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जवाहरलाल नेहरू: 50 साल पहले मर चुका आदमी इतनी चर्चा में क्यों?

गुलाम भारत के अंतिम वाइसरॉय और स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने अपने प्रिय मित्र, ब्रितानी साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी और अपनी पत्नी एडविना के गहरे अनुरागी जवाहरलाल नेहरू के बारे में, उनकी मृत्यु के बाद जो लिखा, जवाहरलाल का उससे बेहतर मूल्यांकन शायद ही किसी ने किया होगा: अगर जवाहरलाल की मृत्यु 1947 में हो जाती तो वे इतिहास के महानतम नायकों की कतार में रखे जाते; अब वे दुनिया के महान राजनेताओं की श्रेणी में रखे जाएंगे!

ऐसा ही कुछ कभी उनके  भाई समान रहे, कभी के उनके अनन्य प्रशंसक और कभी के उनके अन्यतम राजनीतिक विरोधी लोकनायक जयप्रकाश ने भी कही थी: हमें एक साथ दो जवाहरलाल को देखना व समझना, सीखना होगा- 1947 से पहले वाले और 1947 के बाद वाले! आजाद भारत में अमेरिका के राजदूत बन कर आए चेस्टर बाउल्स ने 15 अगस्त, 1947 के बाद लिखा: अब दुनिया गांधी को इतिहास का नायक (हीरो ऑफ द पास्ट!) और जवाहरलाल को भविष्य की आशा (होप ऑफ द फ्यूचर!) की नजर से देखेगी.  ऐसे कितने ही- कम से कम 125- उद्गारों से हम उन जवाहरलाल को याद कर सकते हैं जिनकी 125वीं जयंती का यह वर्ष है; और जिसे लेकर सब तरफ यह बहस चल पड़ी है कि जवाहरलाल ने ऐसा क्या किया कि वे 125 साल जी सकें! आरोपों के भी कम-से-कम 125 तीर तो चलाए ही जा सकते हैं! अगर उपलब्धियों और विफलताओं के 125 तीर दोनों ओर से चलाए जा रहे हैं तो इस जवाहरलाल में कुछ खास तो जरूर था. कोई 50 साल पहले ही मर चुका यह आदमी अगर आज भी इस कदर जिंदा है तो यह मानना ही होगा कि यह कोई साधारण आदमी नहीं था.

आज हम उस दौर में जवाहरलाल को याद कर रहे हैं जिस दौर में लोग-बाग जनता के पैसों से टूटी हुई सड़क या पुलिया भी ठीक करवाते हैं तो उस पर यह बोर्ड लगवाना नहीं भूलते कि यह हमारी सांसद निधि से बनाया गया है, जहां लोग नकली लाल किला बनवा कर, उस पर चढ़ कर खुद को प्रधानमंत्री घोषित कर देते हैं और फिर अपनी ही पार्टी का गला दबोच कर उससे चूं करवा लेते हैं! इस मोड़ से देखता हूं तो जवाहरलाल दो अंगुल और बड़े नजर आते हैं. उनके नाम की तख्ती इतिहास ने ही टांग रखी है.

जवाहरलाल की सबसे बड़ी खुशकिस्मती यह हुई कि वे उस युग में पैदा हुए जो एकाधिक अर्थों में गांधी-युग था; और यही उनका दुर्भाग्य भी बना! गांधी ने उनके भीतर छुपे उन गुणों को पहचाना जिनके बारे में खुद जवाहरलाल को ही पता नहीं था; उन्हें तराशा-चमकाया और फिर वक्त की भट्ठी में झोंक दिया! फिर गांधी ने उनकी ऐसी कसौटी करनी शुरू कर दी कि जवाहरलाल का दम फूल गया! गांधी ने अपने समेत सबके साथ ऐसा ही किया; और इसलिए आश्चर्य नहीं कि उस दौर के सारे गुलिवर आज की कसौटी पर लिलिपुटियन नजर आते हैं.

