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मध्यस्थता की कला के पुराने और असफल खिलाड़ी हैं श्री श्री रविशंकर

दिल्ली में यमुना के कछार में विश्व सांस्कृतिक महोत्सव कर यमुना की तराई को अपूरणीय क्षति पहुंचा चुके आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर अब अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में मध्यस्थता कर रहे हैं. उपरोक्त बातें नेशनल ग्रीन ट्राइब्युनल ने समय-समय पर अपनी सुनवाई के दौरान श्री श्री और उनके संगठन आर्ट ऑफ लिविंग के बारे में कही हैं.

राम जन्मभूमि-अयोध्या विवाद का हल करने के लिए मध्यस्थता की यह कोई पहली पहल नहीं है. वरिष्ठ दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने भी एक जमाने में इस विवाद के हल की पहल की थी, पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के जमाने में. इसके पहले चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री रहते इसकी कोशिश कर चुके थे. देश के दो शंकराचार्यों ने भी अलग-अलग समय पर इसमें हस्तक्षेप किया, पर सबको असफलता हाथ लगी.

क्या हम सिर्फ इसी आधार पर श्री श्री रविंशकर की ताज़ा कोशिश को खारिज कर सकते हैं. इसके दो जवाब हैं, हां भी और नहीं भी. यह कहना सरलीकरण होगा कि अतीत में सभी कोशिशें असफल हुई हैं, इसलिए यह कोशिश भी असफल होगी. लेकिन अतीत हमें और भी बहुत कुछ बताता है, विशेषकर श्री श्री रविशंकर के बारे में.

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद जैसे संवेदनशील धार्मिक, भावनात्मक विवाद में पड़ने वाले किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत पहचान, उसकी छवि, उसका अतीत, उसकी राजनीति और इस तरह के मसलों को हल कर पाने की क्षमता और अनुभव के आधार पर निकाला गया कोई निष्कर्ष ज्यादा तार्किक और परिणाममूलक होगा. क्या श्री श्री इन मानकों पर खरा उतरते हैं. जवाब सिर्फ निराशाजनक नहीं बल्कि बेहद निराशाजनक है.

किसी भी मसले में मध्यस्थता करने वाले शख्स की पहली न्यूनतम योग्यता होती है कि वह व्यक्ति कितना निरपेक्ष और तटस्थ है. क्या श्री श्री की छवि ऐसी है, क्या मुस्लिम समुदाय उन्हें एक निष्पक्ष मध्यस्थ के रूप में स्वीकर सकता है? जवाब है नहीं. श्री श्री की छवि पूरी तरह से मौजूदा सरकार के सहयोगी की है. वे विश्व हिंदु परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तमाम कार्यक्रमों में लंबे समय से शिरकत करते आए हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में जब जनता ने भारी बहुमत से नरेंद्र मोदी के पक्ष में मतदान किया था, श्री श्री उस चुनाव में भाजपा के पक्ष में अभियान संचालित कर चुके हैं. ऐसे में उनसे एक निष्पक्ष पंच की भूमिका निभा पाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. कम से कम मुस्लिम समुदाय तो इसे स्वीकार नहीं करेगा. यह एक तरह से उसके साथ भेदभाव भी होगा.

श्री श्री की संदिग्ध योग्यता के कुछ और प्रमाण भी हैं. अतीत में उन्होंने देश के लगभग हर ज्वलंत मसले में पंच बनने की कोशिश अपने स्तर पर की है लेकिन किसी भी मसले में उनके पास गिनाने के लिए एक भी सफलता की कहानी नहीं है.

बाबा रामदेव बनाम भारत सरकार

यह यूपीए-2 के दौर की बात है. स्वामी रामदेव ने दिल्ली के रामलीला मैदान में भारी पैमाने पर अनशन शुरू कर दिया था. देश भर से आए उनके अनुयायी मैदान में डटे थे. रामदेव को देश के पूर्व राष्ट्रपति और तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी समेत पांच केंद्रीय मंत्रियों ने एयरपोर्ट से रिसीव कर रामलीला मैदान में बैठाया था. बाबा ने सरकार की एक न सुनते हुए आमरण अनशन की घोषणा कर दी. श्री श्री ने ऐसे नाजुक वक्त में सरकार और रामदेव के बीच बिचवई की पेशकश की. रामदेव से उनकी तीन मुलाकातें हुई लेकिन स्थित बनने की बजाय ऐसी बिगड़ी की नौवें दिन आधी रात को पुलिस कार्रवाई के चलते बाबा रामदेव को एक महिला श्रद्धालु के कपड़े पहन कर भागना पड़ा. बाद में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया. श्री श्री की मध्यस्थता असफल रही.

कश्मीर

ज्यादा दिन नहीं बीते हैं. कश्मीर में आतंकी बुरहान वानी की मौत के बाद उन्होंने कश्मीर के जटिल मसले में भी पंच बनने की एक कोशिश की थी. बुरहान वानी के पिता को उन्होंने बाकायदा अपने बंगलोर स्थित आश्रम में बुलाकर मुलाकात की थी. पत्थरबाजी रोकने की मांग की थी. पर बात कितनी बनी या बिगड़ी सबके सामने है.

