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आखेटक मीडिया के लिए ज़रूरी धोबीपाट

इंटरनेट के आगमन के बाद पूरी दुनिया सूचना की बाढ़ में गोते लगा रही है. भारत भी इसका हिस्सा है. सूचना के इस समुद्र मंथन से तमाम अच्छाइयां निकली हैं मसलन लोगों में जागरुकता आई है, अपने अधिकारों को लेकर लोग सजग हुए हैं, शोषित, वंचित और हाशिए के समाजों को इस क्रांति ने नए अवसर मुहैया करवाए हैं. विशेषकर भारत जैसे समाज में जहां विसंगतियां हमेशा धार्मिकता, परंपरा और रूढ़ियों के खोल में छिपकर आती हैं, उन्हें इस क्रांति ने उधेड़ने का काम किया है.

भारतीय जन संचार माध्यमों के साथ इसी तरह की छोटी-मोटी तमाम दिक्कतें हैं मसलन इसमें अंग्रेज़ी भाषा अपने प्रभुत्व में स्थापित है जबकि आम जन तक उसकी पहुंच का दायरा बहुत सीमित है. किसी कंपनी के आईवीआर आधारित ग्राहक सेवा में फोन लगाइए. दूसरी तरफ से पहली आवाज आती है- “फॉर इंगलिश, डायल वन, भारतीय भाषाओं के लिए दो दबाएं.” भारतीय भाषाओं में काम करने वाले संस्थान अक्सर इस ऊंच-नीच का रोना रोते रहते हैं. हालांकि इस स्थिति के बनने में उनका भी काफी हद तक योगदान है.

खैर! इस समय जब हम हिंदी में न्यूज़लॉन्ड्री की शुरुआत करने जा रहे हैं तब ख़बर और जन संचार के माध्यम एक और गंभीर दिक्कत से दो-चार हैं. यह दौर फर्जी ख़बरों का भी हैं. अब भारतीय समाचार मीडिया का एक वर्ग पेड न्यूज़ के कीचड़ से निकल कर फेक न्यूज़ के दलदल में घुस चुका है. इस स्थिति ने पूरे मीडिया की विश्वसनीयता को जबर्दस्त चोट पहुंचाई है.

70, 80 और 90 के दशक में भारतीय राजनीति, नौकरशाही और सरकारी तंत्र के भीतर भ्रष्टाचार की विषबेल सिरे चढ़ी तब नेताओं, अधिकारियों और पुलिस वालों को चोर, बेईमान कहना आम जुमला हो गया. इस दौर की हमारी प्रचलित संस्कृति और फिल्में इसकी गवाह हैं. पर उस दौर में भी पत्रकारिता, परदे के पीछे अपनी तमाम संदिग्ध गतिविधियों के बावजूद, एक पवित्र पेशे के रूप में स्थापित रहा. आज स्थिति उलट चुकी है. नीरा राडिया टेपकांड से लेकर फेक न्यूज़ तक के सफ़र में भारतीय मीडिया की विश्वसनीयता उतनी ही मजबूत या कमजोर हुई है जितना समाज के बाकी हिस्सों की. दलाल मीडिया आज उसी रौ में इस्तेमाल होता है जिस रौ में पुलिस और नेताओं के लिए चोर-बेईमान.

पत्रकारिता के कुछ शाश्वत नियम हैं मसलन यह तय है कि मीडिया को हमेशा ऐसी आवाज़ों के पक्ष में खड़ा रहना होता है जो आमतौर पर अनसुनी रह जाती हैं. 19वीं सदी के अंत में महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में ऐसी ही आवाज़ों के लिए इंडियन ओपिनियन की शुरुआत की थी. भारतीय समाज में ऐसे वंचित-हाशिए की तमाम आवाज़ें हैं. पर मीडिया का एक वर्ग युद्ध के उन्माद में हर दिन उन शाश्वत नियमों को ठेंगा दिखा रहा है. वह हर दिन आखेट पर निकलता है. निपट शांति के हालात में भी यह लगातार आगबबूला बना रहता है. इसकी परदे पर आग लगी रहती है.

इस रोज़ाना वाद-विवाद की संस्कृति की दिक्कत यह है कि यह हालात को सिर्फ दो चश्मों से देखती है. दोस्त और दुश्मन. लिहाजा हर समस्या की जटिलता और उसकी बहुपरतीयता में झांकने का जोखिम कोई नहीं उठाता. हमारे चैनलों पर तमाम “चपल जीभ संस्कृति” से संपन्न एंकर बैठे हैं जो हर समस्या का हल अपने स्टूडियों में या न्यूज़रूम में खोज लेते हैं. यहां हर समस्या के हल का एक ही पैमाना है- एंकर के गले की ताकत जो अधिकतम डेसिबल की स्पर्धा में अपने विपक्षी के चीथड़े उड़ा देता है. लिहाजा यहां हमेशा 80 साल के राहुल सिंह 45 साल के चौधरियों, गोस्वामियों के हाथ धूल-धूसरित होते रहते हैं. तर्क-कुतर्क में ये लोग सनातनी भारत की उस शास्त्रार्थ परंपरा का जिक्र करते हैं जहां संस्कृत के महान कवि कालिदास को भी शादी से पहले पत्नि विद्योत्तमा से वाद-विवाद करना पड़ता है. उनके मुताबिक यह हमारी समृद्ध संवाद संस्कृति का हिस्सा है.

लेकिन यह भी उतना ही सच है जितना इन टीवी चैनलों की अर्थहीन बहसें, यानी अधूरा सच. पूरा सच यह है कि जाति, संप्रदाय, वर्ग की धाराओं में बंटे भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से को ज्ञान आर्जित करने, तर्क-वितर्क करने की छूट कभी रही ही नहीं. यह तथ्य है कि समाज के बहुमत को यह सुविधा उपलब्ध ही नहीं थी. तो आज ये कहना कि वाद-विवाद की समृद्ध संस्कृति रही है, या यह हमारे समाज में समृद्ध तरीके से मौजूद रही है, कोरा झूठ है. यह हमारा राष्ट्रीय स्वभाव नहीं है. लंबे समय से यहां बड़े से बड़ा अन्याय और भेदभाव भी परंपरा, संस्कृति और धर्म की चादर में लिपट कर विश्वसनीयता हासिल करता रहा है. चाहे यह महिलाओं के साथ हो या फिर दलितों, अल्पसंख्यकों के साथ हो. यह तर्कशील समाज नहीं, यह धर्मशील समाज है.

भारत का मीडिया आज इन दायित्वों को दिन ब दिन नज़रअंदाज कर रहा है. ऐसे में समाज के भीतर एक भ्रम की स्थिति निर्मित हो रही है. एक ही विषय पर जितने मुंह उतनी बातें. मीडिया का दायित्व बहुत बड़ा है इसलिए इसे किसी भी सत्ता या पक्ष से मुक्त होना जरूरी है.

अपने अंग्रेजी संस्करण में न्यूज़लॉन्ड्री बीते पांच सालों से इन दायित्वों को निभाने की कोशिश करता रहा है. हिंदी अवतार में भी न्यूज़लॉन्ड्री को आप इन्हीं कुछ मूल अवधारणाओं को इर्द-गिर्द पाएंगे.