जवाहरलाल को गांधी न मिले होते तो वे किसी भी सूरत में हिंद के जवाहरलाल तो न बने होते- शायद प्रधानमंत्री भी नहीं! लेकिन हम ऐसा कहें तो उसी सांस में यह भी कहें कि गांधी नहीं होते तो जिन्ना भी और सरदार भी और राजेन बाबू, मौलाना और राजाजी और जयप्रकाश नारायण और विनोबा भावे भी वो नहीं होते जो वे बने और आज जहां वे हैं! यह तो उस गांधी का विभूतिमत्व ही था कि उसने कवि गुरू रवींद्र और बाबा साहेब आंबेडकर और ठक्करबापा जैसों को एक ही दरी पर ला बिठाया और सबने इसमें धन्यता का अनुभव किया! इसलिए आज हम गांधी को किनारे रख कर, केवल जवाहरलाल की बात करेंगे.
महात्मा गांधी ने जिस देश की कमान जवाहरलाल को सौंपी थी वह देश अभी-अभी  खून की नदियां पार कर, आजादी के किनारे लगा था; और इस जद्दोजहद में इसका एक हिस्सा वक्त के समंदर में टूट कर किसी दूसरे किनारे जा लगा था- पाकिस्तान! वह अलग ही नहीं हुआ था, इस हिंदुस्तान में से दूसरा भी जो हड़पा जा सके, उसे हड़पने की कोशिश में लगा था. इधर जो हिंदुस्तान जवाहरलाल के हाथ आया था, उसके मुंह में भी खून लग चुका था. वह तन से एक दीखता भले था, मन से एक नहीं था और एक-दूसरे के प्रति गहरी हिकारत से भरा था. गरीबी और अशिक्षा और कुशिक्षा और जहालत और आलस्य ऐसा था जो आप ही प्रतिमान बन गया था. धार्मिकता का कहीं पता नहीं था, धर्मांधता का बोलबाला था.

भौतिक विकास की गहरी भूख थी लेकिन भौतिक विकास का कोई ढांचा नहीं था. बाहरी और भीतरी खतरों से घिरे इस मुल्क के हर कोने से एक ही आवाज उठती थी कि उसे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए फौज-पुलिस चाहिए और देश के पास राजधानी दिल्ली को बचाने के लिए भी बहुत अपर्याप्त और अकुशल फौज-पुलिस थी! और ऐसे में जो देश का सबसे बड़ा और वर्षों का जांचा-परखा रहनुमा था, हमने उसकी हत्या कर डाली थी! देश ऐसी ही हालत में था तब जैसे वक्त के समंदर में बिना पतवार की नाव! जवाहरलाल ने ऐसा देश संभालने की नहीं सोची थी. लेकिन जैसा भी मिला, उसे संभालने और बचाने की कोशिश में वे पहले क्षण से अंतिम क्षण तक जुटे रहे.

