकाशन से जुड़ी बारीक जानकारियां हैं.

साप्ताहिकों के प्रकाशन के अलावा गांधीजी ने फिनिक्स और नवजीवन प्रेस में अंग्रेजी और हिंदी समेत कई भाषाओं की पुस्तकें भी प्रकाशित की. गांधीजी ने कभी सरकार के पास कोई मुचलके की रकम नहीं रखी. उनके अपने लिखे से जो भी आमदनी होती थी वह खादी पर खर्च कर देते थे. उन्होंने नवजीवन प्रेस के लिए एक लाख रुपए की ट्रस्ट डीड बनाई थी.

खराब प्रिंटिंग को वे एक तरह की हिंसा मानते थे. उनका ज़ोर साफ-सुथरी टाइपिंग, अच्छे कागज, और सरल मुखपृष्ठ पर रहता था. उन्हें पता था कि आकर्षक मुखपृष्ठ वाली महंगी किताबें भारत जैसे गरीब देश की आम जनता की पहुंच से दूर रहती हैं. उनके पूरे जीवनकाल में नवजीवन प्रेस ने सस्ती दर पर अनगिनत किताबें प्रकाशित कीं. उनकी आत्मकथा गुजराती में 12 आने में आती थी. इसी तरह किताब का हिंदी संस्करण भी बहुत कम कीमत पर उपलब्ध था. गांधीजी पूरे देश में एक भाषा में कामकाज की जरूरत पर जोर देते थे क्योंकि इससे बहुत सारा समय और संसाधनों की बचत हो सकती थी. वे देवनागरी (हिंदुस्तानी) पर ज़ोर देते थे क्योंकि लगभग सभी भारतीय भाषाएं संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं. इंडियन ओपिनियन के गुजराती संस्करण में उन्होंने पूरे पेज का तुलसीदास रचित रामचरित मानस हिंदी भाषा में प्रकाशित किया था. गंधी खुद हरिजन के लिए टाइप करते थे.

वे अपने प्रकाशनों में प्रकाशित सामग्री पर किसी भी तरह की कॉपीराइट के पक्षधर नहीं थे. उनके द्वारा संपादित जर्नल आम लोगों की संपत्ति थे. बाद में जब इस तरह की संभावनाएं पैदा हुई कि उनके लिखे को लोग तोड़मरोड़ कर पेश करने लगे तब उन्होंने कॉपीराइट के लिए हामी भरी.

उनका विचार था कि बच्चों की किताबें बड़े फॉन्ट में, अच्छी गुणवत्ता वाले कागज पर और कुछ अच्छे स्केच के साथ प्रकाशित होना चाहिए. वे पतली पुस्तिका के रूप में हो. वे बच्चों को थकाएं भी ना और आसानी से इस्तेमाल हो सकें. एक बार आश्रम के एक रहवासी जो राष्ट्रीय शिक्षा के प्रमुख थे, ने एक पुस्तिका निकाली. इसके हर पन्ने पर चित्र थे और यह रंगीन कागज पर छपा था. उन्होंने बड़े गर्व से बापू से कहा, ‘बापू, आपने पुस्तिका देखी. इसका पूरा विचार मेरा है.’ गांधीजी ने कहा, ‘हां, देखा. यह सुंदर है. पर यह किसके लिए आपने छापा है?’ कितने पाठक पांच आना की किताब खरीद सकते हैं? आप इस देश के लाखों भूख से बिलबिलाते बच्चों की शिक्षा के इंचार्ज हैं. अगर बाकी किताबें एक आना में बिकती हैं तो आपकी दो पैसे में होनी चाहिए.’ गांधीजी ने साप्ताहिक का कामकाज संभाला था तब इसकी कीमत दो आना थी जिसे उन्होंने एक आना प्रति कॉपी कर दिया.

प्रिंटिंग के मामले में पैसे की बचत गांधीजी के लिए खास मायने नहीं रखते थे. नवजीवन प्रेस ने गोखले के लेखों और भाषणों का गुजराती संस्करण प्रकाशित करने का फैसला किया. एक शिक्षक ने इसका अनुवाद किया था. इस पर गांधीजी से अग्रलेख लिखने को कहा गया. उन्होंने पाया कि अनुवाद बहुत खराब और शाब्दिक है. उन्होंने किताब को तत्काल रोकने को कहा. उनसे कहा गया कि 700 रुपए खर्च हो चुके हैं. उन्होंने कहा, ‘आपको लगता है कि इस कचरे की बाइंडिंग और कवर के ऊपर अतिरिक्त पैसा खर्च करके इसे जनता के सामने रखना ठीक रहेगा? मैं लोगों के सामने स्तरहीन साहित्य रखकर उनके स्वाद को खराब नहीं करना चाहता.’ किताबों के पूरे गट्ठर को जला दिया गया, उसे रद्दी में बेचने की भी इजाजत नहीं दी गई.

गांधीजी हमेशा प्रेस की आज़ादी की वकालत करते थे. जब भी सरकार उनके विचारों को व्यक्त करने से रोकने या किसी तरह के प्रतिबंध थोपने की कोशिश करती थी, गांधीजी अपने जर्नल का प्रकाशन ही रोक देते थे. प्रेस की आजादी से उनके प्रेम का नतीजे में उनके प्रेस को सील कर दिया गया, उनकी फाइलें बर्बाद कर दी गईं. उन्हें और उनके सहयोगियों को जेल में डाल दिया गया. तब भी उनका भरोसा डिगा नहीं, उन्होंने कहा, ‘अब इस छापा मशीन और टाइपिंग मशीन को छोड़ देते हैं. हमारी कलम हमारा टाइपिंग मशीन है, कॉपी संपादक हमारी प्रिंटिंग मशीन है. सब मिलकर चलते-फिरते अखबार बन जाएं और बोल-बोलकर एक दूसरे तक समाचार पहुंचाएं. इसे कोई सरकार दबा नहीं सकती.’