नक्सलवाद

इसी साल मार्च महीने की बात है. भोपाल में एक योग कार्यक्रम के दौरान उन्होंने नक्सलवाद की समस्या पर भी अपनी बिन मांगी मध्यस्थता की पेशकश की थी. उन्होंने सरकार के सामने पत्ता फेंका- अगर दोनों पक्ष कहें तो वे बिना समय गंवाए मध्यस्थता के लिए तैयार हैं. पर दुर्भाग्य ऐसा कि किसी ने उनसे कुछ नहीं कहा. लिहाजा नक्सलवाद की समस्या जस की तस बनी रही.

पूर्वोत्तर

पूर्वोत्तर के विद्रोही गुटों और भारत सरकार के बीच लंबे अरसे से चल रही खींचतान के बीच भी रविशंकर ने एक समय बिचवई करने की कोशिश की थी. पर जैसा की हमेशा से श्री श्री की नियति है, उन्हें सफलता नहीं मिली. मध्यस्थता की यह कोशिश उनकी अपनी संस्था आर्ट ऑफ लिविंग की वेबसाइट पर मौजूद है.

कश्मीर, पूर्वोत्तर, नक्सलवाद या फिर अयोध्या, ये ऐसे जटिल राजनीतिक मसले हैं जिनके हल के लिए एक जटिल, बहुपरतीय राजनीतिक दृष्टि चाहिए. अपने जीवनकाल में श्री श्री ने उस दरजे की राजनीतिक परिपक्वता या अनुभव कभी नहीं दिखाया है जिससे यह पता चले कि उन्हें कश्मीर, पूर्वोत्तर या फिर नक्सलवाद जैसे मसलों की समझ है. एक आध्यात्मिक गुरू, धार्मिक व्यक्तित्व और श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या है उनके पास. योग और आध्यात्म के क्षेत्र में उन्होंने शानदार काम भी किया है. लेकिन वह एकदम दूसरी दुनिया है. श्री श्री की वह पहचान इन विवादों में उनके किसी काम नहीं आ सकती. लेकिन दुर्भाग्य यह कि वे इन्हीं पहचानों का इस्तेमाल पंच बनने के लिए करते आ रहे हैं.

वे हर वक्त पहल करते रहते हैं जिससे यह संकेत मिलता है कि उनकी मध्यस्थता की हर कोशिश किसी गंभीर पहल से ज्यादा ऐतिहासिक और अमर हो जाने की इच्छा से संचालित होती है. या फिर यह ऐसी सवारी भी हो सकती है जिसके क्लच, गियर और एक्सिलरेटर किसी अदृश्य सत्ता से संचालित होते हों, श्री श्री मुखौटा मात्र हों.

अयोध्या मामले में उनके ताजा हस्तक्षेप ने उपरोक्त दोनों आशंकाओं को बल दिया है. आयोध्या में पत्रकारों से बातचीत के दौरान जब यह सवाल उठा कि आपके पास समाधान का फार्मूला क्या है? आप दोनों पक्षों को क्या प्रस्ताव दे रहे हैं, इस पर श्री श्री बगलें झांकने लगे और फिर जो उत्तर दिया वो सनातन काल से चले आ रहे सत्य के आस-पास की चीज थी- “सत्य की विजय हो, असत्य का नाश हो, प्राणियों में सदभावना हो.”

इस प्रकरण की टाइमिंग पर गौर करें तो वह आशंका बलवति हो जाती है कि श्री श्री के अयोध्या गमन के राजनीतिक मकसद हैं. उत्तर प्रदेश में पहली बार सभी राजनीतिक दल अपने-अपने चुनाव चिन्ह पर नगर निकाय चुनाव लड़ रहे हैं. श्री श्री द्वारा ऐसे मौके पर अयोध्या राग छेड़ने से चुनाव के मुद्दे और रुख बदल सकते हैं.

ऐसे मौके पर जब महज एक पखवारे के भीतर 5 दिसंबर से सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की नियमित सुनवाई होनी है तब श्री श्री का अचानक से अयोध्या विवाद में कूदना कुछ दूसरी आशंकाओं को भी बल देता है. इस विवाद में मुस्लिम पक्ष की पैरोकार ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और दूसरे मुस्लिम समूहों को भरोसा है कि सुप्रीम कोर्ट में फैसला उनके पक्ष में आ सकता है. उनके भरोसे की वजह ये है कि अगर सुप्रीम कोर्ट विवादित जमीन के हिस्से पर निर्णय करेगा तो दीवानी कानूनों के आधार पर उनके पास जमीन के मालिकाना हक़ से जुड़े पर्याप्त सबूत और कागज़ी दस्तावेज हैं. इससे भी बड़ी बात ये है कि 1992 तक विवादित स्थल पर बाबरी मस्जिद खड़ी थी, इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता. अगर “आस्था और भावना” के आधार निर्णय की स्थिति बनेगी तब श्री श्री जैसे लोगों की बड़ी भूमिका बन सकती है.

लेकिन मूल प्रश्न वही है. क्या श्री श्री में इतनी जटिल समस्या में मध्यस्थता की सलाहियत है?