जवाहरलाल संत, साधक, विचारक, क्रांतिकारी या दुर्धर्ष प्रशासक में से कुछ भी नहीं थे लेकिन इतिहास ने उन पर ये सारी भूमिकाएं थोप दीं और वे उस दौर के दूसरे नायकों की अपेक्षा इनके निर्वाह में बहादुरी से लगे ही नहीं रहे बल्कि एक प्रतिमान भी बना गये. वे इतिहास की गहरी समझ रखने वाले, उत्साह व ऊर्जा से भरपूर मोहक व्यक्तित्व के धनी थे. कविगुरू रवींद्रनाथ ठाकुर ने उन्हें वैसे ही ‘ऋतुराज’ या गांधी ने ‘हिंद का जवाहर’ नहीं कहा था! वे सच में ऐसे ही थे. अपने इस व्यक्तित्व के कारण, आजादी की लड़ाई के अग्रणी सिपाही की राष्ट्रीय पहचान और इतिहास की बारीकियों को पहचानने के कारण वे इस डगमागते देश में आशा का संचार कर सके, इसका भौगोलिक ढांचा बनाने व मजबूत करने का काम कर सके और दुनिया के सामने इसके भूत, वर्तमान व भविष्य का मोहक व चुनौतीपूर्ण नक्शा रख सके. उन्होंने देश को मजबूत व स्थिर करने के दो सबसे महत्वपूर्ण तत्व को पहचाना- संसदीय लोकतंत्र की नींव मजबूत की जाए और देश की आर्थिक निर्भरता बनाई जाए! सवाल था कि कैसे हो यह काम? इन दोनों के बारे में एक काल्पनिक तस्वीर थी महात्मा गांधी की दी हुई जिसे उनकी बुद्धि स्वीकारती नहीं थी. गांधी से अलग समाज का कोई नया ढांचा बना सकने की बौद्धिक क्षमता उनमें नहीं थी. उनके सामने अपेक्षाकृत आसान व बुद्धिगम्य रास्ता था कि वे रूस का साम्यवादी या अमरीका का पूंजीवादी ढांचा अपनाएं. लेकिन गांधी से मिली दृष्टि उन्हें इसकी कमियों, कमजोरियों के प्रति सावधान करती थी. उन्होंने एक तीसरा रास्ता खोजा- हम इन दोनों मॉडलों के अच्छे-अच्छे तत्वों को ले कर अपने भारत का स्वरूप गढ़ें! क्या इसमें कोई गलती थी?

जिस संविधान सभा में देश की सारी आला प्रतिभाएं लंबे समय तक दिमाग जोड़ कर बैठीं- राजेंद्र प्रसाद से ले कर डॉक्टर आंबेडकर तक- वह भी वही संविधान बना सकी न जिसमें दुनिया के प्रचलित संविधानों से ले-ले कर प्रावधान जोड़े गये थे! हम कह सकते हैं कि एक अच्छी-सुंदर टेपेस्ट्री है हमारा संविधान! उसमें हिंदुस्तान की अपनी जीनियस की, लंबी आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परंपरा व अनुभव की कोई झलक मिलती नहीं है, क्योंकि वह काम बहुत मौलिकता व दृढ़ता की मांग करता है. हम अपनी फिल्मों का संदर्भ लें तो बात समझना आसान होगा. अधिकांश भारतीय फिल्में कैसे बनती हैं? विदेशी किसी फिल्म की हम नकल मारते हैं और अपनी-अपनी समझ से उसका भारतीयकरण कर लेते हैं.

हमारा संविधान भी और हमारा सारा राजनीतिक दर्शन भी ऐसी ही मानसिकता से बना है.
संविधान बन गया तब किसी ने ध्यान खींचा कि इसमें कहीं भी भारतीय सामाजिक परंपरा, ग्रामीण संस्कृति और ग्राम स्वराज्य की गांधी की परिकल्पना का तो जिक्र भी नहीं आया! हवा में यह सनसनी तो थी ही कि बूढ़े गांधी को संविधान निर्माण की यह पूरी कसरत ही व्यर्थ की लग रही है, वे इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं कर रहे हैं. ऐसे में अगर वे देखेंगे कि इस संविधान से बनने व चलने वाला राज्य उन मूल्यों के बारे में अपनी कोई प्रतिबद्धता जाहिर ही नहीं करता है जिसका वादा आजादी की लड़ाई के दौरान गांधी के साथ सबने देश से किया था, तो क्या होगा? सभी जानते थे कि इस संविधान की नैतिक बुनियाद ही धसक जाएगी और यह खोटा सिक्का भर रह जाएगा यदि इस पागल बूढ़े ने इसके बारे में कोई नकारात्मक टिप्पणी कर दी. तो राजेंद्र प्रसाद की नींद हराम हुई. डॉक्टर आंबेडकर, गांधी के रवैये को ले कर ज्यादा संवेदनशील नहीं थे लेकिन एक रास्ता निकाला गया और गांधी की वह सारी खब्त थोक के भाव से संविधान के एक नये बेशकीमती अध्याय में डाल दी गई और उसे राज्य के नीति-निर्देशक तत्व का नाम दिया गया. खाना-पूर्ति का यह अध्याय ही कहीं गले की फांस न बन जाए इसका खतरा भांप कर, इसके अंत में यह पंक्ति भी जड़ दी गई कि राज्य इनकी पूर्ति की दिशा में तो काम करेगा लेकिन इसके आधार पर उसे किसी अदालत में अपराधी बना कर खड़ा नहीं किया जा सकता है. यह पूरा प्रसंग यह समझने में सहायक होगा कि सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही नहीं, देश का तब का पूरा नेतृत्व यह बुनियादी बात समझ नहीं सका था कि कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़ कर सड़कें-इमारतें तो शायद बन भी जाएं, मुल्क नहीं बनते हैं! इसलिए नेहरू के नेतृत्व में भारतीय समाज के विकास की कहानी बहुत आधी-अधूरी और जयप्रकाश नारायण के शब्दों में बेहद नकली बनी. लेकिन कौन था कि जिसके पास तब कोई दूसरा प्रतिमान था?

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद सैकड़ों कमरोंवाले उसी वाइसरॉय भवन में आराम से अवस्थित हो रहे थे जिसे गांधी तुरंत ही सार्वजनिक अस्पताल में बदल देना चाहते थे. सरदार पटेल अंग्रेजों की बनाई और छोड़ी उसी नौकरशाही से वही सब काम करवाने में जी-जान से जुटे थे जिसे गांधी ने देश के लिए अनुपयोगी व घातक साबित कर दिया था. मौलाना आजाद शिक्षामंत्री की आरामदेह कुर्सी पर आत्ममुग्ध बैठे थे. डॉक्टर आंबेडकर सत्ता में भी भागीदारी चाहते थे और विपक्ष में भी अपनी जगह सुरक्षित रखने की कसरत कर रहे थे. जयप्रकाश नारायण का समाजवादी खेमा देश की नहीं, अपनी जड़ें मजबूत करने में लगा था क्योंकि उनका समाजवाद सत्ता में आने के बाद ही शुरू होता था. तब के सारे संघ परिवारी राष्ट्र-निर्माण की किसी भी चुनौती से नहीं जूझ रहे थे बल्कि हिंदुत्व की जड़ें सींचने में लगे थे. उनके लिए हिंदू राष्ट्र का निर्माण ही राष्ट्र-निर्माण था. देश का सारा व्यापार जगत जेआरडी टाटा के नेतृत्व में कह रहा था कि देश की सारी आर्थिक गतिविधियों का सूत्र-संचालन राज्य के हाथों में ही होना चाहिए. तबके सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों में एक (तबके मनमोहन सिंह?) पीसी महालनोबीस हमारे पहले योजनाकार थे और सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रम खड़ा करने की शुरुआत उनकी पहल से ही हुई थी. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने उस आर्थिक ढांचे की जोरदार पैरवी की जिसे हम मिश्रित अर्थतंत्र का नाम देते हैं और जिसका श्रेय जवाहरलाल को देते हैं. तो इन सारे प्रयासों का अच्छा-बुरा ठीकरा केवल जवाहरलाल के सर कैसे फोड़ा जा सकता है? अगर इस अर्थ में यह बात कही जा रही हो कि सबसे बड़ा सर उनका ही था तो सबसे अधिक जिम्मेवारी भी उनकी ही है, तो इससे इंकार नहीं किया जा सकता है. लेकिन तब हमारा स्वर अभियोग का नहीं, अफसोस का होना चाहिए.

जवाहरलाल को देखने की एक खिड़की और भी है! भारत की आजादी के साथ या उसके आसपास आजाद हुए दुनिया के प्रमुख देशों की आजादी, लोकतंत्र और उनके सामाजिक-आर्थिक विकास का जायजा लें हम! पाकिस्तान का हाल क्या रहा और आज क्या है, यह लिखने की जरूरत नहीं है. तब के पाकिस्तान की जेल में बैठे फैज अहमद फैज ने लिखा था:

निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म की कोई न सर उठा कर चले.

और आज के पाकिस्तान में घुटते अजहर रफीक लिख रहे हैं:

मुझको अब यह मुल्क, ये अपना घर नहीं अच्छा लगता / गहशत-गर्दों का यह खौफ-नगर नहीं अच्छा लगता / शहर में एक तन्जीम क्लाशनोफ लिए फिरती है / लोगों के कंधों पर इसको सर नहीं अच्छा लगता / मैं आजाद वतन का शहरी, कैदी अपने घर में / अब इस अरज-ए-पाक पे, सैर-ओ-सफर नहीं अच्छा लगता!

पाकिस्तान उस प्रेत से लड़ने को अभिशप्त है जिसकी ताकत से इसका जन्म हुआ है. हर वक्त के जिन्नाओं को यह समझना ही होगा कि मुल्कों की जड़ में आप कैसे सपनों की खाद भरते हैं, इसका निर्णायक महत्व होता है. घृणा, द्वेष, चालों-कुचालों की ताकत से सत्ता की अपनी भूख को तृप्त करने की कोशिश में से बने मुल्क पाकिस्तान जैसे अंधेरे, रक्तरंजित वर्तमान और भविष्यहीन भविष्य से घिरे रह जाते हैं. गुलामी के हमारे दौर में ही गांधी ने आजाद भारत के सपनों की ऐसी खाद हमारे मनों में भरी कि उसकी कसौटी पर, बाद में उगी सारी फसलें हमें कमतर नजर आती हैं- जवाहरलाल की उपलब्धियां भी बौनी नजर आती हैं. लेकिन गांधी की तराजू पर जवाहलाल को तौलना न्याय नहीं है क्योंकि यह आदमी इस तराजू से हरदम इंकार ही करता आया था. हम सोचें तो यह कि गांधी अगर हुए ही नहीं होते और हमारे पास विकास का एक ही मानक होता जो पश्चिम से लिया हुआ है, तब जवाहरलाल की उपलब्धियां कैसी नजर आती हैं?

तटस्थ राष्ट्रों की परिकल्पना में जवाहरलाल के साथ आ जुड़े चार सबसे कद्दावर नेताओं को देखिए- मिस्र के गमाल अब्देल नासिर, घाना के क्वामे एंक्रूमा, इंडिनेशिया के सुकार्णों और यूगोस्लाविया के मार्शल जोसेफ ब्रोज टीटो. 1952 में राजशाही को खत्म कर मिस्र आगे आया और 1956-1970 तक नासिर उसके राष्ट्रपति रहे. एकाधिकारशाही और मतांतर को फौजी बूटों से कुचलना, मनमानी फौजी कार्रवाइयों से अपनी ताकत का प्रदर्शन करना- नासिर ने अपने देश को इस रास्ते पर जो तब डाला वह आज तक मिस्र को जकड़े हुए है. कभी ‘अफ्रीका के लेनिन’ कहे जाने वाले एंक्रूमा ने 1951-1966 के दौर में अपनी निजी सत्ता बनाए रखने के लिए हर उस हथकंडे का इस्तेमाल किया जिसने राजनीतिक-आर्थिक भ्रष्टाचार का अभूतपूर्व मायाजाल रचा.

अफ्रीकी दुनिया की एका के सपने का कब अंत हुआ यह तो नहीं पता चला लेकिन घाना की बीमारी सारे अफ्रीकी देशों को ग्रस ले गई, यह तो हम देख ही सकते हैं. 1949 में सुकार्णों ने इंडोनेशिया को अपने हाथ में लिया और फिर वहां कभी भी राजनीतिक स्थिरता नहीं आई- राजनीतिक व फौजी तख्तापलट, भ्रष्टाचार, परिवारवाद और सामाजिक अशांति की बैसाखी पर ही चलता रहा है इंडोनेशिया! टीटो 1953-1980 तक यूगोस्लाविया के राष्ट्रनेता रहे. वहां की आर्थिक संपन्नता का श्रेय उन्हें दिया जाता है लेकिन सत्ता के इस्तेमाल के बारे में मतांतर के कारण अपने अन्यतम सहयोगी मिलोवान जिलास को जेल में ठूंसने से जो बात शुरू हुई वह टीटो से असहमत हर व्यक्ति की नियति ही बन गई. अपने राजनीतिक विरोधियों की कमर तोड़ते-तोड़ते टीटो ने वह माहौल रचा कि अंतत: यूगोस्लाविया ही  टूट गया.

जवाहरलाल को जैसा रक्तरंजित देश मिला था उसमें इसका टूट जाना, सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसते रहना, लोकतंत्र का चोला उतार फेंकना, दरबारियों का जमावड़ा और राजनीतिक, आर्थिक भ्रष्टाचार का घटाटोप कुछ भी अस्वाभाविक नहीं होता! लेकिन कदम दर कदम यह देश आगे ही बढ़ा, मजबूत हुआ, संसदीय लोकतांत्रिक संस्थाओं व परंपराओं के प्रति हमारी मजबूत प्रतिबद्धता बनी, आर्थिक विकास व आत्मनिर्भरता के बारे में देश सचेत हुआ तो इन सबका श्रेय किसे दें हम? गांधी द्वारा फैलाई गई चेतना का, उस दौर में बने-उभरे दूसरे प्रखर राजनीतिक नेताओं का, विनोबा-जयप्रकाश जैसे सामाजिक क्रांतिकारियों की सतत जद्दोजहद का योगदान तो है ही लेकिन जवाहरलाल को हम इस श्रेय से वंचित कर सकेंगे क्या? माओ के चीन, सिंगमन ऋ के दक्षिण कोरिया, जिन्ना के पाकिस्तान, बंडारनाइके के श्रीलंका, जेनरल आंग सन के बर्मा और गुरियन के इसरायल से हम अपना हिंदुस्तान या अपना जवाहरलाल बदलना चाहेंगे क्या? कम से कम मैं तो नहीं- हर्गिज नहीं! इन सबने पहली चुनौती में ही लोकतंत्र को गंदे कपड़े की भांति उतार फेंका था ! जवाहरलाल ने हर गंदगी को पार करते-झेलते हुए भी लोकतंत्र को एक मूल्य की तरह पकड़ कर रखा.

हम यह न भूलें कि जवाहरलाल सत्ता की ताकत से समाज का कल्याण करने के प्रचलित दर्शन में विश्वास करने वाले व्यक्ति हैं. वे सत्ता के बारे में वैसी तटस्थता कभी नहीं रखते हैं कि कोई छीन ले जाए तो ले जाए. वे संगठन व सरकार दोनों पर अपनी पूरी पकड़ रखना चाहते हैं और इसलिए संसदीय राजनीति की मान्य मर्यादाओं को भंग किए बिना अपने लोग चुनते भी हैं और उन्हें खास जगहों पर बिठाते भी हैं. उन पर तरह-तरह के आरोप लगाने वाले अधिकांश लोग वे ही हैं जो उनकी तरह ही सत्ता से समाज का कल्याण करने के दर्शन में विश्वास करते हैं. वे सब सत्ता पाने की जितनी जुगत करते हैं, जवाहरलाल सत्ता बनाए रखने की वैसी ही जुगत करते मिलते हैं तो हम किस आधार पर शिकायत करें?

जवाहरलाल पर खानदानी राजनीति का आरोप इसलिए कि उन्होंने अपनी बेटी इंदिरा को राजनीति में स्थापित किया. यह सच है लेकिन इसका एक पहलू यह भी है कि इंदिरा गांधी में राजनीतिक प्रतिभा और नेतृत्व का कीड़ा जन्मजात ही था. एक जागरूक किशोरी की तरह उन्होंने आजादी के आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. उन्होंने अपने पिता की राजनीति को निकट से देखा भर ही नहीं था बल्कि उसे संभाला भी था. अपने वैवाहिक जीवन को बहुत तवज्जो नहीं दे कर भी वे इस क्षेत्र की थाह लेती रहीं थीं. अपनी ऐसी बेटी की प्रतिभा को पहचान कर, पिता ने उसे इस समुद्र में उतरने की इजाजत दी. यह अपने बेटे या बेटी को या भाई या भतीजे को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की खानदानी सियासत जैसी बात नहीं है. राजनीति को या सत्ता को अपना खानदानी पेशा बनाने वाले ये लोग भले अपनी कमजोरी या बेईमानी को छिपाने के लिए जवाहरलाल की ओट लें लेकिन इससे उनकी नंग छिपती नहीं है. और फिर यह तथ्य तो सामने है ही कि जवाहरलाल के बाद इंदिरा गांधी नहीं, लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने. अचानक हुई उनकी मौत ने फिर से वह पद खोल दिया और सिंडिकेट ने अपना पूरा हिसाब लगा कर, इस गूंगी गुड़िया को कुर्सी पर बिठाया. यह उनकी रणनीति थी. इसमें जवाहरलाल की कोई भूमिका नहीं थी. हमें यह भी सोचना चाहिए कि यदि शास्त्रीजी की असामयिक मृत्यु नहीं हुई होती वे अगले 5-7 सालों तक प्रधानमंत्री रह जाते तो इंदिरा गांधी कहां होतीं? फिर खानदानी राजनीति का आरोप किसके सर जाता? क्या उनके जो संघ परिवार की अनुमति या आदेश के बिना एक चपरासी भी नियुक्त नहीं करते हैं? और क्या प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने यह साबित नहीं कर दिया ये सभी राजनीति का जैसा खेल खेलने में लगे थे, और आज भी लगे हैं, उस खेल की सबसे चतुर, सबसे क्रूर खिलाड़ी वे ही हैं! इंदिरा गांधी जवाहरलाल के बल पर नहीं, अपने और सिर्फ अपने बल पर प्रधानमंत्री बनीं और लंबी पारी खेल कर सिधारीं. हम उनका सकारामक या नकारात्मक जैसा भी विश्लेषण करे, इतनी ईमानदारी तो बरते हीं कि वह इंदिरा गांधी की आड़ में जवाहरलाल पर हमला बन कर न रह जाए.

प्रधानमंत्री के रूप में, आज 70 सालों के बाद भी वही रोलमॉडल हमारे राजनेताओं के सामने है जिस पर खरा उतरने की कोशिश अटल बिहारी वाजपेयी ने भी की और आज नरेंद्र मोदी भी उसकी ही नकली नकल करते दिखाई देते हैं. गांधी तो बहुत दूर की बात है, जवाहरलाल जैसा बनना और उसे निभा ले जाना भी बहुत बड़ा सीना मांगता है- 56 इंच का हो कि न हो, दूसरे किसी से भी ज्यादा गहरा और पारदर्शी तो हो ही- और वैसा सीना जवाहरलाल नेहरू के पास था. हम आज भी उसकी कमी और उसकी ऊष्मा महसूस करते हैं.

आदमी पूरा हुआ तो देवता हो जाएगा. जरूरी कि उसमें कुछ कमी बाकी रहे!

(साभार: तहलका हिंदी)